द्वीप गोलाकार है । इसका घेर तीन ढाख योजनका हैं। इसीमें चम्पा नामकी एक सुन्दर, रम्ये, धनपान्यपृणे नगरी थी । इसके अन्दर रहने वाले सभी सुखी थे, उस नगरीके राजाका नाम रिपुयंदेन था। बह अपने देशवासियां- का हितैषी था। सारी प्रजा उससे प्रेम करती थी ।
न्यायी ऐसा था कि धनी निधन, अधिकारी अधिकृत सभी को एक दृस्टि से देखता था। अपनी भुजाओंके जोरसे उसने अपना राज्य बहुत बना लिया था। वह जैसा वीर था बैसा साहस वान भी था। शक्तानां भूषण क्षमा ! ई क्षमा वलवानोंका भूषण है।! इस कहावतकों वह बरावर चरिताथ करता था।
शत्रु जब शरण में आजाता तब उसके लाख अपराध भी वह क्षमा कर देता था | इसके इन्द्राणी के समान सुन्दर रतिसुन्दी नामकी रानी थी। जेसी वह रूपवतती थी वेसी ही वह गणवती भी थी । धर्म में उसकी पूण श्रद्धा थी । चम्पापुरीके रिपुमईन हृदयका वह प्रकाश थी | इसके एक वालिका थी उसका नाम सुरसुन्दरी था|
इसी नगरमें एक साहुकर रहता था निसका नाम धना- सुरसुदरी “बह था । वह पृण जीवनके सुखोपभोगोंकों भोगता था; परन्तु साथ ही संयमी भी था। जेसी सुख भोगनेमें उसकी राति थी वैसी ही धर्म -ध्यानमें उसकी मति थी । धर्म - ध्यानमे, समयपर लग जानेके कारण वह सबका शिरोमाणि समझा जाता था।
वह अपने स्वजन -सम्बन्धियोंका हितेषी था, दुखियों का आराम था, असहायोंका सहारा या ओर गरीबोंके लिये दाता कर्ण था था उसके द्वारपर आशा लेकर आया हुआ कोई निराश होकर नहीं गया। उसके धनवतती नामकी स्त्री थी। उसे देखकर देवांगनाओं- का ध्यान आ जाता था | कइयोंकों तो यह भ्रम हो! जाता था कि, यह कोई देवांगना ही तेस्लीका रूप धारण करके नहीं आई है। उसके एक पुत्र था।
उसका नांम था अमरकुमार | सुन्दर मुख, गोर वण, चंचल नेत्र आयु लगभग बारह परस । प्रथम प्रकरणमें जिनका कयोपकथन दिया गया है वे ये ही ठप और श्रेष्ठीके वालिका वालक सुरसुन्दरी और अमरकुमार हैं।
दोनोने गुरुजीके पाससे पूर्ण विद्या प्राप्त की । उत्होंने जीव, कर्म , तत्व, पदाये, नय आदिका भी पूर्ण रूपसे : अध्ययन किया ।है एक दिन सुरसुन्द्री अपनी माता के साथ पोषधशालामे, सुरखुदरी साध्वीजीके दशनाथे गई ।
साध्वीनीने सुरसुन्दरीको पढ़ी लिखी समझकर और धार्मिक ज्ञान अच्छा है यह जानकर उससे पूछा।--“ सम्यक् क्या है ” सुरसुन्दरीने उत्तर दिया;--“जीवादि नौ पदार्थोका जिसको ज्ञान है वह सम्यक्वी है ओर भावषूवेक जो इनपर श्रद्धा करता है वह भी सम्यक है।! प्रधन--जो जानता है मगर श्रद्धा नहीं रखता वह सम्यक्त्वी है या नहीं ! उत्तर--श्रद्धा बिना ज्ञान निकम्मा है। श्रद्धा होती है तभी जीव सम्यक्त्वी होता है ।
