ओ सुनील जल! ओ पर्वत की झील! तुम्हारे कर में
कमल पुष्प है या कोई यह रेशम का तकिया है,
जिस पर धर कर सीस रात अप्सरी यहाँ सोई थी
और भाग जो गई प्रात, पौ फटते ही, घबरा कर?
कह सकते हो, रंगपुष्प यह जल पर टिका हुआ है?
अथवा इसके नाल–तन्तु मिट्टी से लगे हुए हैं
वहाँ, जहाँ सब एक रूप है, कोई रंग नहीं है?
उत्तर नहीं? हाय, यों ही मैं भी न बता पाऊँगा,
जम कर मेरे पाँव खड़े हैं किसी ठोस मिट्टी पर
या लहरों में इसी फूल–सा मैं भी डोल रहा हूँ।