आपने मेरी बात न मानी पर मैं अपनी पुत्री के साथ ये सब कदापि न होने दूँगा,,,,न वो केशविहीन होगी और न ही श्वेत वस्त्र धारण करेगी,,वो यहाँ ऐसे ही रहेगी जैसे एक बेटी अपने पिता के गृह में रहती है " माँ से कहते हुए वे पुत्रवधू वत्सला के समीप जाकर उसका हाथ थामकर उसे उठाते हुए बोले थे --" चल मेरी बच्ची,,, "
प्रथम बार तब पुत्रवधू वत्सला ने उनकी आँखों में आँखें डालकर अश्रुपूरित नयनों से उनकी तरफ देखा था ,,,, ये कुछ ऐसा था जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो ,,,,,,
वे उसकी तरफ देखकर बोले थे-"ना मेरी बच्ची!! तू निश्चिंत रह ,,,,तेरे साथ मैं कुछ गलत न होने दूँगा,,,"
और वे पुत्रवधू वत्सला को लेकर उसके कक्ष की तरफ जाने लगे थे और पृष्ठ से माँ का तीखा स्वर सुनाई दिया था --"ये तू सही न कर रहा है सरस्वती !! अरे मेरी कोख से जन्म लेते ही तू स्वर्ग क्यों न सिधार गया !!
सदियों से चले आ रहे रीति -रिवाजों को बदलने का प्रयास मत कर मैं कहे देती हूँ ,,,"मगर वे माँ की बात का कोई उत्तर न देकर पुत्रवधू वत्सला के कक्ष की तरफ बढ़ गए थे ,और
उनका अनुगमन करती चपला भी सँभव है आ रही थी क्योंकि शन्नों मौसी का स्वर उन्हें सुनाई दिया था -"तू कहाँ वहाँ जा रही है !! गृह प्रस्थान न करना है क्या ??"पर वो बोली थी-"माँ आप गृह जाएं,मुझे तो अपनी ससुराल गमन करना है ,वो मैं अपने अनुसार कर लूँगी।
वे पुत्रवधू वत्सला को लेकर उसके कक्ष में आकर उसे बैठाकर मुडे़ ही थे कि देखा था कि चपला खडी़ है ।चपला उनसे बोली थी -सरस्वती अब मुझे भी अपने ससुराल गमन करना होगा ,पर मेरे लायक कोई भी सेवा हो तो एक पत्र लिखकर डाल देना ,मिलते ही मैं आ जाऊँगी ।"
वे कुछ कहते इसके पूर्व ही सुजान बाबू की सहधर्मिणी उस कक्ष में प्रविष्ट हुई थीं और उनके समक्ष हाथ जोड़कर,अश्रुपूरित नयन लिए हुए बोली थीं
समधी जी,मुझे क्षमा कर दें अपने उस दिवस के शब्दों के लिए,,, मैं गलत थी ,नितांत गलत थी जो ये सोचती थी कि आपके पुत्री नहीं है तो आपके गृह में मेरी पुत्री को सुख न मिलेगा ,,, जो हुआ वो इसकी नियति थी पर आज जो आप मेरी पुत्री के लिए खडे़ हुए उससे मुझे पूरा विश्वास हो चला है कि आपके रहते मेरी पुत्री को यहाँ कोई तकलीफ न होने पाएगी ,,, पुनः क्षमा प्रार्थी हूँ ।"
"अरेएएए ये आप क्या कह रही हैं ,,,, क्षमा माँगने की आवश्यकता नहीं है ,,, आप बस अगर हो सके तो इसके एक,दो सलवार-कमीज किसी के हाथों भिजवा दें ताकि उसकी नाप के अनुसार इसके लिए सलवार-कमीज सिलवा दूँ,,, यहाँ भी ये वही पहनेगी जो आपके गृह में पहनती थी ,,, ये उसके पिता का ही गृह है ,श्वसुर का नहीं !"
वे उनसे संतुष्ट होकर सुजान बाबू के संग अपने गृह प्रस्थान कर गई थीं और शन्नों मौसी व चपला भी अपने गृह प्रस्थान कर गई थीं ,, गृह में कोई रह गया था तो वो ,उनकी माँ और पुत्री वत्सला ।
माँ तो अपने कक्ष में जाकर अंदर से द्वार बंद कर ली थीं ।
उन्हें मनाने या उनसे कुछ कहने का ये समय उचित न था , उस समय उनको मनाने जाना उनके क्रोधाग्नि में घृत डालने के समान था ।
वे भोजन थाल लेकर वत्सला के कक्ष में जाकर उसके समीप भोजन थाल रखते हुए उसे समझाते हुए बोले थे-"अच्छा पुत्री बता ,तूने जो ये वस्त्र पहन रखे हैं ये मैले हो जाएंगे तो तू क्या करेगी ???
उनकी बात सुनकर वत्सला ने उनकी तरफ आँखें उठाकर देखा था तत्पश्चात बिना कोई उत्तर दिए अपने नयन झुका लिए थे ।
वे बोले थे -" तुम उन मैले वस्त्रों को त्याग कर नवीन व स्वच्छ वस्त्र धारण करोगी ना ! आत्मा भी तो वही करती है ,,,, अपनी जीर्णशीर्ण हो चुकी देह का ,मैली-कुचैली या रुग्ण देह का त्याग कर नवीन देह प्राप्त करती है ,,,, अब इसमें विलाप करने या व्यथित होने का क्या औचित्य है भला !!
बेटी ,जीवन रथ के पहिए किसी के गमन से स्थिर न होते हैं ,वे यथावत गतिमान रहते हैं तब तक जब तक स्वयं सारथी परमब्रह्म उसकी गति को स्थिर न करे !!
चलो भोजन गृहण कर विश्राम कर लो " पर उसने भोजन थाल की तरफ देखा भी नहीं था ,,,, अंततः उन्होने ही स्वयं अपने हाथों से उसे भोजन खिलाया था और उसके शीश पर हाथ रखकर कक्ष से बाहर आकर अपने कक्ष में आ गए थे ।
रात्रि की बेला हो गई थी ,माँ अपने कक्ष में ही बैठी हुई भोलेनाथ को भज रही थीं ,, प्रमोद से अपना भोजन उन्होने अपने कक्ष में ही मँगवा लिया था ।
उन्होने माँ के कक्ष में जाकर उनसे विनय की थी -"माँ पुत्री वत्सला के संग भोजन कर लो चलकर ,उसे भी अच्छा प्रतीत हो ,, माँ तुम्हें तो भली-भाँति ज्ञात है कि जब एक पौधा एक जगह से निकाल कर दूसरी जगह रोपा जाता है तो उसे विशेष ध्यान की ,देखरेख की आवश्यकता होती है तभी वो पनप पाता है वरना कुम्हला जाता है ,,,,
अपने पितृगृह से आई बेटी भी उसी पौधे के समान होती हैं जिन्हें हमें विशेष देख-रेख और स्नेह व अपनेपन की धूप,खाद व पानी देना होता है ,,,
तुम पुत्री वत्सला से यूँ रुष्ट रहकर उससे स्नेह वार्तालाप करने का प्रथम प्रयास न करोगी तो वो सहमी ही रहेगी और ....बस कर सरस्वती!! माँ ने उनकी बात को मध्य में ही स्थगित कर कहा था -" जिस बंधन की नींव की ईंट ही कष्ट दे गई हो उस बंधन से स्नेह संबंध की इमारत कैसे खडी़ हो सकती है !!
और फिर तूने जो किया वो अक्षम्य है ,,, अरे तुझे न ज्ञात है कि इसका परिणाम क्या होगा !! तुझे तो अपने मन की करनी थी तूने कर ली तो फिर मेरे कक्ष में मुझसे क्या आशा लेकर आया है !! जा यहाँ से !"
वे माँ के कक्ष से निकल आए थे और उन्हें माँ के कक्ष से निकलकर आते देखकर प्रमोद ने पूछा था -"बाबू साहब , आपका भोजन लगा दूँ और बहू रानी का भोजन उनके कक्ष में देकर आना है क्या !!"
उन्होने प्रमोद की बात का उत्तर न दे पुत्री वत्सला के कक्ष में जाकर उसे अपने साथ लिवाकर फिर प्रमोद से कहा था -"एक भोजन थाल लगाओ,पिता और पुत्री एक थाल में ही खाएंगे ।"...............शेष अगले भाग में।