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देवता हैं नहीं

21 फरवरी 2022

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 देवता हैं नहीं,    

तुम्हें दिखलाऊँ कहाँ ? 

सूना है सारा आसमान, 

धुएँ में बेकार भरमाऊँ कहाँ ? 



इसलिए, कहता हूँ, 

जहाँ भी मिले मौज, ले लो । 

जी चाहता हो तो टेनिस खेलो 

या बैठ कर घूमो कार में 

पार्कों के इर्द-गिर्द अथवा बाजार में । 

या दोस्तों के साथ मारो गप्प, 

सिगरेट पियो । 

तुम जिसे मौज मानते हो,
उसी मौज से जियो । 

मस्ती को धूम बन छाने दो, 

उँगली पर पीला-पीला दाग पड़ जाने दो । 


लेकिन, देवता हैं नहीं, 

तुम्हारा जो जी चाहे, करो । 

फूलों पर लोटो 

या शराब के शीशे में डूब मरो । 


मगर, मुझ अकेला छोड़ दो । 

मैं अकेला ही रहूँगा । 

और बातें जो मन पर बीतती हैं, 

उन्हें अवश्य कहूँगा । 


मसलन, इस कमरे में कौन है 

जिसकी वजह से हवा ठंडी है, 

चारों ओर छायी शान्ति मौन है ? 

कौन यह जादू करता है ? 

मुझमें अकारण आनन्द भरता है । 


कौन है जो धीरे से 

मेरे अन्तर को छूता है ? 

किसकी उँगलियों से 

पीयूष यह चूता है ? 



दिल की धड़कनों को 

यह कौन सहलाता है ? 

अमृत की लकीर के समान 

हृदय में यह कौन
आता-जाता है ? 



 

कौन है जो मेरे बिछावन
की चादर को 

इस तरह चिकना गया है, 

उस शीतल, मुलायम समुद्र के समान 

बना गया है, 

जिसके किनारे, जब रात होती है 

मछलियाँ सपनाती हुई सोती हैं ? 

 

कौन है, जो मेरे थके पावों को 

धीरे-धीरे सहलाता और मलता है, 

इतनी देर कि थकन उतर जाए, 

प्राण फिर नयी संजीवनी से भर जाए ? 

 

अमृत में भींगा हुआ यह किसका 

अंचल हिलता है ? 

पाँव में भी कमल का फूल खिलता है । 



और विश्वास करो, 

यहाँ न तो कोई औरत है, न मर्द; 

मैं अकेला हूँ । 



अकेलेपन की आभा जैसे-जैसे गहनाती है, 

मुझे उन देवताओं के साथ नींद आ जाती है, 

जो समझो तो हैं, समझो तो नहीं हैं; 

अभी यहाँ हैं, अभी और कहीं हैं । 



देवता सरोवर हैं, सर हैं, समुद्र हैं । 

डूबना चाहो 

तो जहाँ खोजो, वहीं पानी है । 

नहीं तो सब स्वप्न की कहानी है ।  

 

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रचनाएँ
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