*संसार में जीव माता पिता के माध्यम से आता है , इसीलिए सनातन धर्म में माता-पिता को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है ! और "मातृ देवोभव पितृ देवोभव" की उद्घोषणा की गई थी ! माता पिता के ऋण से कभी भी उऋण नहीं हुआ जा सकता | जब हम अपने पैरों पर नहीं चल पाते थे तो इन्हीं माता-पिता के कंधों पर बैठकर गांव घूमते थे | दोनों हाथ पकड़कर यही माता आंगन में हम को चलना सिखाती थी | ईश्वर के स्वरूप को देखना है तो इन्हीं माता-पिता में देखा जाता था क्योंकि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा एवं पालन करता विष्णु को तो शायद ही किसी ने देखा हो परंतु गर्भ में बालक का सृजन करके उसका पालन करने वाली माता को सब ने देखा है | माता पिता का महत्व हमारे अनेक पौराणिक व्याख्यानों में देखने को मिलता है | जिस समय भगवान गणेश एवं कुमार कार्तिकेय से सृष्टि की परिक्रमा करने की शर्त रखी गई उस समय भगवान गणेश ने माता पिता के महत्त्व को स्थाप्त करते हुए अपने माता-पिता की परिक्रमा करके सृष्टि के परिक्रमा का फल प्राप्त कर लिया था | बालक श्रवण कुमार ने अंधे माता पिता को अपने कंधे पर बैठाकर तीर्थ यात्रा कराई ! माता कैकेई एवं पिता दशरथ के वचनों का पालन करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम चौदह वर्षों तक अयोध्या से दूर वनवास में रहे | माता पिता का जीवन में बड़ा महत्व है | हमारी संस्कृति हम को यही सिखाती है कि आजीवन माता पिता की सेवा करनी चाहिए | हमारे बुजुर्ग माता-पिता अपनी आयु के अनेक अनुभवों को स्वयं में आत्मसात किए रहते हैं और समय-समय पर उनके अनुभव का मार्गदर्शन प्राप्त करके हम जटिल से जटिल समस्याओं को परास्त करते रहे हैं | इसीलिए सनातन संस्कृति में माता पिता को देवताओं की श्रेणी में रखा गया था परंतु कालांतर में कुछ अद्भुत परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं जो कि भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं है |*
*आज प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को आधुनिक दिखाना चाहता है , और आधुनिकता की सबसे बड़ी पहचान एकल परिवार बनता चला जा रहा है | पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर आज हमारी युवा पीढ़ी अपनी सनातन संस्कृति को भूल कर अपने वृद्ध माता-पिता को स्वयं से अलग करके वृद्ध आश्रम की राह दिखा रहे हैं | जिस माता की उंगली पकड़कर चलना सीखा था , जिस पिता के कंधे पर बैठकर गांव घूमा था उन्हीं माता-पिता के झुके हुए कंधे को सहारा देने के स्थान पर उनको घर से बाहर निकाल दिया जा रहा है | जो वृद्ध माता-पिता परिवार का अभिमान / सम्मान समझे जाते थे आज वही उपेक्षित होकर दयनीय एवं तिरस्कृत जीवन जीने को विवश हो रहे हैं | एकल परिवार के सिद्धांत की विचारधारा के चलते ही इन वृद्ध माता पिता के जीवन का अंतिम पड़ाव पड़ाव नारकीय बनता चला जा रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" विचार करता हूं कि जो माता पिता अपनी संतान के सुखद भविष्य के लिए दिन रात एक कर देते हैं , स्वयं भूखे रहकर उनके भोजन की व्यवस्था करते हैं , उन्हीं संतानों के द्वारा जब उनको तिरस्कृत किया जाता है तब उनके हृदय पर क्या बीतती होगी ! ऐसा करने वालों को यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि यह संसार कर्मक्षेत्र है यहां जिस प्रकार के कर्मों का बीज डाला जाएगा उसी प्रकार का फल प्राप्त होगा ! कहने का तात्पर्य यह है कि इतना अवश्य ध्यान रखा जाय कि आज जो हम अपने माता-पिता के साथ कर रहे हैं कल वही हमारी संतान हमारे साथ भी करेगी ! अपनी सनातन संस्कृति को भूल कर हमने क्या खोया क्या पाया यह विचार करने का विषय है !*
*हम क्या थे क्या हो गए ! हम आधुनिकता के चक्कर में ना इधर के रहे ना उधर के ! कभी-कभी मन में यह विचार उठता है कि आखिर "ये कहां आ गए हम" !*