उनको देखते ही सबकी आँखें उनकी तरफ देखने लगी थीं जिनमें प्रश्न तैर रहा था जिसका उत्तर वे पाने को लालाइत थे, उनके मन की धरती में प्रश्न का अंकुर था और वे उसके उत्तर की वृष्टि हेतु उनके मुखाकाश में कृषक की भाँति देख रहे थे कि कब उनके उत्तर की वृष्टि हो और और मन धरा पर संतोष की फसल लहलहा उठे।
उन्होने उन अपार जनों की आँखों में छुपे प्रश्न को पढ़ लिया था और अपने एक शिष्य के समीप जाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा था -
"पुत्रवधू वत्सला को अभी यहाँ लाना उचित न था अतः उसे संगीतशाला छोड़ आया हूँ ,सभी को बताकर सबकी शंका का समाधान कर दो ।"
और इतना कहकर वे गृह के भीतर प्रवेश कर गए थे जहाँ
वागीष का शव रखा गया था और माँ दहाडे़ मार -मार कर विलाप कर रही थी ।
उन्होने जिसका अंदाजा लगाया था वही सब तो हो रहा था !!माँ विलाप करती हुई पुत्रवधू वत्सला को कोस रही थी -- हे विधाता !कैसी कुलक्षिणी बहू दी तूने जो मेरे पौत्र को ही निगल गई !!
शन्नो मौसी भी विलाप करती हुई ,माँ का शीश अपने कंधे पर रखकर उन्हें धैर्य बँधा रही थीं ।गृह का कोना-कोना मानो वागीष के देवलोग गमन से उपजे शोक के कारण स्तब्ध हो गया था ।
उन्हें देखते ही माँ विलाप करते हुए बोली थीं --" वो कुलक्षिणी कहाँ है !! उसे कहाँ छोड़ आया ???
जिसने तेरे पुत्र को ही लील लिया उसे साथ न लाया !!
वो अपने पितृगृह वापस लौट गई !!
या उसे संगीतशाला छोड़ कर आया है तू !!
वो अभागन !! उससे किस घडी़ में मेरे पौत्र के साथ विवाह होना तय हुआ था कि उससे बंधन जुड़ते ही मेरा पौत्र देवलोग गमन कर गया !!
और तुझे उससे सहानुभूति है !!उससे !! जो तू उसे यहाँ न लाया !! अरे बाहर बैठे अपार जनों के बारे में तो सोचा होता कि वे क्या सोचेंगे !
गृह का एकमात्र दीपक ,वो भी बुझ चला !!! "
माँ की पीडा़ देखकर उन्हें कुछ भी कहना ,उनके प्रश्न का उत्तर देना उचित न जान पडा़ था और वे मूक बनकर दिवंगत पुत्र वागीष के शव के पास बैठ गए थे ,माँ उनकी आँखों में आँसुओं का एक भी कतरा न देखकर रोष में बोली थीं --" रे कैसा मानुष है तू !! मानुष ही है ना !!मुझे तो संदेह होता है !!
जो अपने बाप और सहधर्मिणी के देवलोक गमन पर अश्रुपात न कर सका ,जो अपने पुत्र के देवलोग गमन पर अश्रुपात न कर सका वो तो मनुष्य की देह में पाषाण ही हो सकता है "
वे अपनी चुप्पी तोड़ते हुए माँ की तरफ देखकर बोले थे -"माँ कैसा और क्यों अश्रुपात !! किसके लिए अश्रुपात !!
मानव देह तो नश्वर है ,नश्वर देह के लिए अश्रुपात !!
अश्रुपात करना तो मानसिक दुर्बलता का प्रतीक है !! जो आया है उसे एक न एक दिवस तो जाना ही है !! न कोई हमारी इच्छा से आता है न कोई हमारी इच्छा से जाता है , ईश्वर ही हर प्राणी को धरा पर भेजता है और जब उसका मन करता है वो वापस बुला लेता है !! जो है वो ईश्वर का है ,हमारा कुछ भी नहीं है तो जो हमारा नहीं है उसके लिए शोक करना उचित नहीं है !!
