ओ नदी!
सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।
किन्तु, दायी कौन?
तू होती अगर,
यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते;
कौंधती रशना कमर में मछलियों की,
नागफनियों के न उगते झाड़,
तट पर दूब होती, फूल होते,
देखतीं, निज रूप जल में नारियाँ,
पाँव मल–मल घाट पर लक्तक बहा कर
तैरतीं तुझ में उतर सुकुमारियाँ।
किलकते फिरते तटों पर फूल–से बच्चे,
वहन करती अछूते अंकुरों के स्वप्न का संभार
कागज की जरा–सी डोंगियाँ तिरतीं लहर पर।
और हिल–डुल कर वहीं फिर डूब जातीं।
तीर पर उठतीं किलक किलकारियाँ,
नाचते बच्चे बजा कर तालियाँ,
द्वीप पर नौसार्थ, मानो, आ गया हो,
स्वप्न था भेजा जिसे, मानो, उसे वह पा गया हो।
द्रोणियों पर दीप बहते रात के पहले पहर में,
हेम की आभामयी लड़ियाँ हृदय पर जगमगातीं,
जगमगाते गीत हैं जैसे समय की धार पर।
किन्तु, अब सब झूठय तारे तो गगन में हैं,
मगर, पानी कहाँ जिसमें जरा वे झिलमिलाएँ?
तू गई, जादू जहर का चल गया,
कूल का सौन्दर्य सारा जल गया।
और जीवित ही खड़ी तू मुस्कुराती है अभी भी?
फूल जब मुरझा रहे थे, क्यों तुझे मूर्च्छा न आई?
क्यों नहीं, हरियालियाँ मरने लगीं, तब मर गई तू?
ओ नदी!
सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।