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दिल्ली और मास्को

14 फरवरी 2022

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(1)

जय विधायिके अमर क्रान्ति की! अरुण देश की रानी!

रक्त-कुसुम-धारिणि! जगतारिणि! जय नव शिवे! भवानी!

अरुण विश्व की काली, जय हो,

लाल सितारोंवाली, जय हो,

दलित, बुभुक्षु, विषण्ण मनुज की,

शिखा रुद्र मतवाली, जय हो।

जगज्ज्योति, जय-जय, भविष्य की राह दिखानेवाली,

जय समत्व की शिखा, मनुज की प्रथम विजय की लाली।

भरे प्राण में आग, भयानक विप्लव का मद ढाले,

देश-देश में घूम रहे तेरे सैनिक मतवाले।

नगर-नगर जल रहीं भट्ठियाँ,

घर-घर सुलग रही चिनगारी;

यह आयोजन जगद्दहन का,

यह जल उठने की तैयारी;

देश देश में शिखा क्षोभ की

उमड़-घुमड़ कर बोल रही है;

लरज रहीं चोटियाँ शैल की,

धरती क्षण-क्षण डोल रही है।

ये फूटे अंगार, कढ़े अंबर में लाल सितारे,

फटी भूमि, वे बढ़े ज्योति के लाल-लाल फव्वारे।

बंध, विषमता के विरुद्ध सारा संसार उठा है।

अपना बल पहचान, लहर कर पारावार उठा है।

छिन्न-भिन्न हो रहीं मनुजता के बन्धन की कड़ियाँ,

देश-देश में बरस रहीं आजादी की फुलझड़ियाँ।

(2)

एक देश है जहाँ विषमता

से अच्छी हो रही गुलामी,

जहाँ मनुज पहले स्वतंत्रता

से हो रहा साम्य का कामी।

भ्रमित ज्ञान से जहाँ जाँच हो

रही दीप्त स्वातंत्र्य-समर की,

जहाँ मनुज है पूज रहा जग को,

बिसार सुधि अपने घर की।

जहाँ मृषा संबंध विश्व-मानवता

से नर जोड़ रहा है,

जन्मभूमि का भाग्य जगत की

नीति-शिला पर फोड़ रहा है।

चिल्लाते हैं "विश्व, विश्व" कह जहाँ चतुर नर ज्ञानी,

बुद्धि-भीरु सकते न डाल जलते स्वदेश पर पानी।

जहाँ मासको के रणधीरों के गुण गाये जाते,

दिल्ली के रुधिराक्त वीर को देख लोग सकुचाते।

(3)

दिल्ली, आह, कलंक देश की,

दिल्ली, आह, ग्लानि की भाषा,

दिल्ली, आह, मरण पौरुष का,

दिल्ली, छिन्न-भिन्न अभिलाषा।

विवश देश की छाती पर ठोकर की एक निशानी,

दिल्ली, पराधीन भारत की जलती हुई कहानी।

मरे हुओं की ग्लानि, जीवितों को रण की ललकार,

दिल्ली, वीरविहीन देश की गिरी हुई तलवार।

बरबस लगी देश के होठों

से यह भरी जहर की प्याली,

यह नागिनी स्वदेश-हृदय पर

गरल उँड़ेल लोटनेवाली।

प्रश्नचिह्न भारत का, भारत के बल की पहचान,

दिल्ली राजपुरी भारत की, भारत का अपमान।

(4)

ओ समता के वीर सिपाही,

कहो, सामने कौन अड़ी है?

बल से दिए पहाड़ देश की

छाती पर यह कौन पड़ी है?

यह है परतंत्रता देश की,

रुधिर देश का पीनेवाली;

मानवता कहता तू जिसको

उसे चबाकर जीनेवाली।

यह पहाड़ के नीचे पिसता

हुआ मनुज क्या प्रेय नहीं है?

इसका मुक्ति-प्रयास स्वयं ही

क्या उज्ज्वलतम श्रेय नहीं है?

यह जो कटे वीर-सुत माँ के

यह जो बही रुधिर की धारा,

यह जो डोली भूमि देश की,

यह जो काँप गया नभ सारा;

यह जो उठी शौर्य की ज्वाला, यह जो खिला प्रकाश;

यह जो खड़ी हुई मानवता रचने को इतिहास;

कोटि-कोटि सिंहों की यह जो उट्ठी मिलित, दहाड़;

यह जो छिपे सूर्य-शशि, यह जो हिलने लगे पहाड़।

सो क्या था विस्फोट अनर्गल?

बाल-कूतुहल? नर-प्रमाद था?

निष्पेषित मानवता का यह

क्या न भयंकर तूर्य-नाद था?

