“ छिः ! सुरसुंदरी ! नारी होकर तेरे भाव ! पुरुषका धर्म कठोरता है तो नारी का धर्म कमनीयता और कोमलता है । पुरुषका कार्य निर्दयता है तो ख्रीका धर्म दया है । | पुरुषका धर्म छूटना है तो ख्लीका धर्म सर्वे न है। इन विरोधी गु्णोंके विना नारीक वास्तविक रूप केसे प्रक: हो सकता है? जो पति स्नेह और आदर करता है उससे तो भक्ति ओर प्रेम सभी ख्रियों करती हैं । ( यह तो एक साधारण बात है । ख्रीका | वास्तविक रूप तो उसी समय प्रकद होता! [ है जब स्त्री अपने निदेय पतिकी मार खाकर ! उन पैरोंकी पूजा करती है, जो उसके पीठपर छातीपर या अन्यत्र निर्दयता पू्षेक गिरते हैं । इसीसे उसका वास्तविक नारी! । रूप-पत्नीरूप-देवीरूप-जगजनरक्षिणी रूप-! प्रकट होता है। में भी नारी हूँ-वास्तविक - अथर्मे नारी रहूँगी।”
गरमी की मौसम दुपहर का समय था | सन सन कर खा चछ रद्दी थी विद्यार्थियों को ठुद्दी मिल्ली थी। कई खेलने कूदमें म मस्त थे और कई मीठी नींद छे रहे थे। एक दस वरसकी सुंदर वालिका फूल चुनती हुईं पैठ गई। बैठी ही बेटी नींद लेने लगी । स्कूल एक लड़का सबसे वड़ी आयुक्रा था | पढ़ने लिखने मे भी होसियार था | भी एक धनिक घरका। इस लिए गुरुती ने उसको सबका प्रुखिया वना रकखा था। इसकी आयु बारह वरस से ज्यादा नहीं थी |
सबने कुछ सलाह की । वात स्थिर हुईं । तदलुसार उन कोड़ियोंका मिष्ठान्न आया | चने या बेर वरावर, जितना भी हिस्सेमे आया, सबने प्रसन्न होकर खाया | वालिकाका हिस्सा भी एक तरफ रख दिया गया। वालिका जागी। उस मुखिया लड़केने दो ढ़ुकर उसका भाग उसके सामने रख दिया और कहा--“ सुरसुन्द्री, तुम्हरे लिए तुम्हारे भागकी मिठाई अछग रख छोड़ी थी। लो खाओ और पढ़ना शुरू करो | ”सुरसुंदरीने आँखें मलते मलत पूछा आज मिठाई किस- ने वॉटी है ! ” उसने हँसते हुए उत्तर दिया। तुम्हीने | ! सुरसुन्दरी कोष करके वोढी जाओ, झूठे कहीं के । सच कहो अमर कुमार ! आज मिठाई किसने मेंगवाई ! ! अमरकुमारने उसी तरह हँसते हुए कह सच कहता हूँ, यह तुम्हारी ही कृपा का फल है। ”सभी विद्यार्थी हँस पड़े | सुरसुन्द्री को उनका व्यवहार अच्छा न लगा। सुरसुन्दरी अपना स्वर पहले से जरा तीत्र करके वेली। ये क्या खिल २ लगा रक्खी है ! जाओ, मैं न खाऊँगी । ! अमरकुमार जवदंस्ती हँसी रोककर वोछा।--“ आप नाराज क्यों होती हैं! आपकी साड़ीके परले जो सात कौड़ियों वंधी थीं, उन्हीं की, पल्ले से खोलकर, हमने मिठाई मगवाई है|”
सुरसुन्दरी के द्लिमें इस वातका वड़ा दुःख हुआ कि, उन लोगोने उसकी असाबधानी में कोड़ियाँ खोलकर, उसको पूछे विना, उनकी मिठाई मैँगवा ली | उसका मिजाज बहुत गरम हो गया | उसने कहा;--चोर कहीं का | वढ़ा धन्ना सेठ आया है ! दूसरेके पेसॉ पर ताकढभिन्ना। किस गुरुने इस तरह चोरी करना सिखाया ! किसने ओरों की जेबें काटकर मिठाई चॉटना बताया ! किसने ऐसी उदारताका पाठ पढ़ाया! तेरी अकल कहों मारी गई थी? सबका मुखिया वना है ! क्या ऐसे गिरहकटी ही के लिए माँ बाप तेरी इस वातको सुनेंगे तो कहेंगे,- अच्छा कपूत जन्मा |
गुरुजी सुनेंगे तो कहेंगे- सब परिश्रम पानी मे गया सुरसुन्द्रीकी बातें सुनकर अमरकुमारकी भाहें भी चढ़ गई । वह बोला।--“ बढ़ी राजा जी की लड़की हुई है । सात कफोडियों क्या चीज हैं ! इन्ही के लिए ऐसी घबरा रही है पानों छाखोंकी दौरूत छुट गई है। ” सुरसुन्दरी कड़ककर वोछी--“ये लाखोंसे भी ज्यादा थीं, उनसे तो में राजाका राज खेती।” अप्ररकुमार कुछ उत्तर देना चाहता था; परन्तु इतनेदीमें गुरुजी आगये। अमरकुपारको विवश अपनी जीभ रोकनी पढ़ी। सुरसुन्दरीको जवर्दस्ती अपने मुँह पर लगाम लगानी पड़ी | थोड़ी देर सुरसुन्दरी सारी बातें भूल गई) परन्तु उपर- कुमार के हृदयसे स॒रसुन्दरीके शब्द नहीं है कौटी में रान लेती | उसने स्थिर किया कि, अवकाश मिलते ही मै अपने अपपान का बदला लूगा |