ये सब देखकर उन्होने एक निर्णय लिया था और फिर वो संगीतशाला जाते,आते लोगों से मिलने बैठने व वार्तालाप करने लगे थे ।
जिससे भी वे अपने लिए गए निर्णय के संबंध में बात करते वो उन्हें हैरान होकर देखने लगता पर उनका सम्मान करने के कारण उनसे कुछ कहता न था ।
उन्हें भली -भाँति ज्ञात था कि उनके इस समाज में लोग रुढिवादिता और क्षुद्र चिंतन के कीच से सने हुए हैं और वे अपने इस कीच में आपादमस्तक सने रहकर ही प्रसन्न हैं ,,वे इससे ऊपर उठना ही न चाहते हैं ,,, अपनी सोच को विस्तार देना ही न चाहते हैं ,, परिवर्तन स्वीकार करना उन्हें कदापि स्वीकार्य नहीं ,,
पर उन्हें तो अपने निर्णय को उसके मुकाम तक पहुँचाना ही है !
उसी में उनकी पुत्री वत्सला की भलाई है ।
इन दकियानूसी सोच रखने वाले जनों के मन मस्तिष्क के आसमाँ में उनके लिए गए निर्णय से ही शनैः शनैः नव परिवर्तन के भास्कर का उदय होगा पर कैसे व कब !! वे ये चिंतन करते रहते और अपना सम्पूर्ण प्रयास करते रहते थे ये सोचकर कि वो जो करना चाहते हैं वो गलत नहीं है अतः उनका प्रयास रंग अवश्य लाएगा ,पर वे इस संबंध में वत्सला का मन भी लेना चाहते थे ताकि भविष्य में उसे ये न लगे कि बाबू ने जबरन अपनी इच्छा उसपर थोप दी ,अतः एक संध्या संगीतशाला जाने से पूर्व उन्होने प्रमोद से कहकर पुत्री वत्सला को अपने कक्ष में बुलाया था ।
वत्सला ने उनके कक्ष में आकर धीमे स्वर में उनसे पूछा था -"बाबू,आपने मुझे बुलाया !!"
"हाँ मेरी पुत्री,आ इधर मेरे समीप बैठ आकर ,तुझसे कुछ पूछना है !!"उन्होने कहा था और वत्सला सकुचाती हुई उनके समीप सिर झुकाकर बैठ गई थी ।
वे पुत्री वत्सला से अत्यंत वात्सल्य पूर्वक बोले थे -"पुत्री मैं तुम्हारे जीवन के संबंध में ,अगर कुछ निर्णय लेना चाहूँ तो क्या मुझे इसका अधिकार है !!
क्या तुम्हें मुझपर इतना विश्वास है कि मेरे बाबू मेरे लिए जो भी करेंगे वो उचित होगा !!"
पुत्री वत्सला ने उनकी तरफ देखकर फिर नयन झुकाकर कहा था -"कैसी बात करते हैं बाबू !! आपका अपनी इस पुत्री पर पूर्ण अधिकार है ,,, आप मेरे संबंध में जो भी निर्णय लेंगे उसमें मेरी भलाई ही छुपी होगी ,,, ये तो आपका बड़प्पन है जो आप अपनी पुत्रवधू को पुत्री मानकर इतना वात्सल्य दे रहे हैं ,,तब जबकि मेरे अभागे कदमों की वजह से......." बस!बस!बस! आगे इस संबंध में कुछ न बोलना पुत्री ,,,, उन्होने पुत्री वत्सला की बात को मध्य में ही काटकर आगे कहा था -" किसी के कदम अशुभ न होते हैं ,,, सबके देवलोगगमन का समय ईश्वर ने तय कर रखा होता है और उसी तय समय में उसे देह त्याग कर देवलोग गमन करना ही होता है !!
इसमें तेरा कोई दोष नहीं है ,,, हाँ माँ तुझसे रुष्टता से वार्तालाप करती हैं क्योंकि वे भी संकुचित चिंतन वाली हैं पर शनैः शनैः वो भी समझ जाएंगी ,,,
धीरे धीरे रे मना ,
धीरे सबकुछ होय !!
तूने सुना नहीं क्या !!
पुत्री वत्सला का मन पाकर उन्होने अपने प्रयास और तीव्र कर दिए थे ।
एक संध्या जब वे संगीतशाला से गृह आए थे तो प्रमोद ने उन्हें एक पत्र दिया था जो उनके लिए आया था ।उन्होने पत्र खोल कर पढा़ ही था कि माँ ने आकर उनसे पूछा था -"किसका पत्र आया है सरस्वती ??"