इस उद्वेलन--बीच प्रलय का

था पूरित उल्लास नहीं क्या?

लाल भवानी पहुँच गई है

भरत-भूमि के पास नहीं क्या?

फूट पड़ी है क्या न प्राण में नये तेज की धारा?

गिरने को हो रही छोड़कर नींव नहीं क्या कारा?

ननपति के पद में जबतक है बँधी हुई जंजीर,

तोड़ सकेगा कौन विषमता का प्रस्तर-प्राचीर?

(5)

दहक रही मिट्टी स्वदेश की,

खौल रहा गंगा का पानी;

प्राचीरों में गरज रही है

जंजीरों से कसी जवानी।

यह प्रवाह निर्भीक तेज का,

यह अजस्र यौवन की धारा,

अनवरुद्ध यह शिखा यज्ञ की,

यह दुर्जय अभियान हमारा।

यह सिद्धाग्नि प्रबुद्ध देश की जड़ता हरनेवाली,

जन-जन के मन में बन पौरुष-शिखा बिहरनेवाली।

अर्पित करो समिध, आओ, हे समता के अभियानी!

इसी कुंड से निकलेगी भारत की लाल भवानी।

(6)

हाँ, भारत की लाल भवानी,

जवा-कुसुम के हारोंवाली,

शिवा, रक्त-रोहित-वसना,

कबरी में लाल सितारोंवाली।

कर में लिए त्रिशूल, कमंडल,

दिव्य शोभिनी, सुरसरि-स्नाता,

राजनीति की अचल स्वामिनी,

साम्य-धर्म-ध्वज-धर की माता।

भरत-भूमि की मिट्टी से श्रृंगार सजानेवाली,

चढ़ हिमाद्रिपर विश्व-शांति का शंख बजानेवाली।

(7)

दिल्ली का नभ दहक उठा, यह--

श्वास उसी कल्याणी का है।

चमक रही जो लपट चतुर्दिक,

अंचल लाल भवानी का है।

खोल रहे जो भाव वह्निमय,

ये हैं आशीर्वाद उसीके,

’जय भारत’ के तुमुल रोर में

गुँजित संगर-नाद उसीके।

दिल्ली के नीचे मर्दित अभिमान नहीं केवल है,

दबा हुआ शत-लक्ष नरों का अन्न-वस्त्र, धन-बल है।

दबी हुई इसके नीचे भारत की लाल भवानी,

जो तोड़े यह दुर्ग, वही है समता का अभियानी।

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रचनाएँ
सामधेनी
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'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
1

अचेतन मृत्ति, अचेतन शिला

14 फरवरी 2022
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(1) रुक्ष दोनों के वाह्य स्वरूप, दृश्य-पट दोनों के श्रीहीन; देखते एक तुम्हीं वह रूप जो कि दोनों में व्याप्त, विलीन, ब्रह्म में जीव, वारि में बूँद, जलद में जैसे अगणित चित्र। (2) ग्रहण क

2

तिमिर में स्वर के बाले दीप, आज फिर आता है कोई

14 फरवरी 2022
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तिमिर में स्वर के बाले दीप, आज फिर आता है कोई। ’हवा में कब तक ठहरी हुई रहेगी जलती हुई मशाल? थकी तेरी मुट्ठी यदि वीर, सकेगा इसको कौन सँभाल?’ अनल-गिरि पर से मुझे पुकार, राग यह गाता है कोई। ह

3

निःशेष बीन का एक तार था मैं ही

14 फरवरी 2022
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(1) ओ अशेष! निःशेष बीन का एक तार था मैं ही! स्वर्भू की सम्मिलित गिरा का एक द्वार था मैं ही! तब क्यों बाँध रखा कारा में? कूद अभय उत्तुंग शृंग से बहने दिया नहीं धारा में। लहरों की खा चोट गरजता;

4

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है

14 फरवरी 2022
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वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है; थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है। (1) चिनगारी बन गई लहू की बूँद गिरी जो पग से; चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण-चिह्न जगमग-से। शुरू हुई आराध्य-भ

5

बटोही, धीरे-धीरे गा

14 फरवरी 2022
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बटोही, धीरे-धीरे गा। बोल रही जो आग उबल तेरे दर्दीले सुर में, कुछ वैसी ही शिखा एक सोई है मेरे उर में। जलती बत्ती छुला, न यह निर्वाषित दीप जला। बटोही, धीरे-धीरे गा। फुँकी जा रही रात, दाह से झ

6

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद

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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख मनु को

7

जा रही देवता से मिलने?

