कुछ घण्टों पश्चात उनके गृह के दरवाजे को किसी ने बहुत तेज खटखटाना प्रारंभ कर दिया था ।उन्होनें चपला से कहा था कि देखो तो जरा बारात आ गई क्या !!और चपला ने दौड़ कर गृह का मुख्य द्वार खोला तो सामने वागीष का एक मित्र खडा़ था । वो भी गृह के मुख्य द्वार पर आ गए थे और माँ के साथ शन्नो मौसी भी उनके ही समीप आकर खडी़ हो गई थीं ।
वागीष के मित्र को अकेले आया देखकर मन कुछ अनिष्ट की आशंका से विचलित हो उठा था ,,,,
वागीष के मित्र ने विलाप करते हुए बताया था --" चाचा जी गजब हो गया !! सब बरबाद हो गया !! सब खत्म हो गया !!!"
"अरे पहेलियां ही बुझाएगा या कुछ स्पष्ट बताएगा भी !!"माँ ने वागीष के मित्र को विलाप करते देखकर घबराकर थोडा़ ऊंचे स्वर में पूछा था ।
"चाची ,अपना गृह आने को आधा किलोमीटर ही बचा था, वागीष,भाभी को लेकर गृह पहुँचे उसके पूर्व ही उसे ह्रदयाघात हो गया और उसका निधन हो गया है !! शीघ्र चलें" ,,,
"क्याआआआ" कहती हुई माँ मूर्छित हो गई थीं और शन्नो मौसी व चपला उन्हें सँभालने लगी थीं और वे घटनास्थल की तरफ बोझिल कदमों से जाने लगे थे ,उनके मन सागर में सुजान बाबू से किया हुआ वचन उथल-पुथल मचा रहा था ।
गुरु सस्वर सारस्वत महाराज के निधन से उपजे विछोह से उबरने के पश्चात शनैः शनैः उन्होने सुख व दुख में समभाव से रहने का गुण सीख लिया था ।ये सामान्य मनुष्यों के वश की बात न थी,ये तो तत्व ज्ञान का वो निचोड़ था जिसे आसानी से कोई मन कण्ड में उतार सकता था भला !!और जिसने उतार लिया वो फिर सामान्य मनुष्य रह ही कहाँ गया !!वो तो महात्मा हो गया ,ईश्वर के सन्निकट हो गया ।
अब उल्लास के क्षण उन्हें सद् मार्ग से भटका न पाते थे और ना ही वेदना के क्षणों में आँखों में अश्रु आकर उन्हें कमजोर कर पाते थे,उनका ह्रदय तो चट्टान में परिवर्तित हो गया था,जिसके भीतर आत्मा अपने कर्तव्यों के प्रति उन्मुख अपनी साधना में रत रहती थी,पर इस सूचना ने उनके मस्तिष्क में उथल-पुथल मचा रखी थी ।उन्हें रह-रहकर पुत्रवधू वत्सला के पिता सुजान बाबू से किया हुआ वचन स्मरण हो रहा था।सुजान बाबू की कन्या वत्सला का संसार तो बसने से पूर्व ही उजड़ गया था !!
ये विधाता ने कौन सा खेल खेला था !! पुत्रवधू वत्सला ने तो अभी अपने पति परमेश्वर की तरफ एक दृष्टि भी न डाल पाई होगी और विधाता ने उसे अपने लोक बुला लिया था!!
