*चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ है मानव योनि ! बड़े भाग्य से मनुष्य का शरीर प्राप्त होता है , मनुष्य का शरीर प्राप्त करके जीव अपने पूर्व के अनेक जनों की गलती को सुधारने एवं इस आवागमन से मुक्ति पाने का प्रयास करता है ! मानव जीवन में वैसे तो कई विषय महत्वपूर्ण होते हैं परंतु किसी मनुष्य के पतित होने या उसकी सफलता में सबसे महत्वपूर्ण कारक होता है उसका दृष्टिकोण , क्योंकि मनुष्य का दृष्टिकोण सही हो तब सही तथ्य अपने वास्तविक स्वरूप में सामने आ पाते हैं , तभी सही दिशा पर चल पाना और सही प्रक्रिया को अपना पाना संभव हो पाता है ! दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्ति इधर-उधर भटकता भ्रांति वृत्ति का शिकार होता है और प्रगति के स्थान पर अवनति को अपनाता दिखाई पड़ता है ! जैसा जिसका दृष्टिकोण होता है उसका जीवन उसी प्रकार बनता चला जाता है ! दृष्टिकोण उन्नत , उच्चस्तरीय एवं उत्कृष्ट हो तो व्यक्ति इस सत्य को अनुभव कर पाता है कि लाखों योनियों में भटकने के बाद तब कहीं जाकर इस मनुष्य जीवन को प्राप्त करने का अवसर मिला है और इसे आत्म परिष्कार और लोक कल्याण में लगाते हुए सार्थक करना चाहिए ! और वहीं पर यदि दृष्टिकोण भोग विलास की ओर मुड़ जाता है तो मनुष्य जीवन भर भटकते हुए इस अमूल्य जीवन को समाप्त कर देता है ! मनुष्य का दृष्टिकोण यदि अच्छा है तो उसे महामानव , देवमानव तक बना सकता है परंतु नकारात्मक दृष्टिकोण मनुष्य के पतन का कारण बन जाता है ! इसलिए मानव जीवन में दृष्टिकोण का विशेष स्थान है !*
*आज के समाज में दृष्टिकोण का परिवर्तन बहुत तेजी से होता दिख रहा है ! किसी के प्रति किसी का दृष्टिकोण कब परिवर्तित हो जाएगा यह कहा नहीं जा सकता ! विश्वसनीय से विश्वसनीय व्यक्ति भी कब अविश्वसनीय लगने लगे यह स्वयं को भी नहीं पता होता ! आज मनुष्यों का जीवन भोग विलास में ही व्यतीत हो रहा है ! जिस दृष्टिकोण को लेकर के वह इस धरती पर आता है उसे भूल जाता है ! आज तो मनुष्यों का दृष्टिकोण इसी पर है कि जीना तो सैकड़ों वर्षो तक है इसलिए इसे भोग विलास में व्यतीत कर दें ! परंतु मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि ऐसे सोंच वाले स्वयं के पतन और दूसरों के पराभव का कारण बनते हैं जबकि सही दृष्टिकोण तो यही है कि मनुष्य को अपने भीतर समाहित क्षमताओं के पुञ्ज का जागरण करना चाहिए ! कोई भी शक्ति मनुष्य से बाहर नहीं सब कुछ मनुष्य के भीतर ही समाहित है आवश्यकता है इन शक्तियों को जागृत करने की ! जिस समय मनुष्य का दृष्टिकोण परिवर्तित होता है उसी समय उसका आत्मबल जागृत हो जाता है और आत्मबल के जागृत होने पर व्यक्ति श्रेष्ठता की राह पर चल निकलता है ! मात्र दृष्टिकोण के परिवर्तित होने से सार्थक परिणाम प्राप्त होने लगते हैं परंतु आज मनुष्य अपने दृष्टिकोण को उचित एवं दूसरों के उचित दृष्टिकोण को भी अनुचित बनाने पर लगा हुआ है क्योंकि मनुष्य के अंदर काम , क्रोध एवं अहंकार की प्रबलता स्पष्ट दिखाई पड़ रही है ! इन्हें हमारे सनातन धर्म में विकार कहा गया है इन विकारों से बाहर निकलकर इस अनमोल जीवन की पहचान करते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है तभी हमारा मानव जीवन सार्थक हो पाएगा !*
*जब तक दृष्टिकोण परिवर्तित नहीं होगा तब तक सार्थक परिणाम नहीं प्राप्त हो सकता ! सार्थक परिणाम प्राप्त करने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण को अपनाना ही होगा अन्यथा अनेक भटके हुए मनुष्यों की तरह स्वयं का जीवन भी पतित होता चला जाएगा !*