सुरसंंदरी जागी, उठी, अंखें मढीं, आसू पोछा और इधर उधर देखने लगी | कोई दिखाई नहीं दिया। बेठी थी खड़ी हो गई और वक्षों में यहाँ वहाँ खोजने लगी; मगर अमरकुमार कई नहीं दीखा। वह घबरा भयसे हृदय धढ़कने लगा,मुद्दावनी हृक्षराशी, सुगंधित लताएँ ओर हरी हरी दूब उसे भयानक दिखाई देने लगीं | वह समुद्रकी ओर तेजीके साथ चली-भागी | मगर किनारेपर जहाज कहों थे ? दर अति दर जहाजोंका बेड़ा उसे जाता हुआ दिखाई दिया। वह एक टक उसकी ओर ताकती रही । वेड़ा धीरे धीरे अछूय हो गया |
सुरसुंदरीके हृदयपर मानों वज्र गिरा। वह एक हाय करके भूमि पर जा पड़ी । हाय | जिसके सिर ठनकनेसे सारी चंपा- पुरी व्याकुल हो उठती थी, वही राजसुता सुरसुंदरी आज मूच्छित पढ़ी है और उसकी शुभ्रूपा करनेवाला कोई भी नहीं है। यही कमंकी गति है | इसी लिए महापुरुषोंने संसार को आधार बताया है ।
कोई सहायक नहीं होता वहें प्रकृति मददगार वनती है। मंद पवन ने वह कर सुरसुंदरी को जगाया। मगर यह जाशृति उसके लिए भयंकर थी। वह नाथ! नाथ! पुकारकर रोने लगी । मगर कोन इस पुकारका उत्तर देता? कौन उसके आँसू पोछे ! वहाँ मनुष्य तो क्या पशु पक्षी न थे । ये मात्र लताएँ। वे क्या उत्तर देते ! ते भी उन्होंने अपनी मौन भापार्म सुरसुंदरीको आश्वासन दिया, धीरज चेंधाया, अपने आश्रयमें रखनेकी उत्सुकता वताई और पुरुषोंकी तरह कृतध्न नहीं वननेका आभिवचन्न दिया |
छरसुंदरीने ऑचलसे ऑ पोंछे | परछा छोड़ते समय उसको गाँठ नजर आई। उसने खोली। सात कौड़ियों निकलीं । काढ़ियोंके नीचे परलेपर लिखा था,--“ सात कौंडीमें राज्य लेकर रानी बनी ।”
इस वाक्य का एक एक अक्षर और इन कोड़ियोंका एक एक स्वरूप उसके हृदय तपे हुए छोहेकी सझाखकी तरह चुभने और उसे जलाने लगा। उसकी ऑँखोंका पानी सूख गया, उसका सोया हुआ क्षत्रियल जाग उठा | उसने घृणासे 'उन अक्षरोंकी ओर देखा आर कहा,--“यही मेरे प्रेम और आत्मत्याग का बदला |
आखिर तोताचश्म वनिये की जात ही है न! छि;! माता ने मुझे कहां ढकेल दिया ! मैं जान बूझकर उस वचपन के चोरके फंदेगें कहों फैंस गई! मैंने क्यों अपने आपको इसके हाथ सौंप दिया! ? ऋधसे उसका हृदय जलने लगा | वह जल्दी २ समुद्रके किनारे टहलने लगी । मैं थक चुका था । ठंडी हवा चल रही थी । वृक्ष झूमते हुए साय सॉय करके सुरसुंदरी को कुछ सुना रहे थे। मगर क्रोधाभिमृत सुरसुंदरीने एक शब्द भी न सुना ।
वह एक वृक्षके सहारे वेठ गई। धीरे घीरे उसका क्रोध घटने लगा। उसका मन प्रकृतिस्थ हुआ । शने। शने उसके
सामने उसका नारी रूप आ खड़ा हुआ | उसका विवेक जान जागृत हुआ । वह वोली,--““ छि;! सुरसुंदरी ! नारी होकर तेरे ये भाव! पुरुषका धर्म कठोरता है तो नारीका धर्म कमनीयता और कोमलता है।
पुरुषका का कार्य निदेयता है तो स्त्री का धर्म दया है। पुरुषका धर्म लूटना है तो स्त्री धर्म सवेस्र दान है। इन विरोधी गूणों के विना नारीका वास्तविक रूप केसे प्रकट हो सकता है ? जो पति स्नेह और आदर करता है उससे तो भक्ति और प्रेम सभी स्त्रियों करती हैं । यह तो एक साधारण वात है | स्त्री का वास्तविक रूप तो उसी समय प्रकट होता है जब स्त्री अपने निदेय-पतिकी मार खाकर भी उन पेरोंकी पूजा करती है, जो उसके पीठपर छाती पर या अन्यज्ञ निर्दयता पूवेक गिरते हैं। इसीसे उसका वास्तविक नारी रूप--पत्नी- रूप--देवी रूप--जगज्जनरक्षिणी रूप--प्रकट होता है। में भी नारी हँ--वास्तविक अर्थ में नारी रहेँगी।!