14 फरवरी 2022
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जा रही देवता से मिलने? तो इतनी कृपा किये जाओ। अपनी फूलों की डाली में दर्पण यह एक लिये जाओ। आरती, फूल, फल से प्रसन्न जैसे हों, पहले, कर लेना, जब हाल धरित्री का पूछें, सम्मुख दर्पण यह धर देना।

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अन्तिम मनुष्य

14 फरवरी 2022
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सारी दुनिया उजड़ चुकी है, गुजर चुका है मेला; ऊपर है बीमार सूर्य नीचे मैं मनुज अकेला। बाल-उमंगों से देखा था मनु ने जिसे उभरते, आज देखना मुझे बदा था उसी सृष्टि को मरते। वृद्ध सूर्य की आँखों

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हे मेरे स्वदेश!

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छिप जाऊँ कहाँ तुम्हें लेकर? इस विष का क्या उपचार करूँ? प्यारे स्वदेश! खाली आऊँ? या हाथों में तलवार धरूँ? पर, हाय, गीत के खड्ग! धार उनकी भी आज नहीं चलती, जानती जहर का जो उतार, मुझ में वह शिखा

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अतीत के द्वार पर

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'जय हो’, खोलो अजिर-द्वार मेरे अतीत ओ अभिमानी! बाहर खड़ी लिये नीराजन कब से भावों की रानी! बहुत बार भग्नावशेष पर अक्षत-फूल बिखेर चुकी; खँडहर में आरती जलाकर रो--रो तुमको टेर चुकी। वर्तमान का

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प्रतिकूल

14 फरवरी 2022
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(1) है बीत रहा विपरीत ग्रहों का लग्न-याम; मेरे उन्मादक भाव, आज तुम लो विराम। उन्नत सिर पर जब तक हो शम्पा का प्रहार, सोओ तब तक जाज्वल्यमान मेरे विचार। तब भी आशा मत मरे, करे पीयूष-पान; वह जिये

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आग की भीख

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(1) धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा, कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा। कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है; मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है? दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,

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दिल्ली और मास्को

14 फरवरी 2022
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(1) जय विधायिके अमर क्रान्ति की! अरुण देश की रानी! रक्त-कुसुम-धारिणि! जगतारिणि! जय नव शिवे! भवानी! अरुण विश्व की काली, जय हो, लाल सितारोंवाली, जय हो, दलित, बुभुक्षु, विषण्ण मनुज की, शिखा रुद्र

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सरहद के पार से

14 फरवरी 2022
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जन्मभूमि से दूर, किसी बन में या सरित-किनारे, हम तो लो, सो रहे लगाते आजादी के नारे। ज्ञात नहीं किनको कितने दुख में हम छोड़ चले हैं, किस असहाय दशा में किनसे नाता तोड़ चले हैं। जो रोयें, तुम उन्ह

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फलेगी डालों में तलवार

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(1) धनी दे रहे सकल सर्वस्व, तुम्हें इतिहास दे रहा मान; सहस्रों बलशाली शार्दूल चरण पर चढ़ा रहे हैं प्राण। दौड़ती हुई तुम्हारी ओर जा रहीं नदियाँ विकल, अधीर करोड़ों आँखें पगली हुईं, ध्यान में झ

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जवानी का झण्डा

14 फरवरी 2022
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घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ आ गया देख, ज्वाला का बान; खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा, ओ मेरे देश के नौजवान! (1) सहम करके चुप हो गये थे समुंदर अभी सुन के तेरी दहाड़, जमीं हिल रही थी, जहाँ हिल रहा था,

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जवानियाँ

14 फरवरी 2022
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नये सुरों में शिंजिनी बजा रहीं जवानियाँ लहू में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ। (1) प्रभात-श्रृंग से घड़े सुवर्ण के उँड़ेलती; रँगी हुई घटा में भानु को उछाल खेलती; तुषार-जाल में सहस्र हेम-दीप बालती,

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जयप्रकाश

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झंझा सोई, तूफान रुका, प्लावन जा रहा कगारों में; जीवित है सबका तेज किन्तु, अब भी तेरे हुंकारों में। दो दिन पर्वत का मूल हिला, फिर उतर सिन्धु का ज्वार गया, पर, सौंप देश के हाथों में वह एक नई तल

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राही और बाँसुरी

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राही सूखी लकड़ी! क्यों पड़ी राह में यों रह-रह चिल्लाती है? सुर से बरसा कर आग राहियों का क्यों हृदय जलाती है? यह दूब और वह चन्दन है; यह घटा और वह पानी है? ये कमल नहीं हैं, आँखें हैं; वह बादल

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साथी

14 फरवरी 2022
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उसे भी देख, जो भीतर भरा अंगार है साथी। (1) सियाही देखता है, देखता है तू अन्धेरे को, किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को। उसे भी देख, जो इस बाहरी तम को बहा सकती, दबी तेरे लहू में रौशनी की धार

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