--"वो क्या अपने पति के अंतिम दर्शन करने भी न आएगी !! तू अपनी मनमानी कर रहा है !! उसे यहाँ लेकर आ !!
लोकलाज का तो ध्यान दे !! "
पुत्र वागीष का अंतिम संस्कार संपन्न करने बाद वे सुजान बाबू के साथ वापस लौट रहे थे ।सुजान बाबू आँखों में अश्रु लिए बार बार उनकी तरफ देखते और फिर आँखें झुका लेते थे ,जैसे कुछ कहना चाह रहे हों पर कह न पा रहे हों ।
उन्होने मार्ग में ही रुककर सुजान बाबू के समक्ष हाथ जोड़कर कहा था -
-"सुजान बाबू ,एक माँ के ह्रदय की पीडा़ को आप भली-भाँति समझ सकते होंगे अतः मेरी माँ के कहे अपशब्दों को ह्रदय पर न लगाइएगा,,,, जो हुआ वो दैव की इच्छा थी ,इसमें आपका ,मेरा या किसी का भी कोई वश न था ,,, जो करता है वो ईश्वर ही करता है पर हम मूढ़ प्राणी ,उसका दोष दूसरे प्राणी पर मढ़कर अपनी पीडा़ को कम करने का प्रयास करते हैं ,, आपकी पुत्री को प्रसन्न रखने,उसका हर तरह से ध्यान रखने ,उसको बेटी मानने का जो वचन मैं आपको दे चुका हूँ उस वचन पर मैं अडिग हूँ ,,,,,मेरा विश्वास करें ,,, बाकी सुख और दुख तो एक सिक्के के दो पहलू हैं ,,, दिवस और रात्रि की भाँति हैं ,,,एक गमन करेगा तो दूसरे का आगमन निश्चित ही है !!
आपकी पुत्री अब मेरी पुत्री है ,,उसकी हर सुखसुविधा का ध्यान रखना अब इस पिता का उत्तरदायित्व है ,,, आपका मेरे साथ संगीतशाला जाकर उसके समक्ष जाना उसे द्रवित कर देगा ,,, अतः मेरी मति अनुसार आपका उससे भेंट करना अभी उचित नहीं है !!!"
सुजान बाबू को उनकी बात सही लगी थी और वे अपनी सहधर्मिणी के साथ अपने गृह प्रस्थान कर गए थे और वे संगीतशाला पहुँचे थे।संगीतशाला चूंकि कभी गुरु सस्वर सारस्वत महाराज का गृह हुआ करता था अतः
वहाँ पाकशाला,भोजन इत्यादि की सारी व्यवस्था थी ।
वे जब संगीतशाला के भीतर प्रविष्ट हुए तो देखा कि चपला ,पुत्रवधू वत्सला के लिए भोजन पका चुकी थी और उनकी ही राह देख रही थी ।"सरस्वती ,मैंने पुत्रवधू वत्सला के लिए भोजन पका दिया है ,,, उसे भोजन करा दिया जाए ,,,
बेचारी वैसे ही बैठी है जैसे तुम छोड़ कर गए थे !!" चपला ने थाल में भोजन परोसते हुए कहा था और वे भोजनथाल लेकर वत्सला के समीप जाकर बैठे थे जहाँ वो बैठी शून्य में ताक रही थी ।
उन्होने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा था --
--"मेरी बच्ची ,चल कुछ खा ले " और भोजन का निवाला उसके मुँह के समक्ष किया था पर उसे जैसे कुछ भान ही न था कि कोई मेरे समक्ष बैठा है ,,,मुझसे कुछ कह रहा है !!
"वत्सला बेटी ,, देखो मैं अब तुम्हारा पिता हूँ ,,, अपने पिता की बात का मान रखकर कुछ खा ले ,थोडा़ सा ही सही ,खा ले मुँह खोल बच्ची!!" उन्होने फिर वात्सल्य से कहा था ।
बहुत प्रयास करने पर उसने दो ,चार निवाले ही खाए थे परंतु उसे जैसे सुध-बुध ही न थी ,,,
उनकी प्राथमिकता अब पुत्रवधू वत्सला थी जिसे हर भाँति प्रसन्न रखने का वचन वो सुजान बाबू को दे दिए थे ,,उन्हें अपने वचन पर खरा उतरना था ,जिसमें चपला ने पूरा सहयोग करने का उन्हें वचन दिया था ।
वे वत्सला को चपला की देखरेख में छोड़कर संगीतशाला से गृह आ गए थे जहाँ उनकी माँ कमला देवी अपना मन उनसे अत्यंत खिन्न किए हुए थीं ,गृह में माँ का रोष था और संगीतशाला में सुध-बुध विस्मृत किए हुए पुत्री वत्सला !!