मन में विचारों का चक्र अपनी गति से गतिमान था और वे अपने कदम बढा़ते जा रहे थे,और उन्हें ये भान भी न था कि उनके पीछे-पीछे उनकी शन्नों मौसी की पुत्री चपला भी आ रही थी।
वे जब घटनास्थल पर पहुँचे तो वहाँ अपार भीड़ लगी हुई थी।उन्हें देखकर लोगों ने तितर-बितर होना प्रारंभ कर दिया था ।
उनके नयनों ने वो दृश्य देखा था जो सामान्य मनुष्यों के लिए ह्रदय को चीरकर रख देने वाला था।उन्होने देखा था--गाडी़ के आगे की गद्दीपर पुत्र वागीष का शव पडा़ हुआ था और उसके दो मित्र गाडी़ के बाहर अपने अधरों पर अपने हाथ की मुट्ठी बनाकर रखे हुए अश्रुपूरित नयन लिए खडे़ थे और पुत्र वागीष के समीप उसकी नवविवाहिता जो ईश्वर के लिए निर्णयानुसार विधवा हो चुकी थी,वो गाडी़ की गद्दी पर बद्हवास सी,ठगी सी बैठी हुई थी ।उसके विस्फारित नयन शून्य में ताक रहे थे ,सिर की चूनर खिसक कर कंधे पर आ गई थी ।
उसके मुखमण्डल पर जो भाव थे वो उसे भली-भाँति पढ़ सकते थे।
ये कुछ इस भाँति था जैसे मेघों के बरसने से पूर्व ही पवन उन्हें उडा़ ले गई हो और धरा के ह्रदय में विछोह की तड़प से दरारें पड़ गई हों ।
जैसे पराग से परिपूरित पुष्प को चूमने से पूर्व ही भौंरा उड़ गया हो और पुष्प उसके विछोहाग्नि में झुलस कर मुरझा गया हो ।
जैसे अंधकार प्राची का हाथ थामकर उजाले की तरफ पहला कदम बढा़या ही हो और उजालों ने स्याल मेघों से अपना मुखमण्डल ढ़ककर उसकी आशाओं पर तुषारापात कर दिया हो ।
पुत्रवधू वत्सला का मन इस घडी़ में क्या चिंतन कर रहा होगा इसका अंदाजा भी वे भली-भाँति लगा सकते थे।
कहा जाता है कि बेटियाँ पराया धन होती हैं ,मायका तो उनका अस्थाई का घर होता है जिसे एक न एक दिवस तजकर अपने गृह ससुराल गमन करना होता है ।
हा !! अस्थाई गृह छूट गया और जिसका हाथ थामकर अपने वास्तविक निवास पिय गृह चली वो तो पिय के देवलोग गमन से रूठ गया !
वर बिन कैसा घर!!
जडे़ं ही साथ छोड़ दें तो तने कहाँ जाएं !!
वे हर्ष,शोक,इन संवेगों से ऊपर उठ चुके थे उनका मन तो ये सोचकर भारी हो गया था कि मैं जाने-अनजाने सुजान बाबू का दोषी हो गया !!
उनकी पुत्री को बेटी मानने के साथ-साथ सर्वसुख देने का वचन दिया पर उसके दामन में तो दारुण दुख,क्लेश,वेदना भर गई !!
वे अपने पुत्र वागीष के मित्र के समीप आकर उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले थे -" गाडी़ से वागीष का पार्थिव शरीर निकाल कर दूसरी गाडी़ से गृह जाओ और मैं इस गाडी़ से कुछ ही समय पश्चात गृह आता हूँ ।"
वागीष के दोनों मित्रों ने मिलकर उसका पार्थिव शरीर दूसरी गाडी़ में रख दिया था और गाडी़ लेकर गृह प्रस्थान कर गए थे ,इसी उपक्रम में उन्होने अपने समीप चपला को खडा़ पाया था ।चपला को देखकर वे बोले थे -"चपला मेरे साथ इस गाडी़ में बैठो ,मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता है " पर चपला तो सँभव है कि उनके नयनों की सीपी में अश्रुओं के मोती खोज रही थी ,उनके मुखाकाश में वेदना के स्याह मेघ खोज रही थी, उनके मुख से निकला था -"मैं इन सब चीजों से ऊपर उठ चुका हूँ चपला ।"
चपला की आँखें आश्चर्य में सँभव है ये चिंतन कर फैल गई थीं कि सरस्वती तो मन पढ़ना भी जानता है !!
चपला उनकी समउम्र थी और इस हेतु उन्हें सरस्वती ही कहती थी ,वो भी एक बेटी की माँ थी तो इस बेटी के दारुण वेदना को समझ सकती थी ।
उसने कहा था -" मैं तुम्हारी मदद करूँगी सरस्वती ।"