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बहू की विदाई -भाग 7

1 जून 2023

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"वही तो मैं कह रहा हूँ !! आखिर ये नियम किसने और क्यों निर्मित किए !! पति के देवलोक गमन के पश्चात स्त्री के जीवन का रथ संसार मार्ग पर रुक जाता है क्या !!!
नहीं ना !! 
वो तो अनवरत तब तक गतिमान रहता है जब तक स्वयं अखिलेश्वर उसे न रोकें ।
पति के देवलोक गमन के पश्चात स्त्री को साज सिंगार का अधिकार न देने का निर्णय कहाँ तक उचित है !!
उसे पतिगमन के पश्चात खुश होने का अधिकार नहीं !! अपने अनुसार जीवन यापन का अधिकार नहीं !! 
क्यों !!
और स्त्रियों के साथ ही क्यों !! 


अगर यही नियम हैं तो पुरुषों पर भी ये नियम लागू होने चाहिए ,, 
मेरी भार्या भी तो देवलोग गमन कर गई तो फिर मुझे भी केशविहीन करना चाहिए !!
मुझे भी सदा श्वेत वस्त्र ही धारण करने चाहिए जो कि मैं धारण ही करता हूँ ।
स्त्रियों और पुरुषों के लिए प्रथक प्रथक नियम क्यों !!
ईश्वर ने तो दोनों में भेद न किया फिर हम भेद करने वाले कौन होते हैं !!!"
बस कर सरस्वती !! ये समय तर्क और वितर्क करने का नहीं !!! शन्नों मौसी विलाप करते हुए चीख कर बोली थीं।


शन्नों मौसी के इस स्वर को सुनकर वे बोले थे --"क्षमा चाहता हूँ मौसी पर मैं इन नियमों को न मानता हूँ और न इसका पालन करने दूँगा ।
आप स्वयं सोचिए -देह तो नश्वर है ,वो तो अपने तय समय पर नष्ट होनी ही है ,, मूल तत्व तो नश्वर देह के भीतर बसे प्राणों की है ,, आत्मा की है जो अजर- अमर है ,, 
देवलोक तो आत्मा गई है ,, 
हम किसके लिए शोक मना रहे हैं नश्वर देह के विछोह के लिए या आत्मा के विछोह के लिए !!
आत्मा तो अजर अमर है तो वो तो हम सबके साथ ही है ना !! 
बस न तब हम आत्मा को देख सकते थे न अब ,,, 
बाबू के रूप में उनकी स्मृतियां,उनका आशीष , हम सबके साथ तो है तो रुदन किस बात का !!!
न कोई किसी के साथ आया है और न ही किसी के साथ गमन करेगा ,,सबको अकेले ही जाना है फिर शोक क्यों !!
पतिगमन के पश्चात  स्त्री के जीवन से रंग छीन लेना ,उसे केशविहीन कर देना , क्या उचित है !!मेरी समझ से तो कदापि नहीं !!

"बस !!! अपनी समझ अपने पास रख सरस्वती !!हम तेरे इतने न समझदार हैं और न ही बनना चाहते हैं !! जो सदियों से चला आ रहा है वही हो रहा है और उसमें दखल न दे !!जा यहाँ से !!!" अब केशविहीन होती हुई माँ चीख पडी़ थीं और वे विवश होकर वागीष को लिए वहां से अपने कक्ष में प्रस्थान कर गए थे ।जो हो रहा था उसे रोकना,बदलना उनके वश में न था ।
कुछ दिवस रहने के पश्चात शन्नों मौसी व चपला अपने गृह प्रस्थान कर गई थीं । वागीष के प्रति अपने कर्तव्य वहन की वजह से वे संगीत शाला भी न जा पाए थे ।
इधर वे समझ न पा रहे थे कि वागीष को सँभालने के साथ साथ वे संगीतशाला पर कैसे ध्यान दें !! 
उधर माँ  के मन में कुछ और ही चल रहा था ।उस संध्या वे अपने कक्ष में वागीष को अपने कंधे पर थपकी देते चिंतन कर रहे थे कि कैसे मैं सब करूँ !! 
धन्य होती हैं औरतें जो गृह की जिम्मेदारी सँभालने के साथ साथ अन्य भी बहुत से कार्य बखूबी निभा लेती हैं ।
तभी माँ का उनके कक्ष में आगमन हुआ था ।

