shabd-logo

डल झील का कमल

21 फरवरी 2022

34 बार देखा गया 34

ओ सुनील जल! ओ पर्वत की झील! तुम्हारे कर में

कमल पुष्प है या कोई यह रेशम का तकिया है,

जिस पर धर कर सीस रात अप्सरी यहाँ सोई थी

और भाग जो गई प्रात, पौ फटते ही, घबरा कर?

कह सकते हो, रंगपुष्प यह जल पर टिका हुआ है?

अथवा इसके नाल–तन्तु मिट्टी से लगे हुए हैं

वहाँ, जहाँ सब एक रूप है, कोई रंग नहीं है?

उत्तर नहीं? हाय, यों ही मैं भी न बता पाऊँगा,

जम कर मेरे पाँव खड़े हैं किसी ठोस मिट्टी पर

या लहरों में इसी फूल–सा मैं भी डोल रहा हूँ। 

8
रचनाएँ
कोयला और कवित्व
0.0
‘कोयला और कवित्व' में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की सन् साठ के बाद रची गई ऐसी कविताएँ हैं जो अपने आधुनिकता-बोध में पारदर्शी तो हैं 'कोयला और कवित्व' में संकलित कविताएँ अपने आकार में बहुत बड़ी न होकर भी अपनी प्रकृति में बहुत बड़ी हैं। एक बड़े कालखंड से जुड़ी ये कविताएँ परम्परा और अन्तर्विरोधों से गुज़रते हुए जिस संवाद का निर्वाह करती हैं, वह बहुत बड़ी सृजनात्मकता का प्रतीक है।
1

दो शब्द

21 फरवरी 2022
0
0
0

ये कविताएँ पिछले पाँच–छह वर्षों के भीतर रची गई थीं। ज्यादातर सन् ’60 से इधर की ही होंगी। पुस्तक का नाम एक खास कविता के नाम पर है जो पुस्तक के अन्त में आती है। कुछ कविताएँ ऐसी हैं जो पुरानी और नई कवि

2

पुरानी और नई कविताएँ

21 फरवरी 2022
0
0
0

(नो, हिज़ फर्स्टवर्क वाज़ द बेस्ट। ए ज़रा पौंड) दोस्त मेरी पुरानी ही कविताएँ पसन्द करते हैं; दोस्त, और खास कर, औरतें। पुरानी कविताओं में रस है, उमंग है; जीवन की राह वहाँ सीधी, बे–कट

3

ओ नदी!

21 फरवरी 2022
0
0
0

ओ नदी! सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू। किन्तु, दायी कौन? तू होती अगर, यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते; कौंधती रशना कमर में मछलियों की, नागफनियों के न उगते झाड़, तट पर

4

नदी और पीपल

21 फरवरी 2022
0
0
0

मैं वहीं हूँ, तुम जहाँ पहुँचा गए थे। खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी, अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है। दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह व्याप्त हो जाती हवा–सी फैलकर सारे भवन में।

5

बादलों की फटन

21 फरवरी 2022
0
0
0

मैं वहीं हूँ, तुम जहाँ पहुँचा गए थे। खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी, अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है। दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह व्याप्त हो जाती हवा–सी फैलकर सारे भवन में।

6

डल झील का कमल

21 फरवरी 2022
0
0
0

ओ सुनील जल! ओ पर्वत की झील! तुम्हारे कर में कमल पुष्प है या कोई यह रेशम का तकिया है, जिस पर धर कर सीस रात अप्सरी यहाँ सोई थी और भाग जो गई प्रात, पौ फटते ही, घबरा कर? कह सकते हो, रंगपुष्प

7

आज शाम को

21 फरवरी 2022
0
0
0

आज शाम को फिर तुम आए उतर कहीं से मन में बहुत देर कर आने वाले मनमौजी पाहुन–से। लगा, प्राप्त कर तुम्हें गया भर सूनापन कमरे का, गमक उठा एकान्त सुवासित कबरी के फूलों से। लेकिन, सब को कौन खबर

8

सौन्दर्य

21 फरवरी 2022
0
0
0

तुम्हें देखते ही मुझमें कुछ अजब भाव जगता है; भीतर कोई सन्त, खुशी में भर, रोने लगता है। कितनी शुभ्र! पवित्र! नहा कर अभी तुरत आई हो? अथवा किसी देव–मन्दिर से यह शुचिता लाई हो? एकाकिनी नही

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए