उस समय विवाह से पूर्व कन्या देखने का चलन न था ।कुण्डली मिलान हो गया था और साढे़ चौंतिस गुण मिल रहे थे और क्या चाहिए था !!
सुजान बाबू प्रस्थान कर गए थे मगर उनके मन में बार बार विचार आ रहा था कि सुजान बाबू किस बात को लेकर संशय में थे !!
अंततः उन्होनें सुजान बाबू के गृह जाकर उनसे मिलने का निर्णय लिया था और अगले दिवस ही सुजान बाबू के गृह पर पहुँच गए थे ।
गृह का दरवाजा एक स्त्री ने खोला था -- सांवला वर्ण, भरा भरा चेहरा , चौडे़ माथे पर बडी़ सी बिंदी , खिचडी़ से केशों में भरा हुआ सिंदूर , हल्की नीली साडी़ में सामने खडी़ स्त्री ने हाथ जोड़कर पूछा था --"जी क्षमा चाहती हूँ ,आप कौन हैं पहचाना नहीं !!किससे भेंट करनी है आपको !!"
वे हाथ जोड़कर बोले थे -"जी मैं सरस्वती चरण दास हूँ ,,सुजान बाबू अपनी कन्या के विवाह का प्रस्ताव लेकर मेरे गृह पधारे थे ,उसी सिलसिले में कुछ वार्तालाप करना था ।"
इतना सुनते ही वो स्त्री ,जो सँभव था कि सुजान बाबू की सहधर्मिणी हो ,वो एक तरफ होकर बोली थी --"जी आइए ,मैं अभी 'इन्हें'बुलाती हूँ " और वो भीतर की तरफ जाने लगी थीं और वो भी उनके पीछे जाने लगे थे ।बैठक में उन्हें बैठाकर वो भीतर के कक्ष में गमन कर गई थी जिसका एक द्वार बैठक में ही खुलता था ।
वो बैठक में आसीन थे और भीतर के कमरे से जो सुजान बाबू व उनकी सहधर्मिणी के स्वर आ रहे थे वे उनके कानों में पड़ रहे थे --- "कहा था न आपसे कि उनके घर किसी के द्वारा पता भिजवा दीजिए कि हमें ये संबंध न करना है मगर आप सुनते ही कहाँ हैं !! अब देख लीजिए ये यहाँ आ गए !! अब इन्हें स्पष्ट बता दें जाकर ,,हमारी एकलौती पुत्री है और ये ,,, इनके बेटी नहीं है ,,तो ये क्या हमारी बेटी को अपने यहाँ सही से रख पाएंगे !! और इनके घर में इनके अतिरिक्त इनकी माँ ही तो हैं ,,ये तो संगीतशाला चले जाएंगे ,,रह जाएगी मेरी बेटी और इनकी माँ ,, मेरी बेटी को बिन बेटी वाले घर में सुख मिल भी पाएगा या नहीं !!
बस भी करो तुम !! अरे ये महान संगीतज्ञ हैं ,दो चार जिलों में इनका नाम है ,बहुत संभ्रांत परिवार है और ये भी बहुत नेकदिल इंसान हैं ऐसा लोगों द्वारा सुना है ,,,अपनी बेटी वहाँ बहुत सुखी रहेगी ,, मैं बात करके आता हूँ ,तुम पर्दे की ओट से शीतल जल व मिष्ठान्न दे देना " सुजान बाबू कहते हुए बाहर आ गए थे और हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया था ।
उनके चेहरे पर दुविधा के भाव आ रहे थे जो ये संकेत दे रहे थे कि वो उनके यहाँ अपनी बेटी को ब्याहें या नहीं तय न कर पा रहे हैं ,एक ऊहापोह की स्थिति में हैं ।
वे उन्हें बताना उचित न समझते थे कि आप लोगों के वार्तालाप का स्वर बाहर तक आने के कारण वो न चाहते हुए भी सुन लिए हैं ,अतः उन्होने उनसे ही पूछना श्रेयस्कर समझा था और उनके घुटने पर हाथ रखकर पूछा था --"सुजान बाबू , जो भी बात हो वो स्पष्ट कर दें ताकि मुझे भी एक राह मिल सके !!"