माँ ने उनके समीप आकर उनसे कहा था --"सरस्वती ,, वागीष को मुझे दे ,,,, वागीष को मैं सँभालूँगी , तू उसे अपने समान संगीतज्ञ बनाने का विचार भी मन में न लाना !! 
तूने अपने मन का किया मगर वागीष पर तेरे मन का न चलने दूँगी ,,, मेरा पोता वही करेगा जो मैं चाहती हूँ ,, उसे ये सारेगामापा धानीसा न करने दूँगी ,,, समझ रहा है न तू !!"और वे वागीष को लेकर उनके कक्ष से गमन कर गई थीं ।
और वे देखते रह गए थे ।
अब वे पूर्वत अपने संगीतशाला जाने लगे थे और माँ अपने हिसाब से वागीष का लालन-पालन कर रही थीं ।
समय का पहिया कैसे इतनी शीघ्रता से आगे बढ़ता जा रहा था ।
वागीष अपने बाल्यकाल से युवावस्था में प्रवेश करता अपने जीवन पथ पर बढ़ता जा रहा था ।
माँ उसे शिवा  पुकारती थीं ,उसकी आस्था शिव चरणों में उन्होने जागृत की थी और अपने भोलेनाथ और  वागीष के साथ माँ खुशी खुशी जीवनयापन कर रही थीं और वे संगीतशाला में अनेकानेक शिष्यों व शिष्याओं को संगीत की शिक्षा देकर अपना धेय की पूर्ति कर रहे थे ।
वागीष की शिक्षा दीक्षा पूर्ण हो चुकी थी और वो अध्यापक के पद पर नियुक्त हो  पूर्ण तत्परता से अपना कर्तव्य निभाने में रत था और उसके विवाह के रिश्ते आने भी प्रारंभ हो गए थे ।
और फिर देखते ही देखते उसका विवाह एक संभ्रांत परिवार की बेटी से तय हो गया था ।
सुजान बाबू अपने शहर के जाने माने वैद्य थे ।उनका हाथ बहुत यशी था ,लोगों को उनकी वैदगी से लाभ मिलता था सो उनका  दूर दूर तक नाम हो गया था ।
वे अपनी पुत्री वत्सला के लिए उनके द्वार पर पधारे थे ।उन्हें माँ के द्वारा सूचना मिल गई थी और वे संगीत शाला से गृह आ गए थे ।
आवभगत के बाद परस्पर परिचय हुआ था जिसके द्वारा पता चला था कि वत्सला उनकी इकलौती बेटी है जिसे उन्होने शिक्षित भी किया था ।उन्हें भी ज्ञात हुआ था कि उनके भी इकलौता पुत्र ही है और कोई संतान नहीं है ।विवाह की बात  हो रही थी मगर
पता नहीं क्यों उन्हें ऐसा आभास हो रहा था कि वे कुछ चिंतित से हो गए हैं ,कुछ कहना चाहते हैं मगर कह न पा रहे हैं ।
उन्होने पूछा भी था कि सुजान बाबू मन में किसी भी प्रकार की कोई दुविधा हो तो उसे कह दें मगर वो कुछ कह न पाए थे और पुनः वार्तालाप के लिए भेंट करने का कहकर विदा ले लिए थे ।

