shabd-logo

पुरानी और नई कविताएँ

21 फरवरी 2022

36 बार देखा गया 36

(नो, हिज़ फर्स्टवर्क वाज़ द बेस्ट।

ए ज़रा पौंड)

दोस्त मेरी पुरानी ही कविताएँ पसन्द करते हैं;

दोस्त, और खास कर, औरतें।

पुरानी कविताओं में रस है, उमंग है;

जीवन की राह वहाँ सीधी, बे–कटीली है;

सरिताएँ जितनी हैं, फूलों की छाँह में हैं;

सागर में नीलिमा है, चंचल तरंग है।

पुरुष बड़े ही पुरजोर हैं;

या तो बड़े कोमल हैं अथवा कठोर हैं।

क्रोध में कभी जो नर–नाहर ये बोलते हैं;

भूमि काँपती है, कोल–कमठ कलमल होते,

दिग्गज दहाड़ते, समस्त शैल डोलते हैं।

नारियाँ बड़ी ही अनमोल हैं;

नख–सिख तक नपी–तुली,

ठीक–ठीक साँचे में ढली हुई;

चन्दन, कदम्ब और कदली की छाया में

दूध और घी पर पली हुई।

भंगिमा स्वरूप को सँवारती है;

वृत्त की गोलाई, जो भी देखे, उसे मारती है।

तेजी है अनोखी काम–बाण में।

घाव जो लगेंगे कभी प्राण में,

रेखा में कहूँ तो ‘राय जामिनी’ की तूलिका की

चित्रकारी के वे प्रतिमान होंगे

छन्द में कहूँ तो रोला–छप्पय के समान होंगे।

चर्म को न छीलता, न छाँटता है।

काम का पुराना बाण

गोदता नहीं है प्राण,

दोहों के समान नपे–तुले व्रण काटता है।

किन्तु, नई कविता? गणेश जी का नाम लो।

बुद्धि और कल्पना के चैक पै खड़ी हुई

कहती है, बुद्धि ही कशा है, इसे तेज रखो,

कल्पना बढ़े जो तो लगाम जरा थाम लो।

कविता न गर्जन, न सूक्ति है।

वीर का न घोष, न तो वाणी खर चिन्तकों की,

चैंके हुए आदमी की उक्ति है।

कविता न पूर्ति है, न माँग है।

सीढ़ियाँ नहीं हैं कि हरेक पाँव सीधा पड़े,

‘लॉजिक’ नहीं है, य’ छलाँग है।

अर्थ नहीं, काव्य शब्द–योग है।

वासना का कीर्तन नहीं है, खुद वासना है,

रागों का य’ कागजी बखान नहीं, भोग है।

तन्तुओं के जाल शब्द को जो कहीं बाँधते हों,

सारे बन्धनों के तार तोड़ दो;

अर्थ से बचो कि अर्थ बेड़ी है परम्परा की,

अर्थ को दबाने से ही शब्द बड़ा होता है।

निश्चित–अनिश्चित का संगम जहाँ है सूक्ष्म,

कविता का सद्म निरालंब खड़ा होता है।

और वे तरंगमयी नारियाँ?

पुष्ट देहवाली सुकुमारियाँ?

सोची गईं इतनी कि सोच में समा गईं।

स्थूल से निकल सूक्ष्म कल्पना में छा गईं।

नारी अब स्वप्न है, विचार है।

बाहु–पाश में जो कभी दामिनी–सी नाचती थी,

‘साइक’ में करती विहार है।

नारी शक्ति, नारी धूप–छाँव है।

जानना हो विश्व को तो नारियों के प्राण पढ़ो,

भागना हो विश्व से तो नारी तेज नाव है।

और नर भी न नर ठेठ है।

शंकित, सजग, स्याद्वादी, अनेकान्तवादी,

कोई ‘फास्ट’, कोई ‘हैमलेट’ है।

आखिर मनुष्य और क्या करे?