सुजान बाबू की आँखें डबडबा गई थीं जिससे ये प्रतीत हो रहा था कि ये अपनी बेटी का विवाह उनके पुत्र से करना तो चाहते हैं मगर बेटी के सुख के प्रति आश्वस्त न हैं ।
सुजान बाबू कुछ बोलने ही वाले थे कि भीतर से उनकी सहधर्मिणी ने शीतल जल व मिष्ठान्न पकडा़या था और सुजान बाबू ने अपनी जीवनसंगिनी से लेकर उनके समक्ष रख दिया था ।
वो उनकी आँखें पढ़ने का प्रयास करने लगे थे ।कुछ क्षण वातावरण में निस्तब्धता पसर गई थी पर उसके पश्चात उनके पुनः पूछने पर उन्होनें अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा था -- "आपके यहाँ अपनी बेटी का विवाह करना चाहता हूँ किन्तु,, ,,,"
"किन्तु क्या सुजान बाबू !!" वे उनकी आँखों में आँखें डालकर पुनः पूछने लगे थे और फिर सुजान बाबू आगे बोले थे --" किन्तु आपके बेटी नहीं है तो,,,,"कहते कहते सुजान बाबू रुक गए थे ।
"समझ गया आप क्या कहना चाहते हैं !!आपको ये लगता है कि मैं बेटी का बाप न हूँ तो बेटी की कदर करना न जानता होंगा ,पर आपको एक बात बता दूँ कि भले ही मैं बेटी का बाप न हूँ पर आपको वचन देता हूँ कि आपकी बेटी को बेटी ही मानकर उसकी हर सुख व सुविधा का ध्यान रखूँगा ,उसका श्वसुर बनकर नहीं पिता बनकर उसे वात्सल्य दूँगा ,मेरे लिए जैसा मेरा वागीष वैसे ही आपकी पुत्री होगी ,फिर भी आप मुझपर या मेरे दिए गए वचन पर विश्वास न कर सकें तो फिर मेरे लिए जो आज्ञा हो वो बताएं !!"
उनके द्वारा इतना सुनने के पश्चात सुजान बाबू उनके करबद्ध हाथों को अपने हाथों में लेकर अश्रुपूरित आँखों से बोले थे --" विवाह की तारीख निकलवा कर आपको सूचित करता हूँ ।"
इंसान कितना मूर्ख होता है जो वो सोचता है कि उसने जो सोचा वो होगा ,,वो ये विस्मृत कर देता है कि होता वो है जो ईश्वर चाहता है और ईश्वर तो कुछ और ही चाहे बैठा था।
वे गृह आगमन कर गए थे और कुछ दिवस पश्चात विवाह की तारीख निकल आई थी और दोनों पक्ष की ओर विवाह के आयोजन की तैयारियां प्रारंभ हो गई थीं ।
वो दिवस भी आ गया था जब उनका पुत्र वागीष घोडी़ चढ़ रहा था और माँ बलाएं ले रही थी ।
वे वागीष और अन्य लोग सब बारात लेकर तय समय पर सुजान बाबू के द्वार पहुँच गए थे और विवाह के सारे कार्य विधिविधानपूर्वक संपन्न हो गए थे ।
भोर में कलेवा के पश्चात विदाई होने वाली थी ।वे विदाई के पूर्व ही सुजान बाबू के गृह से विदा ले लिए थे ताकि वागीष की गाडी़ पहुँचने से पूर्व अपने गृह पहुँच कर बेटे व बहू का माँ के साथ स्वागत कर सकें ।
यहाँ उनके यहाँ माँ अपने पोते व पोत बहू की आरती के लिए थाल सजा रही थी और वहाँ सुजान बाबू के गृह से वागीष अपने कुछ मित्रों के साथ बहू को लेकर आ रहा था।