"वही तो मैं कह रहा हूँ !! आखिर ये नियम किसने और क्यों निर्मित किए !! पति के देवलोक गमन के पश्चात स्त्री के जीवन का रथ संसार मार्ग पर रुक जाता है क्या !!!
नहीं ना !!
वो तो अनवरत तब तक गतिमान रहता है जब तक स्वयं अखिलेश्वर उसे न रोकें ।
पति के देवलोक गमन के पश्चात स्त्री को साज सिंगार का अधिकार न देने का निर्णय कहाँ तक उचित है !!
उसे पतिगमन के पश्चात खुश होने का अधिकार नहीं !! अपने अनुसार जीवन यापन का अधिकार नहीं !!
क्यों !!
और स्त्रियों के साथ ही क्यों !!
अगर यही नियम हैं तो पुरुषों पर भी ये नियम लागू होने चाहिए ,,
मेरी भार्या भी तो देवलोग गमन कर गई तो फिर मुझे भी केशविहीन करना चाहिए !!
मुझे भी सदा श्वेत वस्त्र ही धारण करने चाहिए जो कि मैं धारण ही करता हूँ ।
स्त्रियों और पुरुषों के लिए प्रथक प्रथक नियम क्यों !!
ईश्वर ने तो दोनों में भेद न किया फिर हम भेद करने वाले कौन होते हैं !!!"
बस कर सरस्वती !! ये समय तर्क और वितर्क करने का नहीं !!! शन्नों मौसी विलाप करते हुए चीख कर बोली थीं।
शन्नों मौसी के इस स्वर को सुनकर वे बोले थे --"क्षमा चाहता हूँ मौसी पर मैं इन नियमों को न मानता हूँ और न इसका पालन करने दूँगा ।
आप स्वयं सोचिए -देह तो नश्वर है ,वो तो अपने तय समय पर नष्ट होनी ही है ,, मूल तत्व तो नश्वर देह के भीतर बसे प्राणों की है ,, आत्मा की है जो अजर- अमर है ,,
देवलोक तो आत्मा गई है ,,
हम किसके लिए शोक मना रहे हैं नश्वर देह के विछोह के लिए या आत्मा के विछोह के लिए !!
आत्मा तो अजर अमर है तो वो तो हम सबके साथ ही है ना !!
बस न तब हम आत्मा को देख सकते थे न अब ,,,
बाबू के रूप में उनकी स्मृतियां,उनका आशीष , हम सबके साथ तो है तो रुदन किस बात का !!!
न कोई किसी के साथ आया है और न ही किसी के साथ गमन करेगा ,,सबको अकेले ही जाना है फिर शोक क्यों !!
पतिगमन के पश्चात स्त्री के जीवन से रंग छीन लेना ,उसे केशविहीन कर देना , क्या उचित है !!मेरी समझ से तो कदापि नहीं !!
"बस !!! अपनी समझ अपने पास रख सरस्वती !!हम तेरे इतने न समझदार हैं और न ही बनना चाहते हैं !! जो सदियों से चला आ रहा है वही हो रहा है और उसमें दखल न दे !!जा यहाँ से !!!" अब केशविहीन होती हुई माँ चीख पडी़ थीं और वे विवश होकर वागीष को लिए वहां से अपने कक्ष में प्रस्थान कर गए थे ।जो हो रहा था उसे रोकना,बदलना उनके वश में न था ।
कुछ दिवस रहने के पश्चात शन्नों मौसी व चपला अपने गृह प्रस्थान कर गई थीं । वागीष के प्रति अपने कर्तव्य वहन की वजह से वे संगीत शाला भी न जा पाए थे ।
इधर वे समझ न पा रहे थे कि वागीष को सँभालने के साथ साथ वे संगीतशाला पर कैसे ध्यान दें !!
उधर माँ के मन में कुछ और ही चल रहा था ।उस संध्या वे अपने कक्ष में वागीष को अपने कंधे पर थपकी देते चिंतन कर रहे थे कि कैसे मैं सब करूँ !!
धन्य होती हैं औरतें जो गृह की जिम्मेदारी सँभालने के साथ साथ अन्य भी बहुत से कार्य बखूबी निभा लेती हैं ।
तभी माँ का उनके कक्ष में आगमन हुआ था ।
माँ ने उनके समीप आकर उनसे कहा था --"सरस्वती ,, वागीष को मुझे दे ,,,, वागीष को मैं सँभालूँगी , तू उसे अपने समान संगीतज्ञ बनाने का विचार भी मन में न लाना !!
तूने अपने मन का किया मगर वागीष पर तेरे मन का न चलने दूँगी ,,, मेरा पोता वही करेगा जो मैं चाहती हूँ ,, उसे ये सारेगामापा धानीसा न करने दूँगी ,,, समझ रहा है न तू !!"और वे वागीष को लेकर उनके कक्ष से गमन कर गई थीं ।
और वे देखते रह गए थे ।
अब वे पूर्वत अपने संगीतशाला जाने लगे थे और माँ अपने हिसाब से वागीष का लालन-पालन कर रही थीं ।
समय का पहिया कैसे इतनी शीघ्रता से आगे बढ़ता जा रहा था ।
वागीष अपने बाल्यकाल से युवावस्था में प्रवेश करता अपने जीवन पथ पर बढ़ता जा रहा था ।
माँ उसे शिवा पुकारती थीं ,उसकी आस्था शिव चरणों में उन्होने जागृत की थी और अपने भोलेनाथ और वागीष के साथ माँ खुशी खुशी जीवनयापन कर रही थीं और वे संगीतशाला में अनेकानेक शिष्यों व शिष्याओं को संगीत की शिक्षा देकर अपना धेय की पूर्ति कर रहे थे ।
वागीष की शिक्षा दीक्षा पूर्ण हो चुकी थी और वो अध्यापक के पद पर नियुक्त हो पूर्ण तत्परता से अपना कर्तव्य निभाने में रत था और उसके विवाह के रिश्ते आने भी प्रारंभ हो गए थे ।
और फिर देखते ही देखते उसका विवाह एक संभ्रांत परिवार की बेटी से तय हो गया था ।
सुजान बाबू अपने शहर के जाने माने वैद्य थे ।उनका हाथ बहुत यशी था ,लोगों को उनकी वैदगी से लाभ मिलता था सो उनका दूर दूर तक नाम हो गया था ।
वे अपनी पुत्री वत्सला के लिए उनके द्वार पर पधारे थे ।उन्हें माँ के द्वारा सूचना मिल गई थी और वे संगीत शाला से गृह आ गए थे ।
आवभगत के बाद परस्पर परिचय हुआ था जिसके द्वारा पता चला था कि वत्सला उनकी इकलौती बेटी है जिसे उन्होने शिक्षित भी किया था ।उन्हें भी ज्ञात हुआ था कि उनके भी इकलौता पुत्र ही है और कोई संतान नहीं है ।विवाह की बात हो रही थी मगर
पता नहीं क्यों उन्हें ऐसा आभास हो रहा था कि वे कुछ चिंतित से हो गए हैं ,कुछ कहना चाहते हैं मगर कह न पा रहे हैं ।
उन्होने पूछा भी था कि सुजान बाबू मन में किसी भी प्रकार की कोई दुविधा हो तो उसे कह दें मगर वो कुछ कह न पाए थे और पुनः वार्तालाप के लिए भेंट करने का कहकर विदा ले लिए थे ।