पिछली रात के सन्नाटे मे किसी ने आकर उस कमरे के किवाड़, जिसमें सुरसुन्दरी आकाश पाताल की बातें सोच रही थी, धीरे से खटखटया |
सुरसुन्दरी ने दरवाजा खोल दिया | नवयुवती अन्दर आईं। उसके हाथ एक रस्सा था। वह वोली देखो, तुम अपनी रक्षा चाहती हो तो इसके सहारे उत्तर जाओ। सामने के दरवाजे होकर जाना कठिन है। गलीके नाके पर तुम्हें एक रथ खड़ा मिलेगा | तुम उसमें बैठ जाना ।
रथवान तुम्हें सुरक्षित स्थान में पंहुचा देगा।” सुरसुन्दरी रस्से के सहारे उतर कर चली गई । नवयुवती- ने एक शान्तिका स्वास लिया सुरसुन्दरी जाकर रथ में बेठ गई | रथ चढा। सये निकलने तक वह वहुत दर ज॑गलमें पहुँच गया | रथ थमा।
सारथीने कहा।--“ नीचे उतर आओ। ” सुरसुन्दरीने रथसे निकठकर सामने एक काले कलूटे मोटे ताजे आदमीकी खड़ा देखा । वह भयभीत दृष्ठिसे उसकी ओर देखने लगी ।
सारथी इस रूपराशिकों देखकर म्रुग्ध हो गया। उसके हुदयमें वासना का सर्प फुुंकार उठा | उसने कहा।--“ढरो नहीं । में तुम्हें नहीं मारुँगा । मुझे तुम्हें मार डाछनेके लिए कहा गया है; परन्तु में तुम्हें सुखसे रक्खूँगा । रथमें बेठ जाओ | में तुम्हें अपने घर ले चढेँगा। ”
सुरसुन्दरी “ अच्छा ” कहकर रथ के पीडे की तरफ गई और उधर से समुद्र क्षी और भागी। सारथी ने उसे भागते देखा | वह उसे पकड़ने के लिए दोढ़ा | करीब था कि, वह उसे पकड़ ले इतने द्दीम उसके एक ठोकर लगी और वह गिर पड़ा | सुरसुन्दी एक चद्दानपर जा चढ़ी।
सारथी उठकर वहाँ तक पहुँचे इतनेम सुरसुन्दी नवकार मंत्रका जाप करती हुई समुद्र कूद पड़ी। मगरमच्छों से परिपूर्ण उस स्थान में सुरसुन्दरी कवर तक रहती एक मच्छ उसको निगल गया । हाय सुरसुन्दरी ! मगर सुरसुन्दरीका जीवन तो अभी शेप है | उसे तो सात कोड़ी के सहारे राज्य लेना है ।
ज़िस मच्छने सुरसुन्दरीकों निगला था वही मच्छ एक धीवर के जालमें कुछ ही देर वाद फस गया। धीवरने मच्छका पेट चीरा। सुरसुन्दरी मूर्च्छित दशामें अन्दरसे निकल आईं | धीवरकी स्लीने उसे सचेत किया। धीवरने इस देव-दुलम रूपकी मू्तिको ले जाकर राजाके भेट किया। राजाने उसकी आधपान्त कथा सुनकर उसे अपने अन्तपुरमें भिजवा दिया।
सुरतुन्दरीकों देख, उसके स्वगीय रुपके साथ अपने रूपकी तुलनाकर राजमहिपीको ईष्यों हो आई। उसने सोचा,-यदि यह अन्तःपुरमें रहेगी तो मेरा सोभाग्य-सुख छूट लेगी, मेरे प्राणनाथ क्रों यह अपने वें कर लेगी । अतः किसी भी तरहसे हो इसे अपने मार्ग से दर करना चाहिए।
महीने अपने मनोभाव दवाकर, सुरसुन्दरी को अपने पास विद्या, उसकी पीठपर हाथ फेर और पूछा:-बहिन !
तुम कौन हो ? कहाँ की रहनेवाली हो ! यहाँ कैसे आई हो आकार प्रकार से तो तुम उच्च कुछ की मालूम होती है | !
ऐसे प्रेम -परिपूर्ण शब्द कई दिनों से उसे सुनने कों नहीं मिले थे। उसका हृदय भर आया। उसकी ऑखों से अभीधारा
वह चढ़ी | कोमल द्वी-हृदया महिषी कों भी दया आ गई। अहा !
कैसा अच्छा चहरा है। उसने सुरसुन्द्रीके आँसू पोछे और कहा-बहिन ! तुम सब बातें कहो। मैं यथासंभव तुम्हारी
सहायता करूँगी। ! सुरसुन्दरीने अपनी सारी वाक्या शुरूसे आखिर तक कह सुनाई | उसे सुनकर राज महिल कों दुःख हुआ । उसने कहा;- बहन ! यही भी तेरे शील को लूटने का प्रयत्न हुए बिना नहीं रहेगा । अतः यदि तुम अपनी भलाई चाहती हो
तो यहा से जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी, चली जाओ। मैं तुम्हें किसी न किसी तरह अन्त/पुरसे निकाल ढूँगी।”
सुरसुन्दरीने वहाँ से निकलकर भागी । भयानक बनें भागी जा रही है । रस्ता छोड़ दिया है क्योंकि रास्ते से जाने से वापिस पकड़े जाने का भय है।