वे स्वयं को जैसे रणक्षेत्र में पाते जहाँ माँ उनसे कुपित ,आग्नेय नेत्रों से भर्त्सना के तीर लिए उनके समक्ष नज़र आतीं ,वे तो अपने तर्कों से माँ के ह्रदय पर विजय पाना चाहते थे मगर माँ पर उनके तर्कों के तीरों का असर ही न होता था ।
अभी तो एक अहम समर माँ से करना शेष था ,वो न जानते थे कि विजयश्री उन्हें मिलेगी या नहीं पर वे अपना सम्पूर्ण प्रयास करने में चूकने वाले न थे ।
वे अपने गृह आए थे जहाँ माँ अपने कक्ष का द्वार बंद किए हुए थीं ।
संगीत की साधना उनका स्पंदन थीं जिनके बिना जीवन असँभव है , संगीतशाला में वत्सला की स्थिति के कारण वे वहाँ संगीत साधना न कर पाए थे और गृह में उन्होने उस दिवस से साधना करना तज दिया था जिस दिवस उन्हें शन्नो मौसी के द्वारा माँ की संगीत के प्रति अरुचि की वजह ज्ञात हुई थी ।
अब आज तो गृह के संगीत महाकक्ष में साधना करना उनकी विवशता थी ,,,उनका उद्देश्य माँ की भावनाओं को ठेस पहुँचाना कदापि न था ।
वे संगीत महाकक्ष में गए और सितार लेकर साधना करना प्रारंभ किया --
" पधारोओओओ माँ मानस के द्वार,,,
पधाआआरो माँ मानस के द्वार,,,
सुनकर करुण पुकाआआआर
सुनकर करुण पुकाआआर,,,,
पधारोओओओ माँ मानस के द्वार"
उनकी साधना के स्वर माँ के कक्ष तक पहुँच गए थे और वे
हाथ में जपमाली के भीतर से माला जपती हुई अपने कक्ष से निकलकर उनके कक्ष के भीतर प्रविष्ट होती हुई तीव्र स्वर में,आँखों में अश्रु भरे हुए बोली थीं --"बंद कर !बंद कर!बंद कर!!
शिव!शिव!शिव!!!
हे भोलेनाथ कैसा कपूत दिया जिसे लोकलाज की तनिक भी परवाह नहीं !!
अभी कुछ घण्टे पूर्व अपने पुत्र का दाह संस्कार करके आया है और संगीत साधना करने बैठ गया !!
अपना नहीं तो समाज का तो ध्यान दे !! लोक क्या कहेंगे !!क्या सोचेंगे !! "
"समाज !! ये समाज तो हम लोगों से ही बना है न माँ !! और लोगों की परवाह करने के लिए हम श्वास लेना त्याग दें !! जीना त्याग दें !! " वे कहते ही रह गए थे और माँ तीव्र गति से पुनः अपने कक्ष में जाकर उसका द्वार भीतर से बंद कर ली थीं ।
शन्नों मौसी के स्वर आ रहे थे -"जिज्जी !!क्या हुआ जिज्जी!!द्वार खोलकर मुझे भीतर प्रविष्ट तो होने दो !!!"
उस दिवस के बाद से माँ ने उनसे कोई वार्तालाप न किया था और उन्होने उन्हें मनाने का कोई प्रयास भी न किया था क्योंकि अभी माँ के साथ मुख्य समर तो शेष था !!!
वे संगीतशाला जाते और वत्सला को ,जो जीवन से मुख मोड़ बैठी थी ,समझाते --"बेटी वत्सला , देखो जलधार होती है ना !! उसके समक्ष कोई रुकावट आती है तो क्या वो प्रवाहमान होना त्याग देती है !! नहीं ना ! कैसी भी परिस्थिति हो ,कितनी ही रुकावटें हों वो अपना रास्ता बना ही लेती है क्योंकि ........शेष अगले भाग में।