"ऐसा न कहो माँ !!" कहते हुए सरस्वती चरण दास अंदर कमरे में आए और माँ के समीप बैठकर माँ के हाथ को अपने हाथों में लेते हुए बोले -" तुमने रात से भोजन न गृहण किया माँ !! चलिए चलकर साथ में भोजन करते हैं।"
"मुझे भूख नहीं ! तू जा यहां से मुझे अकेला छोड़ दे" कमला देवी ने उनके हाथ से अपना हटाकर कहते हुए मुँह फेर लिया जिससे स्पष्ट था कि वो अपने बेटे सरस्वती चरण दास से रुष्ट हैं।
सरस्वती चरण दास समझ गए कि शन्नो मौसी के उलाहना का असर अभी तक माँ पर है ।
उनके नयनों के समक्ष विगत दिवस बेटी की विदाई के कुछ क्षणों पूर्व शन्नों मौसी का माँ को दिया उलाहना स्मरण हो आया --
जिज्जी ,आखिर तुम्हारे बेटे ने अपने मन की कर ली ,तुम्हारी तो एक न चली !!
वे माँ को मनाने का प्रयास करते हुए बोले -"माँ रुष्ट हो अपने सरस्वती चरण दास से !!"
सरस्वती चरण दास का इतना बोलना शाँत समुद्र में कंकड़ मारने जैसा हो गया और कमला देवी के गुबार का उछाल बाहर आने को आतुर हो उठा ।वे उठीं और कमरे में इधर से उधर टहलते हुए फट पडी़ं --" अपने सरस्वती चरण दास!
अपने !!
अरे तू मेरा हुआ ही कहाँ ??? तू मेरा होता तो सरस्वती चरण दास के बजाय शिव चरण दास होता ! पर मेरी चलती ही कहां है ??
तेरे पिता स्वर्ग सिधार गए ,न उनके समक्ष मेरी कभी चली और न तेरे समक्ष !
तूने तो सदा की भाँति अपने मन की कर ली ना !!
कितनी मिन्नतों के बाद भोलेनाथ ने तुझे मेरी गोद में डाला था ! फूली न समाई थी तुझे पाकर, तुझे भोलेनाथ का प्रसाद समझकर।
कितने अरमानों से तेरा नामकरण किया था --शिवचरण दास ,,,,,,, मगर नहीं
कमला देवी जैसे इतने बरसों का सारा गुबार निकाल कर ही दम लेना चाहती थीं,,,,अपने गुबार को बाहर निकालने में उन्होनें श्वास को भी भीतर आने पर जैसे पाबंदी लगा दी थी और वो पूरे वेग में बोलती जा रही थीं --"तुझे तो सरस्वती चरण दास बनना था ना !! अपनी मनमानी करनी थी ना !! जिसमें तेरा साथ दिया तेरे पिता ने ,,,,,, तेरा बचपन जी ही कहाँ पाई मैं !!!!
तुझे तो संगीत के महान गुरू सरस्वर सारस्वत जी को अर्पित कर दिया गया था संगीत की शिक्षा गृहण करने हेतु !!
तू विद्यालय से छूटते ही उनके यहाँ पहुँचा दिया जाता ,वहाँ से आता तो विद्यालय का गृहकार्य करने के उपरांत घर के महाकक्ष में संगीत की साधना में रत हो जाता -सा,,,,रे,,,,,गा,,,,मा,,,पा,,,धा,,,,नी,,,,,साआआआआआकरने!"
"माँ बस भी करो !!भोजन की बेला हो गई है,मैं प्रमोद को पुकार कर हम दोनों का भोजन यहीं मँगा लेता हूँ ,चलो साथ में भोजन करते हैं "सरस्वती चरण दास ने माँ को मध्य में ही रोककर हाथ जोड़कर अनुनय की ।
"तुझे भूख लगी है ,तू खा ले ,मुझे मेरे हाल पर छोड़ दे"कहते हुए कमला देवी भोलेनाथ के श्री चरणों में बैठकर जाप करने हेतु अपना माला उठाईं।
"माँ देखो तुम न खाने का हठ करोगी तो मैं विवश होकर तुम्हें अपनी शपथ दे दूँगा,,,,एक तो वैसे ही विगत दिवस बेटी की विदाई के बाद से घर नीरस और वीरान प्रतीत हो रहा है ,,,,विगत सारी रात्रि करवटें बदलते ही व्यतीत हुई और ऊपर से तुम कुपित हो ।"
सरस्वती चरण दास का इतना कहना शाँत होने का प्रयास करते कमला देवी के ह्रदय समुद्र में पुनः उछाल ले आया और वो माला एक तरफ रखकर सरस्वती चरण दास की तरफ निगाह गडा़कर तीखे स्वर में विस्मय से बोलीं-बेटी !बेटी !!"
