वहुत सोच विचार के वाद दोनों ने यही स्थिर किया कि, अपरकुमार के साथ सुरसुंदरी का व्याह कर दिया जाय। अमरकुमार के पिता धनावह बुलाये गये | राजा ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और अपने मनकी वात कही | धनावह सर्शक दृष्ठि से राजा की ओर देखने लगा। यह देख राजा मुस्कराया और वोला।--“ तुम ऐसे भाव क्यों दिखा रहे हो मानों तुम्हें कोई मधुर स्वप्न आया है । मैं सचमुच ही सुरसुन्दरी के साथ अमरकुमार का विवाह करना चाहता हूँ। लङका का गुणी है, विद्वान है और सुरसुन्द्री का सहपाठी एवं वाहूपन का मित्र है।
वह सर्वथा हमारी l लड़की की के योग्य वर है। ” धनावहके आशचर्यद्शक भाव मिट गये थे। उसने हाथ जोड़कर कहा।--“अभी मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। लक्ष्मी को अपने घर में आते देखकर कान मुर्ख ना कहेगा, सरस्व॒ती को अपनी पुत्रवधूके रूपमें पाकर किसका हृदय नाच उठेगा | मुझे स्वीकार है। 'शुमस्य शीघ्र को कहावत को चौरितार्य करनेके लिए हमें शीघ्र ही व्याह का दिन निश्चित कर लेना चाहिए | ” घूमधामके साथ विवाह कार्य सम्पन्न हुआ। सब रीतियों पूर्ण हुईं। माताने आशू बहाते हुए और पिताने रुद्ध हृदय-के साथ अपनी कल्पवेल के समान प्रेम से पाली हुई कन्या को दूसरे, स्वभाव से अपरिचित, व्यक्ति के हाथ में सौंप दिया।
प्रभात का समय था। सूर्य अभी उदय नहीं हुआ था। स्वच्छ आकाश मण्डल में स्थिर तारे वगीचे में खिले हुए दुपहर के विकसित किन्तु धूपके कारण मुरझाए हुए पुष्प भाँति मलिन हो रहे थे। पक्षियो ने मधुर एवं कोमल स्वर प्रमातियों गाना प्रांरभ कर दिया था। सुरसुन्दरी और अमर कुमार अपनी छतपर वैंठे हुए आलस्य मिट रहें थे ओर समुद्र की ओर एक टक देख रहे थे। देखते ही देखते उन्हें समुद्र की सतहपर श्वेत हंसो की भांति अपने पंछी रुपी नौका के द्वारा उड़कर आता हुआ नोका- समूह दिखाई दिया। वे एक टक उसकी ओर देखते ही रहे । थोद़ी देर में तो वह अन्यान्य ऊँची हवेलियोंकी आइमें हो गयो। जहाज वन्दरगाह में पहुँचे। तोपों की-जहाजोंके सुरक्षित पहुँचनेकी-सूचनाव्यंजक ध्वनि हुई ।
ये जहाज सुरसुन्दरी के ससुर धनावहके थे। विदेशोंसे कमाई करके आज ही लौटकर आये थे। आज अमरकुमारका सारा दिन जहाजो का माल उतरवाने, उनकी जाँच करने और व्यवस्थित रूपसे रखानेके काम में बीता । यह कार्य वह आगे भी करता था, परन्तु आज न जाने क्यों उसके दिल- में एक नवीन ही भावनाका उदय हुआ | वह भावना स्पस्ट होकर यही कह रही थी,-अमरतुकुमार स्वय॑ कुछ कमाई न करके कमाई पर ही जीवन विताना कायरता है। उठ तू भी अपनी देख रेखमें जहाजोंका लंगर उठा और विदेशों- में जाकर कुछ कमाई कर ।
संध्याकें समय अमरकुमारने अपने पितासे जहाज लेकर विदेश जानेकी वात कही । धनावहकों दुःख भी हुआ और सुख भी | दुःख इसलिए कि, इकलोती सन्तान उससे विछुड़ना चाहती है। सुख इसलिए कि उसका सुपूंत अपने बाप दादों- के धम्धेमें कदम रखना चाहता है और पहलेकी कमाइ- में अभिवृद्धि करना चाहता है | वहुत हों, ना के वाद पिता ने अमरकुमार कों आज्ञा दी। वर्षाऋतु बीत चुकी थी। सर्दीका मौसम प्रारम्भ हो गया था । अमरकुमार विदेश जानेवाला है इसलिए जलयात्राकी तैयारियों होने लगी। अमरकुमारने कहा- प्रिये ! मैं विदेश में व्यापार के लिए जाऊगा। तुम आनन्दके साथ धर्म ध्यान में अपना समय विताना और मुझ्ने अपने आनन्द के समाचार देती रहना । मैं भी तुम्दारे पास जल्दी २ समाचार भेजा करूँगा | ” सुरसुन्दरी ने कातर दृष्ठि से अपने पति की देखा- थोड़ी देर देखती रही। उसकी ऑँखो में आँसू थे ।उसने भरोई हुईं आवाज में कहा-“मे अकेली कैसे रहूँगी” अमरकुमार ने थोड़ा मुस्कुरा दिया, वाणी से कोई उत्तर नहीं दिया; परन्तु उस मुस्कुराहट द्वारा उसने बता दिया कि सुरसुन्दरी को अकेले ही रहना पड़ेगा |
सुरसुन्दरी हृदयको कड़ा करके वोली “प्राणनाथ | आपके बिना में दिन न निकाल सकूंगी। मेरे हास्य विलास आनन्द उलास सभी आपके पीछे चले जायेंगे। स्वत्र उदासी छा जायगी, अन्धकार हो जायगा | यदि कभी धर्मशरणसे, धर्मे- ज्ञानमें रत रह से, तत्त्वज्ञान विवेचन से मन उलसित होगा, हँसी की मधुर रेखाएँ फूट उठेंगी तो लोग मेरे सिर कलंक लगायेंगे। शास्त्रो मे भी कहा है कि, शय्या, आसन, भोजन, द्रव्य, राज्य, रमणी और घर इन सात पदार्थो को कभी सुने नहीं छोड़ना चाहिए । यदि ये सुने रहते हैं तो इन- पर दूसरा अधिकार कर लेता है। अतः नाथ ! मैं तो आपके साथ ही चलूगी। ! , अमरकुमा र कुछ देर तक सोचता रहा पश्चात प्रेमपूषेक उसने मौन भाषा में सुरसुन्द्री को साथ चलनेकी अनुमति दे दी । सुरसुन्दरी का सन्देह इस मौन भाषासे न टूटा। उसके कानोने स्वीकारता के शब्द सुनना चाह्। इसलिए उसने अमरमकुमारके मुखकी ओर सन्दिग्ध हृष्टिसे देखते हुए पूछा।- तो मुझे साथ ले चलोंगे न ” अमरकुमारने हँसते हुए कहा हाँ । ! : जहाज बन्दर गाह तेयार खड़े अमरकुमारकी प्रतीक्षा कर रहे थे | सुरसुन्दरी अपने माता पितासे मिली उनकी आज्ञा लेकर जब वह वापिस रवाना हुईं ।