उसने सात कौड़ियों के चने खरीदे । उन्हें लेकर वह शहर के बाहर जा वेठी | पहले दिन उसको तीन कोड़ियों का नफा रहा । दूसरे दिन भी इसी तरह चने लेकर गई। पाँच कौड़ियों- का नफा हुआ !
धीरे धीरे उसका व्यापार बढ़ा | अब उसने एक पानी का घढ़ा भी रखना शुरू कर दिया। गरमी की ऋतु थी। रुकड॒द्रे लकड़ियों का गद्दा लेकर जब आते थे तव शहरसे दो माइल दर एक जगह वे विश्राम लेनेके लिये गड्ढे उतारते थे | वहीं विमल वाहन ( सुरसुन्दरीने अपना नाम विमलू वाहन रक्खा था) बैठता था।
लकङी के खरीदारों कों वह पानी पिलाता और बदले" में उसके पास एक लकङी का टुकढ़ा निकालकर डाल देते | इस तरह शाम तक उसके पास पॉच सात गद्ठों जितनी ढुकदियों जमा हो जातीं। अब उसने लकड़ी का व्यापार भी शुरू कर दिया। वहीं कम कीमत में लकडी के गठहे खरीद लेता और गणियों में भर कर वहाँसे शहरमें अपनी दुकानपर भेज देता । उससे खूब नफा होने लगा | थोढ़े ही दिनोंमे वह एक अच्छा धनिक व्यापारी समझा जाने लगा ।
वह रहते हुए उसको कई वरस हो गये । एक वार कहीं- से एक चोर आया और विद्यावल द्वारा चोरियों करने लगा। सारे शहर में हा हा कार मच गया, पुलिस सिर मारकर रह गई मगर उसे कोई ने पकढ़ सका | इससे उसका इतना होसला बढ गया कि वह एक दिन राजकन्या को भी उठाले गया । राजाने दिंढोरा पिटवाया कि, जो कोई चोरकों पकड़ कर लायगा ओर राजसुताकों उसे राजसुता सहित आधा राज्य ढुँगा। कई लोगोंने चोरकों पकड़नेका प्रयत्न किया, परन्तु कोई भी छृतकाय्य नहीं हुआ |
अन्तमें विमलवाहनने वीड़ा उठाया रातमें वेठकर परविद्याहरिणी, शत-हस्ती-बलदायिनी आर अदहृश्यकारिणी विद्याका स्मरण किया | विद्याएँ सधी हुई थीं ही | उनका आश्रय लेकर वह चोरकों पकड़ने चला | पिमलवाइन चोरके गुप्त स्थानमें, अद्श्यकारिणी विद्या द्वारा अदृश्य होकर पहुँचा । वहां उसने चोरकों कद किया ओर राजसुताको तथा चोरको राजाके सामने उपस्थित किया। शाजाने घोषणाके अनुसार विमलवाहनके साथ राजसुताका व्याह कर दिया ओर अपना आधा राज्य भी सौंप दिया। विमलवाहन ने आधा राज्य लेकर सबसे पहले वंदरगाह- का प्रबंध किया |
उसने आज्ञा दे दी कि, किसी भी जहाज- के स्वामीकों हमारे सामने उपस्थित किये बिना शहरमें न आने दिया जाय और कर वसूल करनेमें शिथिलता न हो । काय इसी तरह चलता रहा | एक दिन अनेक स्थानोंकी मुसाफिरी करके अमरकुमारके जहाज वेनाटके किनारे आ छगे। मालका कर चुकाकर जब वह शहरमें जानेकों तैयार ढुआ तब आदमियोन उसे रोका ओर कहा;--/ पहले तुम्हें हमारे राजाके पास चलना होगा । ”
जुटे राजाके पास तो जाना ही है।” कहकर अमरकुमारने चलनेको कदम उठाया | सिपाहीने रोककर कहा/-- हमारे नवीन महाराणकी यही आता हैँ कि शहरमें जानेके पहले जहाजका स्वामी उनके सामने पेश किया जाय | ”विवश उसे सिपाहीके साथ विमल्वाइनके पांस जाना पढ़ा | विमलवाहनने उसे देखा |