"बाबू साहब, भोजन परोसकर यहीं ले आऊँ क्या ??"प्रमोद ने आकर धीमे स्वर में पूछा और सरस्वती चरण दास ने संकेत में हामी भर दी ।
कुछ क्षण कक्ष में मौन पसर गया ,तत्पश्चात प्रमोद भोजन के दो थाल लेकर आया और कक्ष में पलंग के समीप रखी मेज पर रखकर कोने में रखी कुर्सियों को मेज के समीप लगा दिया और चला गया।
कमला देवी भोजन के बडे़ बडे़ निवाले जबरन कण्ठ में उतारने लगीं और सरस्वती चरण दास भी माँ के संग ही दो,चार निवाले ही कण्ठ से नीचे उतार पाए थे कि कमला देवी ने खडे़ होकर सिर झुकाए कक्ष के दरवाजे की तरफ उँगली उठा दी जिसका तात्पर्य ये था कि ले,गृहण कर लिया भोजन ,अब तू यहाँ से प्रस्थान कर ।
माँ के संकेत पर श्वेत कुर्ते और श्वेत पैजामे पर काली सदरी और सिर पर काली टोपी लगाए सरस्वती चरण दास अपने हाथों में अपने साथ सदा रहने वाली छडी़ उठाए भारी मन से अपने कक्ष की ओर चल दिए।
अपने कक्ष में आकर सदरी निकाल कर खूंटी पर टांग दी और छडी़ को एक कोने में टिकाकर अपनी कुर्सी पर फिर नयन मूँदकर बैठ गए और उनका मन पुनः अतीत के गलियारों में पहुँच गया --
गुरु सरस्वर सारस्वत महाराज का निधन उन्हें भीतर तक तोड़ गया था।
उनके दुखित मन को न भूख का आभास होता और न ही प्यास का ।उनके नयनों के समक्ष अपने गुरू महाराज सस्वर सारस्वत जी की छवि तैरती रहती -- अच्छे खासे स्वास्थ्य के धनी ,बडी़ बडी़ आँखों और घनी मूछों वाले गुरू महाराज , शीश पर सदा टोपी लगाने वाले गौरांग गुरू महाराज,श्वेत कुर्ते व श्वेत धोती धारण करने वाले गुरू महाराज, पाँवों में सदा साधारण सी पादुकाएं धारण करने वाले गुरु महाराज,संगीत में विलक्षण प्रतिभा के धनी गुरू महाराज जब राग भैरवी गाते तो मन जैसे उसमें रमकर कहीं विलुप्त ही हो जाता था ।
वे गृह के महाकक्ष में ,जिसमें वे संगीत की साधना करते थे,जहां उनके संगीत के वाद्य यंत्र-तबला,हारमोनियम,सितार इत्यादि रखे हुए थे उसकी तरफ वे दृष्टि भी न डाल पाते और अपने कक्ष में बैठकर बस विलाप करते रहते थे।
उस संध्या भी वो अपने कक्ष में भूमि पर बैठे हुए नयन मूँदें विलाप ही कर रहे थे कि किसी के हाथ का स्पर्श उन्होनें अपने शीश पर महसूस किया ।उन्होनें नयन खोलकर देखा तो सामने बाबू खडे़ थे ।
बाबू को देखकर वो अपने अश्रु परिपूरित नयन छुपाने का असफल प्रयास करने लगे ।लम्बे कद के साधारण काया के उनके बाबू -मुंशी जी उनके समीप बैठकर बोले -- .........शेष अगले भाग में ।
प्रभा मिश्रा'नूतन'