रात्रि में उन्होने अपना बिस्तर पुत्री वत्सला के कक्ष के बाहर लगवाया था और पुत्री वत्सला से कहा था -"बेटी ,तू निश्चिंत होकर निंद्रागत हो ,तेरे लिए नवगृह है ,नव वातावरण है तो तुझे किसी भी प्रकार का भय न लगे इस हेतु मैं तेरे कक्ष के बाहर ही शयन करने जा रहा हूँ ,,, तुझे किसी भी चीज की आवश्यकता हो या कुछ कहना हो तो निसंकोच अपने पिता को पुकार लेना ।"
प्रातः हुई थी और वे दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर संगीतशाला जाने को तैयार हो ही रहे थे कि प्रमोद आकर कह गया था -"बाबू साहब आपको माँ साहब ने अपने कक्ष में बुलाया है। "
वे माँ के कक्ष में गए तो माँ ने उनसे अत्यंत क्रुद्ध होकर कहा था --" सरस्वती ,अपने संगीत के संसार से निकलकर बाहर की दुनिया को भी देख लिया कर तो तुझे समझ आए कि लोगों की बातों की भी परवाह करनी पड़ती है ,,, तुझे भान भी है कि लोग तेरे कृत्य को लेकर बातें बना रहे हैं !!
जिससे हमारी कितनी बदनामी हो रही है !! तूने उल्टी ही गंगा जो बहाई है !!" और वे धम्म से बैठ गई थीं ।
वे माँ की तरफ देखकर बोले थे --"माँ जब हम कोई नव आहार गृहण करते हैं तब हमारा उदर उसे आसानी से स्वीकार न करता है पर शनैः शनैः वो उसका अभ्यस्थ हो जाता है ।
किसी शिशु को जब कोई अपरिचित जन अपनी गोद में लेने का प्रयास करता है तो वो रुदन करने लगता है मगर जब वो शिशु उस जन को नित्य देखता है तो उससे घुलमिल जाता है ।
उसी भाँति मेरा ये कृत्य अभी किसी को न पच रहा है पर शनैः शनैः उन्हें स्वीकार्य हो जाएगा ।" माँ को देखकर स्पष्ट था कि वे उनके तर्कों से न संतुष्ट हुई थीं और न ही उनका क्रोध कम हुआ था ।
अपनी बात कहकर वे उनके कक्ष से निकल कर संगीतशाला चले गए थे।
दिवस व्यतीत हो रहे थे ,, पुत्री वत्सला भी शनैः शनैः अपने ठहरे हुए जीवन को गति देने का प्रयास करने लगी थी ,,, वो स्वयं से अपना भोजन,जल लेने लगी थी ,माँ की पूजा के लिए पुष्प तोड़कर उनके कक्ष में जाकर रख आती थी ,उनकी पूजा की समस्त तैयारी कर देती थी और जो थोडी़ बहुत उससे सेवा बन पड़ती थी,वो कर देती थी पर माँ की तरफ से वार्तालाप का ,स्नेह का एक भी शब्द न प्राप्त कर पाने की वजह से सहमी व सकुचाई ही रहती थी और जब से वो आई थी,उसके मुख से तो उन्होने एक शब्द भी न सुना था ।
वे तो अपने नियमानुसार भोर में संगीतशाला चले जाते थे और अपराह्न में भोजन करने आते व संध्या में पुनः संगीतशाला जाते तो रात्रि में गृह आते थे ।
वे जब गृह में होते तो उन्हें माँ का कुपित चेहरा ही दिखता व सकुचाई हुई पुत्री वत्सला नज़र आती थी ।
एक प्रातः जब वे संगीतशाला जाने को तैयार हुए तो पुत्री वत्सला के कक्ष में जाकर उससे कहा था -" पुत्री चल मैं तुझे संगीतशाला ले चलता हूँ ,वहाँ तेरे मन को अच्छा लगेगा"और वे पुत्री वत्सला को लेकर संगीतशाला आ गए थे ।
संगीतशाला में जब वे शिष्यों को शिक्षा देते थे तब शिष्याओं के आने पर प्रतिबंध था और जब शिष्याओं को शिक्षा देते तब शिष्यों के आने पर प्रतिबंध होता था ,सहशिक्षा वे न देते थे ।