गालपर हाथ देकर थोड़ी देर सोचती रही। उसका क्षत्रिय मात्र फिर जाग उठा,--मैं क्षत्रिय सन्तान हूँ। इस प्रतारणा- का बदला ढेंगी; जरूर छूँगी। मगर उनकी तरह विपत्तिमें डाल कर नहीं,--उनको विपत्तिसे वचाकर। माना कि स्लरीका थम क्षमा है, आत्मदान है; परन्तु स्री जातिको तुच्छ समझ- कर पुरुष उनके साथ जो क्षुद्ध व्यवहार करते हैं वह तो स्वेथा
घटने छगा। उसका मन प्रकृतिस्थ हुआ । शने। शने/ उसके सामने उसका नारी रूप आ खड़ा हुआ | उसका विवेक जान
जागृत हुआ । वह वोली,--““ छि;! सुरसुंदरी ! नारी होकर तेरे ये भाव! पुरुषका धर्म कठोरता है तो नारीका धर्म कमनीयता और कोमछता है। पुरुषका काये निदेयता है तो स्लीका धर्म दया है। पुरुषका धम लूटना है तो स्लीका धर्म सवेस्र दान है। इन विरोधी शुणोंके विना नारीका वास्तविक रूप केसे प्रकट हो सकता है ?
जो पति स्नेह और आदर करता है उससे तो भक्ति और प्रेम सभी स्त्रियों करती हैं । यह तो एक साधारण वात है | स्लीका वास्तविक रूप तो उसी समय प्रकट होता है जब र्ली अपने निदेय-पतिकी मार खाकर भी उन पेरोंकी पूजा करती है, जो उसके पीठपर छातीपर या अन्यज्ञ निर्दयता पूवेक गिरते हैं। इसीसे उसका वास्तविक नारी रूप--पत्नी- रूप--देवी रूप--जगज्जनरक्षिणी रूप--प्रकट होता है। में भी नारी हँ--वास्तविक अथमे नारी रहेँगी।!
गालपर हाथ देकर थोड़ी देर सोचती रही। उसका क्षत्रिय भात्र फिर जाग उठा,--मैं क्षत्रिय सन्तान हूँ। इस प्रतारणा- का बदला ढेंगी; जरूर छूँगी। मगर उनकी तरह विपत्तिमें डाल कर नहीं,--उनको विपत्तिसे वचाकर। माना कि स्लरीका थम क्षमा है, आत्मदान है; परन्तु स्री जातिको तुच्छ समझ- कर पुरुष उनके साथ जो क्षुद्ध व्यवहार करते हैं वह तो सर्वथा
असह्य है; ख्त्रियोंके सहुणोंका दुरुपयोग है.... ....। हो तो सात कोड़ियोंसे राज लेकर रानी वनना होगा और अपना नारी
सेज दिखाकर उन्हें सन्माग पर छाना होगा । सध्या हो गई। सूर्य छिप गया । धीरे घीरे अंधकार बढ़ने लगा | अंधकारके साथ ही साथ सुरसुन्दरीके हृदयमें भी भय बढ़ने छूगा | उसने सीखा था कि, परमेष्टी मंत्र सारे दु!खोंको दूर करनेवाला है, इसलिए उसने एक मनसे इसी मंत्रका जाप प्रारंभ किया | उसका भय जाता रहा; वह मंत्र जापमें तरलीन हो गई।
अचानक दर से किसी पत्थरके फटनेकी आवाज आई। सुरसुन्दरीने आँखें खोलीं। सामनेकी एक पहाड़ी फटी हुई और 'एक भयंकर भूर्ति उसमेंसे निकलती हुई दिखाई दी | उसका हृदय फिर भयसे कॉप उठा | थोड़ी देर तक एकटक उस मूर्ति्की तरफ देखती रही । वह भर्यकर मूर्ति जब उसे अपनी ओर आते हुए दिखाई दी तव उसने अपना रक्षाकबच नवकार मंत्र फिरसे जपना प्रारम्भ किया; एक चित्त होकर जपने लगी ।
राक्षस धीरे धीरे सुरसुन्दरी के पास आया | उसके पास आकर थी उसे भक्षण करनेकी प्रहत्ति न हुईं | महान् निर्देय जीवके हृदयमें भी नवकार मंत्रके प्रभावसे दयाका स्रोत फूट निकला। उसने अपना स्वर जितना हो सकता था उतना कोमल
करके कहा;--“ बेटी ! तू कोन है? यहाँ क्यों आई है ! केसे आई है! ” बेटी सम्बोधन और कोमल सर में न जाने क्या जादू हैं
कि वह तत्काल ही सनने वाली कों अपने क्यों कर लेता है |
सुरसुन्दरीने अर्थ से इति तक अपनी सारी कथा कह सुनाई। सुनकर उसने कह-- कोई चिन्ता नहीं वेशे ! आनन्दसे यहीं रहो और समय विताओं | ” सुरसुन्द्री वही रहने ढगी |
फल फूल खाती श्रणों क्रे मधुर जल का पान करती और अहर्निश नवकार मंत्र कारण और पतिके कत्याणकी भावनामें निमम्न रहती । कई महीने वीत गये एक दिन किसी साहकारके जहाज इस टापूर्मे आकार पानी लेनेके लिए ठहरे | जहाजोंके स्वामी सेठने सुरसुन्दरीको देखा, उसे उस स्थानकी अधिप्ठात्री देवी समझा, प्रणाम किया और तव हाथ जोड़कर वह सामने खड़ा हुआ।
सुरसुन्द्रीनेआति कोमल केठमें कहा;--“ पिता ! मैं मानवी हूँ देवी नहीं। ” सेठ बड़ा अप्रतिभ हुआ ; थोड़ी देर चुप खड़ा रह्य | फिर बोलाः- मानवी होकर तुम यहाँ कैसे आई और कैसे की- वित हो ? ” सुरसुन्दरीने अपनी सारी कथा कह सुनाई। सुनकर सेठ- को दुःख, आइचयय और लोभ तीनों हुए। वह थोड़ी देर छूल- चाई ऑखोंसे सुरसुन्दरी की ओर और ताकता रहा,