सरस्वती !!! ये क्या !! तू गुरु महाराज के विछोह जनिक शोक से उबर ही न रहा !! संगीत जो तेरे रक्त की हर बूंद में मिलकर तेरी हर श्वास में तेरे हर स्पंदन में रचा बसा है तू उसी से मुख मोड़कर शोक सागर में डूबा हुआ है !!.......
ऐसा करके तो तू गुरू महाराज की आज्ञा की अवहेलना कर रहा है !! तूने विस्मृत कर दिया क्या कि गुरू महाराज ने अपने अंतिम समय में तुझसे क्या कहा था !!
तेरे साथ मैं भी तो गया था गुरु महाराज सस्वर सारस्वत जी से अंतिम भेंट करने ,,,,,, मुझे तो वैसे ही स्मरण है ,,,,अपनी गद्दी तुम्हें सौंप रहा हूँ सरस्वती चरण ,
मेरे द्वारा प्राप्त संगीत के ज्ञान को अपने तक सीमित न कर इसको असंख्य जनों तक पहुँचाना ,शुभ आशीर्वाद ।
वे तुझे अपनी गद्दी देकर गए हैं सरस्वती !! तुझे विछोह जनित पीडा़ से उबर कर उनकी गद्दी सँभालनी है ,उनके द्वारा प्रदत्त संगीत के ज्ञान को असंख्य युवाओं,युवतियों तक पहुँचाना है ,अपने तक सीमित न रखना है ।
सरस्वती ,,,,और अब तो तू गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने योग्य भी हो गया है ,, तेरे लिए एक संस्कारी परिवार की सुशील कन्या चुनी है ,,, शीघ्र ही तेरा उनके साथ लगन कर दूँगा फिर अपने गुरू महाराज की संगीत की शिक्षा को सभी में विस्तार करते हुए तुझे अपना गृहस्थ जीवन भी प्रारंभ करना है ,,,, इतना कहकर शीश पर हाथ फेरते हुए बाबू कक्ष से प्रस्थान कर गए थे और उनका मन चिंतन करने लगा था --सत्य तो कह रहे थे बाबू ,,,, मैं अपने गुरु महाराज को ऐसे श्रृद्धांजलि दे रहा हूँ !! उनके विछोह की पीडा़ में स्वयं को कमजोर कर !! गुरु महाराज कहा करते थे कि सरस्वती शोक करना तो अज्ञानी मनुष्यों का स्वभाव होता है ,,,चाहे कैसी भी परिस्थिति हो ,हमें समभाव से रहना चाहिए और अपने कर्तव्यों से कभी भी मुख न मोड़ना चाहिए !! और मैं !!मैं क्या कर रहा हूँ !!!
अपने कर्तव्यों से मुख ही तो मोड़ बैठा हूँ !! गुरु महाराज कहा करते थे -सरस्वती ठहरे हुए जल में ही विकार उत्पन्न होते हैं ,,,, सदा प्रवाहमान रहना चाहिए ,,,
मैं भी तो ठहरा हुआ जल ही हो गया हूँ जिसमें शोक ,पीडा़ रूपी विकार उत्पन्न हो रहा है !!
नहीं ,,,,मैं ऐसे नहीं कर सकता ,,,मैं अपने कर्तव्यों से मुख न मोड़ सकता ,,,, और वे अपने अश्रु पोछकर कक्ष से बाहर की ओर निकले थे कि उनके कानों में माँ और शन्नों मौसी का घर की पाकशाला से वार्तालाप पडा़ था -- जिज्जी तुम्हारी तो नाक न कटी मुँह बन गया ।गुरु महाराज सस्वर सारस्वत जी ब्रह्मलीन हो गए और उनके शोक में उनका सरस्वती चरण दास शोकाकुल होकर संगीत से मुख मोड़ बैठा है ,,,, अब जीजा जी ने उसके लिए सुयोग्य कन्या तो चुन ही ली तो एक बार विवाह हो जाए फिर सरस्वती चरण दास अपनी गृहस्थी में ऐसा रमेगा कि संगीत को विस्मृत ही कर देगा ,फिर तुम उसे शिव चरण दास से ही पुकारना जो कि उसका वास्तविक नाम है ।
उनको ये वार्तालाप सुनकर क्षणिक आघात लगा कि चलो शन्नो मौसी तो पराई हैं पर जिनकी कोख से जन्म लिया वही माँ अपने बेटे की रुचि किसमें है ,न देख रहीं या देखना ही न चाहतीं !!