समस्त शिष्याएं आगमन कर चुकी थीं और उनके साथ पुत्री वत्सला को देखकर अचंभित थीं ।
उन्होने पुत्री वत्सला को अपने समक्ष बैठाकर हारमोनियम
लेकर शिष्याओं को संगीत की स्वर साधना प्रारंभ की थी--
छेड़ गयो मोहे,
श्याम साँवरियाआआआ,
छेड़ गयो मोहे,
श्याम साँवरियाआआआ
मोडी़ कलाई मोरी,
थाम कमरियाआआआ,
मोडी़ कलाई मोरी,
थाआआआम कमरियाआआ,
छेड़ गयो मोहे,
श्याआआआम साँवरियाआआआ
सा रे ग म प ध नि सा
सा नि ध प म ग रे सा
छेड़ गयो मोहे,
श्याम साँवरियाआआ
छेड़ गयो मोहे,
श्याआआम साँवरियाआआ
राह में रोक मोरी,
फोडी़ गगरिया
राह मे रोक मोरी
फोओओओडी़ गगरिया
छेड़ गयो मोहे
छेड़ गयो मोहे
छेड़ गयो मोहे,,,साआआआआआ
संगीत की स्वर साधना की समाप्ति हुई थी और अनायास ही पुत्री वत्सला के मुख से निकला था -"अद्भुद"
प्रथम बार उन्होने पुत्री वत्सला के मुख से एक शब्द सुना था जो सूचक था कि पुत्री वत्सला पर उनका किया प्रयास रंग लाने की दिशा में कदम बढा़ चुका है और उन्होने मुस्कुराकर उसके शीश पर अपना वरदहस्त फेर दिया था और वापस गृह प्रस्थान किया था ।
पत्थर पर भी अगर नित्य खरोंच की जाए तो निशान पड़ने लगते हैं ,,, पुत्री वत्सला भी बिना कुछ बोले ,सहमी सहमी सी रहकर माँ के प्रति अपने कर्तव्यों का वहन करती थी जिसको देखते,देखते माँ उससे संक्षिप्त वार्तालाप तो करने लगी थीं पर उसको बेटी मान ही कहाँ पाई थीं !! उनके लिए तो वो मात्र बहू थी और कुछ नहीं !!
उस रात्रि वे पुत्री वत्सला के कक्ष के बाहर शयन कर रहे थे और उन्हें कुछ शीत का आभास हो रहा था ।प्रमोद उनके पास ओढ़ने के हेतु चादर रखना विस्मृत कर गया था ।वे शीत के कारण बार बार अपने पैरों को सिकोड़ रहे थे तभी किसी ने उन्हें चादर ओढा़ई थी ,उन्होने पलट कर देखा तो पुत्री वत्सला उन्हें चादर ओढा़ने के पश्चात अपने कक्ष के भीतर प्रवेश कर रही थी ।
वे मन ही मन मुस्कुरा कर चिंतन करने लगे थे कि पुत्री वत्सला सहमी सी रहती है ,उदास रहती है ,मुख से एक शब्द भी न निकालती मगर वो अपने इस पिता की चिंता करती है ।
अगली रात्रि प्रमोद उनका बिस्तर पुत्री वत्सला के कक्ष के बाहर लगा चुका था और वे शयन करने हेतु अपने बिछौने पर आए ही थे कि पुत्री वत्सला ने आकर उनसे कहा था -"बाबू आप अपने कक्ष में निश्चिंत होकर शयन करें ,, मैं सही हूँ बाबू !" और प्रमोद को पुकार कर कहा था -"काका बाबू का बिछौना उनके कक्ष में ही लगा दें ,बाबू वहीं शयन करेंगे ।"
ये प्रथम बार था जब पुत्री वत्सला के मुख से उन्होने इतने शब्द सुने थे ।
शनैः शनैः एक वर्ष व्यतीत होने वाला था पर पुत्री वत्सला अभी भी मुरझाई लतिका सी ही प्रतीत होती थी , अपने सभी कर्तव्य वहन करती सहमी और सकुचाई सी ही रहती थी और माँ अभी भी उससे आवश्यकता पड़ने पर ही वार्तालाप करतीं वो भी बहुत रुक्षता से !!
ये सब देखकर वे पुत्री वत्सला के भविष्य को लेकर चिंतित हो उठे थे और ........शेष अगले भाग में।