"माँ , रुड़की से पत्र आया है ,वहाँ मेरा संगीत का आयोजन है।" उन्होने माँ से कहा था और संगीत का आयोजन सुन माँ ने मुँह बिदका लिया था और अपने कक्ष में चली गई थीं ।
वे जब अपने कक्ष में आए तो देखा कि पुत्री वत्सला एक पेटी में उनके वस्त्र रख रही थी ।
सँभव है उसने ,उन्हें माँ से रुड़की गमन की बात कहते सुन लिया था ।
उन्हें देखकर उसने बहुत मासूमियत से पूछा था -" कब वापस आओगे बाबू ??"
उन्होने मुस्कुराकर उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा था -" शीघ्र आऊँगा पुत्री ।"
अगली सुबह वो रुड़की के लिए प्रस्थान कर रहे थे।रुड़की में एक महाविद्यालय की स्थापना दिवस पर उन्हें आमंत्रित किया गया था ।आयोजन अगले दिवस होना था।
वे वहाँ रुड़की के महाविद्यालय के स्थापना दिवस पर जा रहे थे ,वे वहाँ किसी को न जानते थे पर ऐसा कौन था भला जो उनको न जानता हो !!
वे रुड़की पहुँचे तो वहाँ उनके स्वागत के लिए पहले से ही रुड़की के महाविद्यालय के प्राचार्य महोदय श्री कृष्ण गोपाल स्वामी जी हाथों में पुष्पों का गुलदस्ता लिए हुए खडे़ थे ।
उन्होने आगे बढ़कर उन्हें पुष्पों का गुलदस्ता थमाते,अपना परिचय देते हुए कहा था -
"मैं 'कृष्ण गोपाल स्वामी' रुड़की के महाविद्यालय का प्राचार्य हूँ और गर्मजोशी से उनसे हाथ मिलाया था ।
उनके ठहरने का प्रबंध कृष्ण गोपाल स्वामी जी के यहाँ ही था और वे उन्हें अपने साथ अपने आवास ले गए थे।
वे जब कृष्ण गोपाल स्वामी जी के साथ उनके आवास पहुँचे एक संभ्रांत स्त्री ने गृह का द्वार खोला जो संभवतः कृष्ण गोपाल स्वामी जी की सहधर्मिणी थीं , काले घुँघराले केश , भरा हुआ चेहरा ,साँवला वर्ण, मस्तक पर तिलकनुमा बिंदिया , नाक में नथुनी , सीधे पल्ले की साडी़ पहने हुए उन स्त्री ने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन करते हुए उन्हें भीतर प्रवेश दिया था और वे कृष्ण गोपाल स्वामी जी के साथ भीतर प्रविष्ट हो गए थे ।
गृह की आंतरिक सज्जा ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था ।बैठक में दीवार पर बडी़ सी सुंदर कलाकृति टंगी हुई थी और उसके ही समीप कुर्सियां व मेज पडी़ हुई थी ।
और एक तरफ दीवान पडा़ था जिस पर सुंदर गिरदे रखे हुए थे ।
कृष्ण गोपाल स्वामी जी ने उन्हें आदर सहित बैठाकर उस स्त्री से जलपान का प्रबंध करने को कहकर उनसे बताया था -"ये मेरी सहधर्मिणी है , मेरे एक पुत्र व एक पुत्री है ,ईश्वर की बहुत कृपा है हम पर कि मेरे दोनों बच्चे बहुत संस्कारी व आज्ञाकारी हैं ।
आप मुझसे प्रथम बार मिल रहे हैं मगर मैं तो आपके बारे में बहुत सुना था और मेरा सौभाग्य है जो महाविद्यालय के स्थापना दिवस के आयोजन के बहाने ही सही आपका दर्शन लाभ हुआ ।
उनका वार्तालाप कृष्ण गोपाल स्वामी जी से जारी था तब तक उनकी सहधर्मिणी जलपान लेकर बैठक में प्रविष्ट हुईं और उनसे बोलीं -" समाचार पत्र में आपके पुत्र के निधन का समाचार पढ़कर बहुत दुख हुआ था फिर आपने पुत्र निधन के पश्चात जो कदम उठाया उसके बारे में भी समाचार पत्र में पढ़ने को मिला ।आपने जो किया वो ..............शेष अगले भाग में।