"चुप कर !! ये समय तेरे उपदेश देने हेतु सही नहीं है !! "माँ ने उन्हें झिड़क कर कहा था पर वे माँ को इस वेदना से उबारना चाहते थे सो अपनी बात अनवरत जारी रखते हुए बोले थे--" माँ ये संसार एक कूप है जिसमें हम प्राणी पडे़ हुए हैं और हमारे आसपास मोह,लोभ,क्रोध,ईर्ष्या,छल-कपट,प्रतिस्पर्धा इत्यादि का इतना कीच है कि हम उनमें सने हुए हैं ,,, और देखो हम अज्ञानी ,मूढ़ प्राणी इस कीच में सने होकर भी इससे उबरने का प्रयास तक न करते हैं !!
वो ईश्वर ही है जो इन समस्त कीच को हटाकर हमें संसार कूप से निकाल सकता है पर हम उन्हें पुकारना भी न चाहते !!
माँ ,इस सबसे हम उबरेंगे तभी तो ईश्वर के सन्निकट हो पाएंगे !!"
"ईईईईईईईईईई" उनकी इन बातों से खिन्न होकर माँ अपनी आँखें बंद कर अपने हाथों को कानों पर रखकर चीखी थीं ।
तभी पुत्रवधू वत्सला के पिता सुजान बाबू और उनकी सहधर्मिणी ने विलाप करते ,बिलखते हुए गृह में प्रवेश किया था ।
उनको देखकर माँ का रुदन थम कर क्रोध में परिवर्तित हो गया था और वे चीख कर उन्हें कोसते हुए बोली थीं --" कैसी अभागी पुत्री आपकी थी जिससे विवाह होते ही मेरा पौत्र देवलोकगमन कर गया !!
मेरा पौत्र तो चला गया अब यहाँ क्या लेने आए हैं !! आपकी पुत्री तो आपके गृह वापस लौट गई होगी ना !!
इतना सुनते ही सुजान बाबू हैरान होकर विलाप करते हुए बोले थे --"नहीं ,,,मेरी पुत्री मेरे गृह नहीं है !! तो मेरी पुत्री कहाँ है !!
सुजान बाबू की सहधर्मिणी ने उनके समक्ष आकर विलाप करते हुए पूछा था --" सरस्वती चरण दास जी ,मेरी पुत्री कहाँ है !!कहाँ है मेरी बच्चीईइइ!!!"
"आपकी पुत्री को यहाँ लाने का समय उचित न था अतः उसे संगीतशाला छोड़ आया हूँ ,,वहाँ मेरी बहन चपला उसके समीप है ।"वे बोले थे ।
"यहाँ लाने का समय उचित नहीं है !! मेरे पौत्र की हत्यारिन को संगीतशाला में छोड़ आए सरस्वती !! अपने पुत्र के लिए लेशमात्र मोह नहीं और उसकी इतनी परवाह !!! धिक्कार है तुझ पर !! "कहते हुए माँ जोर जोर से विलाप करने लगी थीं ,और सुजान बाबू की ससधर्मिणी उनकी कमीज पकड़कर उनसे विलाप करते हुए बोली थीं --" कहा था आपसे ,कि इनके यहाँ अपनी पुत्री का विवाह न करें !! इनके यहाँ अपनी पुत्री सुखी न रहेगी इसका अंदेशा इस माँ को हो गया था पर आपने मेरी एक न सुनी ,,उसका परिणाम प्रत्यक्ष देख लिया !!अपनी पुत्री का संसार बसने से पूर्व ही उजड़ गया !!! सुजान बाबू उनकी आँखों में आँखें डालकर उदास होकर देखने लगे थे ,मानो कह रहे हों कि आपके यहाँ अपनी पुत्री को ब्याहने का निर्णय सही न था ।
वे समझ गए थे कि जितनी देर वागीष की पार्थिव देह यहाँ रहेगी उतनी देर माँ का विलाप करना थमेगा नहीं अतः वे उठकर बाहर जाकर अपने तीन शिष्यों को भीतर बुलाकर पार्थिव देह के अंतिम संस्कार हेतु शमशान गृह ले जाने लगे थे और माँ कहती रह गई थीं --