उन्होने वहीं से अपने पिता को पुकार कर कहा था --बाबू , मैं गुरुवर के गृह 'संगीतशाला' जा रहा हूँ संगीत की साधना करने ,लौटते लौटते विलम्ब हो जाएगा ,और वे तीव्र गति से गृह से प्रस्थान कर गए थे ।
जहाँ पिता उनके निर्णय से प्रसन्न थे वहीं माँ का मन खिन्न हो गया था ।रात्रि को भोजन परोसते हुए उनकी माँ ने उनकी तरफ दृष्टि तक न डाली थी जिसे गृह आई शन्नों मौसी भी महसूस कर रही थीं और जाते जाते वे माँ से धीमे स्वर में कह गई थीं -जिज्जी दुखित क्यों हो !!एक बार विवाह तो होने दो ,बहू के गृह में कदम पड़ते ही संगीत धरा का धरा रह जाएगा ,दिखेगी तो बस बहू ही ,,हा ,,हा,,,हा,,,
अगले दिन वे भोर से ही अपने दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर गुरु महाराज के गृह , जिसे उन्होने 'संगीतशाला' नाम दिया था और जो वे उन्हें ही सौंप गए थे क्योंकि परिवार के नाम पर उनके आगे-पीछे कोई न था , वहाँ गए थे,गुरु महाराज की रिक्त गद्दी भी जैसे उनके विछोह में सूनापन लिए नीरस प्रतीत हो रही थी ,वो कक्ष जहाँ संगीत के विविध वाद्य यंत्र सुशोभित थे, वो कक्ष भी आज बहुत गमगीन प्रतीत हो रहा था ,वे गुरु सस्वर सारस्वत महाराज के बडे़ से तखत पर बिछे नर्म गद्दे जिसपर श्वेत सुंदर चादर बिछा हुआ था और उसपर कुछ गिरदे रखे हुए थे ,विराजमान होकर उसपर अपना हाथ फेरने लगे थे ,ऐसा करके उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वे उनके बिस्तर व गद्दी को ढा़ढंस बंधा रहे हों ,कुछ क्षण पश्चात वहाँ नित्य की भाँति बहुत से शिष्य व शिष्याओं का आगमन हुआ और वे उन्हें संगीत की शिक्षा देने लगे थे ।
गृह में उनके विवाह की तैयारियां होने लगी थीं ।पिता ने बहुत प्रयास किया था कि सरस्वती तू चाहे तो एक बार अपनी होने वाली जीवन संगिनी को देख ले मगर उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि नहीं बाबू, आपने मेरे लिए जो चुना वो अच्छा ही होगा ।
दोपहर की बेला में भोजन के उपरांत विश्राम कर संध्या को वे फिर अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए गृह से निकल जाते थे ।
देखते ही देखते वो समय भी आ गया था जब उनका विवाह था ।धूमधाम से सारे विवाह के कार्यों के समापन के साथ गृह में ,उनके जीवन में जीवन संगिनी के रूप में वल्लिका का पदार्पण हो चुका था ।
वल्लिका ,उनकी जीवन संगिनी एक समृद्ध परिवार की इकलौती संतान थी ।शहर के कपडा़ व्यवसाई गिरधर दास की कन्या वल्लिका दिखने में साधारण नयन नक्श वाली ,कंधे तक लहराते हुए केश ,छरहरी काया की स्वामिनी थी ।पूरा दिवस विवाहोपरांत के आयोजन में व्यतीत हो गया था और संध्या बेला होने पर मुख दिखाई के लिए आसपास की स्त्रियों का आगमन होने लगा था ।
..........शेष अगले भाग में
प्रभा मिश्रा 'नूतन'