Berlin

Berlin

बहुत सुंदर

8 जून 2023

20
रचनाएँ
बहू की विदाई
5.0
मैं आप लोगों के लिए एक नई कहानी लेकर आई हूँ-'बहू की विदाई' ।मेरी ये कहानी पूर्णतः काल्पनिक है । एक रुढि़वादी ,दकियानूसी ,व स्त्रियों को अपने से नीचे समझने वाले समाज के एक व्यक्ति द्वारा अपनी बहू के विवाह करने पर मेरी ये कहानी है 'बहू की विदाई' । मेरी इस कहानी का मुख्य पात्र सरस्वती चरण दास अपने इकलौते पुत्र के निधन के पश्चात अपनी बहू का विवाह करता है वो भी अपनी माँ की नाराजगी झेलकर।वो खुली सोच रखता है । कैसे वो अपनी विधवा पुत्रवधू के साथ खडा़ होता है और उसका विवाह करता है ये पढे़ं मेरी कहानी 'बहू की विदाई ' में ।
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बहू की विदाई-भाग 4

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बहू की विदाई-भाग 5

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उस समय विवाह से पूर्व कन्या देखने का चलन न था ।कुण्डली मिलान हो गया था और साढे़ चौंतिस गुण मिल रहे थे और क्या चाहिए था !!सुजान बाबू प्रस्थान कर गए थे मगर उनके मन में बार बार विचार आ रहा था कि सुजान बा

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कुछ घण्टों पश्चात उनके गृह के दरवाजे को किसी ने बहुत तेज खटखटाना प्रारंभ कर दिया था ।उन्होनें चपला से कहा था कि देखो तो जरा बारात आ गई क्या !!और चपला ने दौड़ कर गृह का मुख्य द्वार खोला तो सामने

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बहू की विदाई -भाग 10

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--"वो क्या अपने पति के अंतिम दर्शन करने भी न आएगी !! तू अपनी मनमानी कर रहा है !! उसे यहाँ लेकर आ !!लोकलाज का तो ध्यान दे !! "पुत्र वागीष का अंतिम संस्कार संपन्न करने बाद वे सुजान बाबू के स

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उसे ज्ञात होता है कि ठहराव में जड़ता है और गति में आनंद है !!किसी के गमन से किसी का जीवन न रुकता ,,वो तो यथावत गतिमान रहता है जब तक स्वयं परमब्रह्म उसकी गति को रोकना न चाहें ।अच्छा ,कोई वाहन होता है ज

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आपने मेरी बात न मानी पर मैं अपनी पुत्री के साथ ये सब कदापि न होने दूँगा,,,,न वो केशविहीन होगी और न ही श्वेत वस्त्र धारण करेगी,,वो यहाँ ऐसे ही रहेगी जैसे एक बेटी अपने पिता के गृह में रहती है " माँ से क

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बहू की विदाई -भाग 15

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रात्रि में उन्होने अपना बिस्तर पुत्री वत्सला के कक्ष के बाहर लगवाया था और पुत्री वत्सला से कहा था -"बेटी ,तू निश्चिंत होकर निंद्रागत हो ,तेरे लिए नवगृह है ,नव वातावरण है तो तुझे किसी भी प्रकार का भय न

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ये सब देखकर उन्होने एक निर्णय लिया था और फिर वो संगीतशाला जाते,आते लोगों से मिलने बैठने व वार्तालाप करने लगे थे ।जिससे भी वे अपने लिए गए निर्णय के संबंध में बात करते वो उन्हें हैरान होकर द

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बहू की विदाई-भाग 17

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आपने जो किया वो बहुत प्रशंसनीय कार्य है पर ये रुढिवादी और दकियानूसी समाज कोई भी परिवर्तन स्वीकार करना ही न चाहता है ।" श्री कृष्ण गोपाल स्वामी जी की सहधर्मिणी ने कहा था और वे बोले थे--"ये

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बहू की विदाई-भाग 19

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बहू की विदाई-भाग 20 अंतिम भाग

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"क्यों !क्यों परिवर्तन न होगा !! क्यों सदा स्त्री ही आप लोगों की संकुचित सोच और रुढिवादिता के तले पिसती रहेगी !! " चपला कह ही रही थी कि पीछे से शन्नों मौसी ने उसका हाथ खींचकर कहा था -"तू क्यों नेता बन

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