जितना ही ज्यादा हम जानते हैं,

लगता है, आप अपने को उतना ही कम,

उतना ही कम पहचानते हैं।

जितनी ही झाँकी बुद्धि लाती दूर, पार की,

उतने ही जोर से गुफाएँ बन्द गूँजती हैं,

चीखती है कुंजी अनजाने, बन्द द्वार की।

केवल कवित्व ही समर्थ है।

सीढ़ियाँ नहीं हैं जहाँ, सारा तर्क व्यर्थ है।

तब भी समस्या बड़ी गूढ़ है।

हम दोनों में से, राम जानें, कौन मूढ़ है।

भूले भी न मेरी विपदाएँ थाहते हैं दोस्त,

केवल पुरानी कविताएँ चाहते हैं दोस्त,

दोस्त और, खास कर, औरतें। 

8
रचनाएँ
कोयला और कवित्व
0.0
‘कोयला और कवित्व' में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की सन् साठ के बाद रची गई ऐसी कविताएँ हैं जो अपने आधुनिकता-बोध में पारदर्शी तो हैं 'कोयला और कवित्व' में संकलित कविताएँ अपने आकार में बहुत बड़ी न होकर भी अपनी प्रकृति में बहुत बड़ी हैं। एक बड़े कालखंड से जुड़ी ये कविताएँ परम्परा और अन्तर्विरोधों से गुज़रते हुए जिस संवाद का निर्वाह करती हैं, वह बहुत बड़ी सृजनात्मकता का प्रतीक है।
1

दो शब्द

21 फरवरी 2022
0
0
0

ये कविताएँ पिछले पाँच–छह वर्षों के भीतर रची गई थीं। ज्यादातर सन् ’60 से इधर की ही होंगी। पुस्तक का नाम एक खास कविता के नाम पर है जो पुस्तक के अन्त में आती है। कुछ कविताएँ ऐसी हैं जो पुरानी और नई कवि

2

पुरानी और नई कविताएँ

21 फरवरी 2022
0
0
0

(नो, हिज़ फर्स्टवर्क वाज़ द बेस्ट। ए ज़रा पौंड) दोस्त मेरी पुरानी ही कविताएँ पसन्द करते हैं; दोस्त, और खास कर, औरतें। पुरानी कविताओं में रस है, उमंग है; जीवन की राह वहाँ सीधी, बे–कट

3

ओ नदी!

21 फरवरी 2022
0
0
0

ओ नदी! सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू। किन्तु, दायी कौन? तू होती अगर, यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते; कौंधती रशना कमर में मछलियों की, नागफनियों के न उगते झाड़, तट पर

4

नदी और पीपल

21 फरवरी 2022
0
0
0

मैं वहीं हूँ, तुम जहाँ पहुँचा गए थे। खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी, अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है। दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह व्याप्त हो जाती हवा–सी फैलकर सारे भवन में।

5

बादलों की फटन

21 फरवरी 2022
0
0
0

मैं वहीं हूँ, तुम जहाँ पहुँचा गए थे। खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी, अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है। दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह व्याप्त हो जाती हवा–सी फैलकर सारे भवन में।

6

डल झील का कमल

21 फरवरी 2022
0
0
0

ओ सुनील जल! ओ पर्वत की झील! तुम्हारे कर में कमल पुष्प है या कोई यह रेशम का तकिया है, जिस पर धर कर सीस रात अप्सरी यहाँ सोई थी और भाग जो गई प्रात, पौ फटते ही, घबरा कर? कह सकते हो, रंगपुष्प

7

आज शाम को

21 फरवरी 2022
0
0
0

आज शाम को फिर तुम आए उतर कहीं से मन में बहुत देर कर आने वाले मनमौजी पाहुन–से। लगा, प्राप्त कर तुम्हें गया भर सूनापन कमरे का, गमक उठा एकान्त सुवासित कबरी के फूलों से। लेकिन, सब को कौन खबर

8

सौन्दर्य

21 फरवरी 2022
0
0
0

तुम्हें देखते ही मुझमें कुछ अजब भाव जगता है; भीतर कोई सन्त, खुशी में भर, रोने लगता है। कितनी शुभ्र! पवित्र! नहा कर अभी तुरत आई हो? अथवा किसी देव–मन्दिर से यह शुचिता लाई हो? एकाकिनी नही

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए