*चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करके जीव को सुंदर मनुष्य का तन मिलता है ! मानव जीवन पाकर के मनुष्य अपनी इच्छा अनुसार सुंदर जीवन यापन करता है ! इस मानव जीवन में पग पग पर मनुष्य को परीक्षाएं देनी होती है ! जो भी मनुष्य इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाता है वह अंततोगत्वा भगवान के परम पद को प्राप्त कर लेता है ! यहां पर परीक्षक स्वयं ईश्वर है जो भाँति भाँति प्रकार से मनुष्य की परीक्षा लेता है ! कोई भी परीक्षक परीक्षा लेते समय अनेकों प्रकार के भ्रम उत्पन्न करता है , जो भी मनुष्य अपनी बुद्धि - विवेक का प्रयोग करके इन भ्रामक स्थितियों से निकलकर पूर्ण विवेक के साथ परीक्षा देता है वही उत्तीर्ण हो पाता है ! मानव जीवन का लक्ष्य परम पद को प्राप्त करना ही बताया गया परंतु इस परम पद को प्राप्त करने में ईश्वर माया का विस्तार करके मनुष्य को पद पद पर भ्रमित करते रहते हैं ! मनुष्य जिसे नहीं समझ पाता वह माया को आधार बनाकर ईश्वर के द्वारा मनुष्य की ली जा रही परीक्षा ही होती है ! जो भी मनुष्य माया के भ्रामक स्वरूप को अपने बुद्धि - विवेक के द्वारा परास्त कर देता है वही इस जीवन रूपी परीक्षा में उत्तीर्ण हो पाता है ! जीवन एक प्रतियोगिता है और प्रतियोगिता में वही उत्तीर्ण होता है जिसने प्रतियोगिता की विधिवत तैयारी की हो ! मानव जीवन रूपी प्रतियोगिता की तैयारी संतो के संग सत्संग करके ही हो सकती है इस प्रतियोगिता में वही लोग निष्फल होते हैं जो तैयारी (सत्संग) न करके स्वयं को परम विद्वान मानते हैं ! ऐसे लोगों लगता है मेरी सारी तैयारी है ईश्वर जैसी चाहे परीक्षा ले हम अनुत्तीर्ण नहीं होगे , परंतु जब मनुष्य अनुत्तीर्ण हो जाता है तो वह ईश्वर को दोष लगाने लगता है जो कि कदापि उचित नहीं है ! किसी भी प्रतियोगिता (परीक्षा) की विधिवत तैयारी करने वाले कभी भी विफल नहीं होते है ! विफल वही होते हैं जिन्होंने तैयारी नहीं की होती है ! और ऐसे लोग विफल होने पर अपनी न की गयी तैयारी एवं स्वयं को दोषी न मानकर सारा दोष परीक्षक (ईश्वर) को लगा देते हैं ! ईश्वर तो सबकी समान रूप से परीक्षा लेता है वह समदर्शी है ! सबके लिए एक समान ही प्रश्नपत्र (संसार) तैयार करता है ! अब अपनी तैयारी के अनुसार ही मनुष्य को परिणाम देखने को मिलता है ! परीक्षक (ईश्वर) को दोषी न मानकर मनुष्य को यह आंकलन करना चाहिए कि अपनी किन कमियों / गल्तियों के कारण हम अनुत्तीर्ण हुए हैं ! जो भी मनुष्य अपनी कमियों को ढूंढ़कर उसमें सुधार कर लेता है वह दूसरों को दोषी नहीं मानता और न ही आगे की किसी भी परीक्षा में अनुत्तीर्ण होता है |*
*आज हम जिस युग में जीवन यापन कर रहे हैं यहां प्रतिस्पर्धा पग पग पर है ! जीवन को नई ऊँचाईयों पर ले जाने के लिए मनुष्य को नित्य एक नई परीक्षा देनी पड़ रही है ! सोशल मीडिया के इस युग में आज मनुष्य को अपने धर्मग्रन्थों के पठन - पाठन के प्रति सजग करने के उद्देश्य से नित्य अनेकों व्हाट्सऐप समूहों पर आध्यात्मिक प्रतियोगितायें भी आयोजित की जा रही हैं ! जो लोग अपने धर्मग्रन्थों का अध्ययन करके इन प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं वे सदैव सफल होते हैं ! और जिनको यह लगता है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ हमको कण्ठस्थ हो गये हैं और आगे अध्ययन की आवश्यकता ही नहीं है वही लोग इन प्रतियोगिताओं में असफल हो जाते हैं और फिर अपनी विफलता का ठीकरा प्रतियोगिता के संचालकों के सर फोड़ने लगते हैं कि प्रश्न ही गलत एवं भ्रामक था ! मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ऐसे प्रतिभागियों से यही पूछना चाहता हूँ कि आप भ्रमित ही क्यों हुए ? प्रश्नपत्र तैयार करने वाला तो आपको भ्रमित करेगा ही परंतु आप क्यों भ्रमित हो रहे हैं ? ऐसे लोगों के भ्रमित एवं असफल होने का एक ही कारण है कि उनके द्वारा प्रतियोगिता / परीक्षा की तैयारी ही नहीं की गयी है ! अनेकों जागरूक प्रतिभागी ऐसे भी होते हैं जो पूरी तैयारी करके सदैव उत्तीर्ण होते रहते हैं ! क्या उनके लिए भ्रामक स्थिति नहीं होती है ? लाखों विद्यार्थी परीक्षा देने एक साथ बैठते हैं परंतु सभी उत्तीर्ण ही नहीं हो जाते ! उत्तीर्ण वही होते हैं जिन्होंने तैयारी कर रखी होती है ! जिनकी तैयारी पूरी है और जो प्रश्न को विधिवत पढ़कर - समझकर तब उत्तर लिखना प्रारम्भ करते हैं वे कभी भी असफल नहीं होते ! परंतु हम आज अपनी गल्ती न मानकर दूसरों को दोषी सिद्ध करने में सिद्धहस्त हो गये हैं ! अपनी कमियों को न देखकर परीक्षक को ही गलत ठहरा देने वाले लोग आज बहुतायत की संख्या में देखे जा सकते हैं ! यह वही लोग होते हैं जो स्वयं को पूर्ण एवं परिपक्व मानते हुए किसी भी प्रतियोगिता / परीक्षा को गम्भीरता से नहीं लेते और असफल होकर अपना अलग ही राग अलापने लगते हैं ! यहाँ इस जीवन में पग पग पर मनुष्य को परीक्षा देनी ही पड़ती है , किसी भी परीक्षा में असफल होने पर अपनी कमियों को दूर करके नये उत्साह के साथ अगली परीक्षा की तैयारी करना ही जीवन है ! जिसने ऐसा प्रयोग कर लिया वह फिर कभी असफल नहीं होता !*
*सबसे बड़ा परीक्षक तो ईश्वर है जो कभी मनुष्य का धन , सम्पत्ति एवं स्वजनों के प्राणों का हरण करके मनुष्य की नित्य नई परीक्षायें लेता रहता है ! जो भी अपनी कमी (कर्मों की) मान लेता है वह दुखी नहीं होता और ईश्नर द्वारा दिये गये परिणाम में संतुष्ट रहता है ! और जो अपने कर्मों का दोष नहीं मानता वही भ्रमित होकर चिल्लाता रहता है !*