प्रधन--सम्यक्थका और भी कोई लक्षण है ! उत्तर--है | यथाथे स्वरूपपर ज्ञानपूषेंक श्रद्धा करनेका नाम सम्यक्ल है। प्रश्न--यथाथे स्वरूप किसका उत्तर--देव, शुरू और धमका। प्रशन--तुप इनका स्वरूप जानती हो ! उत्तर--जों अठारह दोष रहित वीतराग और हितका उपदेश देनेवाले होते हैं, वे सच्चे देव होते है; जो इन्द्रिय-जयी धमंशास्रोंकी आज्ञानुसार उपदेश और आचरण करनेवाले होते हैं, वे सच्चे गुरु होते हैं और जो जीबोंको दुर्गतिसे- - बचाता है,
जो दयाका उपदेश देता है, अहिंसा जिसका प्राण: है वही सच्चा है । सुरखुंदरी पीली यम रीना फनी नर भनी पटरी ही कतीय टरीकमी कला पीली वश नी जल" गा साध्वीनी सुरसुन्दरीकी बातें सुनकर प्रसन्न हुई और रानीसे कहने लगीं।-“ रानी तुमने रत्न उत्पन्न किया है। इसको किसी सच्चे जोहरी के हाथ सॉपना | देखना किसी कब्वेकी चाँचमें यह र॒त्म न चला जाय | ! रानीने हाथ जोड़कर कहा।-- पैरा रत्न अवोछ चकाचोंध दिलानेवाला ही नहीं है। उसके मुँह में जवान है, शरीरके अंदर चेतना शक्ति है और दूसरोंको अपने अनुसार वनाने की कला है।
यदि आपकी दया होगी तो वह कोवे कों भी राज- हँस वना छेगी। चाहिए पास आपका आशीवाद | ” दोनोंकी पढ़ाई समाप्त हे गई तव गुरुजी उन्हें छेकर राजाके पास गये। राजाने भरे दवोरमें दोनोंकी परीक्षा ली । परीक्षार्मे दोनों पास हुए। दोनोंने सामेसे सो नंवर पाये | राजा वहुत प्रसन्न हुआ | उसने गुरुजीकों धन देकर सन्तुष्ठ किया ।
अमरकुमारके पिताने भी उन्हें वहुतसा धन दिया । सुरंररी अब पूृण थौवना हो गई थी। उसका अंगैशत्यंग सुगठित था। उसका छारू शरीर एवं उसके तेजपूण तीत्र कटाक्ष यौवनके साम्राज्यदी जयपताका उड़ा रहे ये । सुरसुंदरीकी माताने एक दिन रिपुमदेनसे कहा।-- लड़की अब सयानी होगई है शीघ्र ही इसका व्याह कर देना चाहिए ।
सुरसुदरी जल रिपुमदेनने उत्तर दियाः-मुझे भी इसी चिन्ताके मारे आजकछ नींद नहीं आती मगर किया क्या जाय ! इसके योग्य कोई बर नहीं दीखता । राजईसिनी और फावेका क्या ्प्रेम ? सिंहनी और वकरेका क्या साथ ? हस्तिनी और गधे- से क्या निसवृत ” दोनों थोड़ी देर चुप रहे, क्रिसीकी जवानमें शब्द नहीं था ।
रानी राजाके सुखकी ओर देख रही थी और राजा आकाशकी ओर ठऊ लगाये था। अन्तर्गे शनीने इस मौन- को तोड़ा,-- मेरे ध्यानमें एक वर आया है | ” राजाने उत्सुकताके साथ पृूछा--“ कौन ” रानीने जवाब दिया--अप्रकुपार | ” राजाने आश्रयके साथ कहा पुत्र | ” रानीने कहा;-हों | क्या बह योग्य नहीं है ! ” राजा थोड़ी देर कुछ सोचता रहा, फिर बोछा योचित वीरता उसमें कहाँसे आयगी ” अवकाश मिलने पर वीरता भी आ नाती है। और उसको लड़ने भी कहां जाना है ?
राजा रक्षक है, प्रजाको क्या चिन्ता है ! ” अगर प्रजा निश्चित हो जाय, यदि प्रजा वीरताके काम न कर सके, यदि प्रजाके पुरुष अपनी वहू वेटियोंकी इज्जत वचाने की शक्ति भी न रखते हों, प्रजा केवल प्राश्रित सुख-भोगमें हो लीन हो जाय तो समझना चाहिए कि, वह प्रजा शीत्र ही नस्ट हो जायगी, उसका राजा अपने प्राण देकर भी उसे नस्ट होनेसे वचा नहीं सकेगा |