एक दम चॉक पढ़ा। उसके हृदयमें अजब उथल पृथल प्रारंभ हुई | हाय | यही बह मुख है! कैसा मख गया है! गाल पिचक गये हैं; आँखें गढ़ेमें धंस गई हैं। होगेपर मधुर हास्य नहीं है; ऑखोंमें चमक नहीं है; ललाट तेजद्वीन हो गया है | हाय | यही क्या मेरे स्वामीका मुख है! हृदय धीरण रख |
अमरकुमार के अन्त/करण में भी एक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ यह घणी मुख ते, नेत्र भी वे ही हैं; नासिका भी वही है, अपरों की मंद मुस्कान भी वही है। मगर ! मगर ! यह तो पुरुष है | हाय मेरी यह क्या दशा हो गई मुझे सव जगह वही वह क्यों दिखाई देती है! वह मुख तो भुलाए नहीं भूछता। नहीं ! ओह ! कितनी यातना है! मेरे ही कारण,-होँ हों मेरे ही कारण वह झख सदाके लिए राक्षसके पेटमे विलीन हो गया। उह ! भगवान कैसे इस भयानक पापसे मेरा उद्धार होगा: उसकी ऑखोंसे दो चार अखिकी ईढ़ ट्पक पढ़ीं। विमलवाहन ने भी उन्हें देखा | उसका अन्तकरण शाप्र ही यह निश्रय करनेके लिये व्याकुल हो रहा था कि, यह अमर- कुमार ही है या कोई और !
विमलवाहन की आज्ञासे वहां एकान्त हो गया । अमरकुमारसे विमलवाहनने वैठनेका इशारा किया । वह बैठ गया । विमल वाहन ने पृुछा।-- आप कहंकि रहनेवाल़े है ?! आपका मुख ऐसा मलिन क्यों हो रहा है ! ”
अपरकुपारके हृदयमें यह प्रश्न तीरसा चुभा । क्या उत्तर देता कि इस दशाका क्या कारण है ! जो उसके जागतेका दशन और निद्राका स्वप्न हो रही थी; जिसके विना उसका सारा जीवन, सारा हृदय भयानक स्मशानवत हो रहा था, अन्त/करणमें भीम स्वरसे हाहाकार उठ रहा था उसीको,-हाय | उसी को,-मैं राक्षतके आहारके लिए छोड़ आया हूँ,-यही दु/ख है, इसी दु/खसे मेरी यह दशा हो गई है।
विमलवाहनके मनकी दशा भी ठीक न थी, तो भी उसने जव देरती उसको रोक रकखा था। उसने फिर पूछा;--सेठ ! बताओ ! तुम्हारी इस दशाका कारण क्या है? यदि हो सका तो मैं तुम्हारे उस कारण को हटाऊँँगा, तुम्हारी सहायता करेंगा !” रकुमार भरी हुई आवाज में बोला ;--असंभव ! महाराज | असंभव ! मेरे दुःखका कारण मिटना असंभव है। जिसको मैंने मूखेतावश राक्षसके उद्रस्थ होनेके लिए छोड़ दिया; वही मेरी छाडली सुरसृंदरी ! वही मेरी जीवनकी ज्योति | रिपुमदेन रपसुता ! वही मेरी आत्माका नूर, सेठ धना वह की प्यारी वधू ! हाय ! अब कहों है ! नहीं, चढी गई ! वह इमेशा फे लिए मुझे छोड़कर चली गई | नहीं महाराज असै- यह है | सर्वदा असंभव .......!
विमलवाइन अमर कुमार की दशा देख उसकी बातें सुन उसे पहचान दूसरे कमरे में चला गया था। नहीं सर्वथा संभव है | ” कहती हुई सुरसंंदरी आकर अमरकुमार से लिपट गई | आह | कहा स्त्री सुख है। बारह वर्ष के वाद आज बिछने हुए हृदय पुनः मिले हैं। दोनों एक दूसरे से चिमटकर बहुत देर तक रोते रहे । अन्तर्मे अमरकुमार ने उसके आँसू पोछ कर कहाँ -“ प्रिये | अपराध मेरा अक्षम्य है तो भी मुझे क्षमा करो | ! सुरसुन्दरी ने रोते रोते कहा।--“ नाथ | फिर कभी ऐसी परीक्षा में मत ढालना | आपकी आज्ञानुसार सात कोड़ियों द्वारा प्राप्त किया हुआ यह राज्य आपके अर्पण हैं। ” प्रिये | !!