*मानव जीवन एक यात्रा है | इस जीवन यात्रा में मनुष्य अनेकों पड़ावों को पार करता है | इसी जीवन यात्रा का एक मुख्य पड़ाव है विवाह संस्कार | सनातन धर्म में मानव जीवन को चार भागों में विभक्त किया गया है जिन्हें चार आश्रम का नाम दिया गया है | इन्हीं चार आश्रमों में मनुष्य का पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है | इन चारों आश्रमों में धन्य एवं महत्वपूर्ण गृहस्थ आश्रम को बताया जाता है | ब्रह्मा जी ने जो सृष्टि की है इसे मैंथुनी सृष्टि कहा जाता है जिसका अर्थ होता है कि जहां नर और नारी मिलकर संतानोत्पत्ति करके सृष्टि का विस्तार करें और यह संभव विवाह संस्कार के बाद ही है , इसलिए विवाह संस्कार जीवन का एक महत्वपूर्ण क्षण है | विवाह को संस्कार का नाम दिया गया है | विवाह में वर को भगवान श्री विष्णु का स्वरूप मानते हुए उसका पूजन किया जाता है और कन्यादान के संकल्प में कन्या के पिता के द्वारा यह कहा जाता है कि मैं अपनी कन्या संतानोत्पत्ति करने के लिए विष्णु स्वरूप वर को प्रदान कर रहा हूं | जब वर को भगवान विष्णु का स्वरूप मान लिया गया तो वर में गंभीरता भी देखी जाती थी क्योंकि भगवान विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता है और विवाह के बाद वर भी पालनकर्ता के स्थान को ग्रहण करता है क्योंकि विवाह के बाद से कन्या (अपनी पत्नी एवं परिवार) के पालन एवं संरक्षण की जिम्मेदारी वर के ऊपर आ जाती है | धीर - गंभीर होकर विवाहवेदी पर वर एवं कन्या सप्तपदी के माध्यम से अपने कर्तव्यों को जानते थे | जीवन में क्या करना है ? क्या नहीं करना है ? इसका ज्ञान होता था | पूर्वकाल में इस दिव्य सनातनी वातावरण में दो अनजान पथ के पथिक एक मार्ग के अनुगामी होते थे और उनका जीवन बहुत ही संतुलित एवं धीर गंभीर होता था | वैवाहिक जीवन को सुंदर एवं सुचारू रूप से चलाने के लिए माताएं अपनी कन्या को शिक्षा देती थी तब नव दंपति अपनी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे और उनका जीवन बहुत ही मधुरता के साथ व्यतीत होता था | समाज में कहीं भी परिवार के विघटन अर्थात संबंध विच्छेद की घटना नहीं सुनाई पड़ती थी , परंतु अब समय परिवर्तित हो गया है अब हम आधुनिक हो गए हैं |*
*आज सनातन धर्म के सारे संस्कार आधुनिकता की भेंट चढ़ते चले जा रहे हैं जिसमें से जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार कहा जाने वाला विवाह संस्कार तो सबसे अधिक आधुनिक होता दिख रहा है | जिस विवाह संस्कार को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का द्वार कहा जाता है वही विवाह संस्कार आज अपनी गंभीरता का त्याग कर चुका है | सारे विधान दिखावा मात्र बनकर रह गए हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज के वैवाहिक समारोहों को देखकर यह विचार करता हूं कि जिस वर को विष्णु स्वरूप माना गया था वह वर अपनी मर्यादा एवं अपनी गंभीरता का त्याग कर चुका है | कन्या के द्वार पर पहुंचकर कुछ मित्रों के साथ आज दूल्हा नृत्य करता है यह कहां तक उचित है ? द्वारपूजन में कुछ मित्रों के उकसावे में आकर जब दूल्हा कन्या के द्वार पर नाचता है तो उसके बाद जीवन भर वह नाचता ही रहता है क्योंकि विवाह को ही गृहस्थाश्रम का प्रवेश द्वार कहा जाता है | जो नाचते हुए किसी घर में प्रवेश करेगा वह घर के अंदर भी पहुंचकर नाचेगा ही , इसीलिए आजकल के युवक विवाह करने के बाद नाचते रहते हैं | इतना ही नहीं जयमाल के मंच पर वर एवं कन्या दोनों को नचाया जाता है | जब कन्या को मंच के ऊपर सर्व समाज के समक्ष नृत्य कराया जाता है उसके बाद फिर उस कन्या से ससुराल में पहुंचकर मर्यादा के पालन की अपेक्षा की जाय तो शायद यह मूर्खता ही कही जाएगी | और तो और पुरोहित को शुभ विवाह संस्कार विधिवत पूर्ण करने का समय ही नहीं मिलता जिससे पुरोहित भी भावर करा देने को विवाह संपन्न करने की घोषणा कर देते हैं , क्योंकि उनके पास वर कन्या में संस्कारों का आरोपण करने का समय ही नहीं बचता | यही कारण है कि आज चारों आश्रमों में यदि किसी आश्रम में विघटन एवं अमर्यादित जीवन देखा जाता है तो वह गृहस्थाश्रम दिखाई पड़ता है | जिस गृहस्थाश्रम को हमारे वेदों - पुराणों ने धन्य कहा था आज वही गृहस्थाश्रम नृत्य करता दिखाई पड़ रहा है | इसका एक ही कारण है कि आज विवाह संस्कार समुचित ढंग से संपन्न नहीं हो पा रहे हैं | डीजे की धुन पर नाच लेना , जयमाल के मंच पर अमर्यादित प्रदर्शन करना ही विवाह की पहचान बनता चला जा रहा है | आज पुनः आवश्यकता है कि हम अपने विधानों को जानने का प्रयास करें और विवाह जैसे महत्वपूर्ण संस्कार को विधिवत संपन्न करने का बीड़ा उठायें , अन्यथा जीवन में कटुता एवं उपेक्षा पूर्ण व्यवहार की वृद्धि होते होते स्थिति संबंध विच्छेद तक पहुंचती ही रहेगी | आज हमने अपनी दिव्यता को , अपने संस्कारों का त्याग कर दिया है यही कारण है कि हम पतित होते चले जा रहे हैं |*
*कितने दिव्य थे हमारे संस्कार जिन्होंने हमारे पूर्वजों को महान बनाया | हमने अपने ही पूर्वजों के संस्कारों का त्याग करने का दुस्साहस किया है | मन में यही विचार उठता है कि "ये कहां आ गए हम" |*