*यह संसार बड़ा रहस्यमय है ! पग पग पर रहस्यों से भरा हुआ यह संसार एक अबूझ पहेली सिद्ध होता रहा है | सृष्टि के विषय में , समाज के विषय में , धर्मग्रंथों में वर्णित विषयों के विषय में मनुष्य सदैव से जिज्ञासु रहा है | जिज्ञासा उत्पन्न होना मनुष्य का सहज स्वभाव है | सनातन धर्म में जितने भी धर्मग्रंथ हैं सब किसी न किसी जिज्ञासा के समाधान में ही लिखे गए हैं | नैमिषारण्य में शौनक इत्यादि अट्ठासी हजार ऋषियों का सत्संग अनवरत चलता रहता था जिसका समाधान सूत जी महाराज किया करते थे और उन्हीं समाधानों पर आधारित होकर ग्रंथों की रचना की गई | जिज्ञासा उत्पन्न होना बहुत ही सकारात्मक मानसिकता का प्रमाण है परंतु उसका समाधान भी सकारात्मकता से किया जाय तो एक नवीन ज्ञान उत्पन्न होता है और यही हमारे यहां होता चला आया है | किसी की जिज्ञासा के समाधान में जब विद्वान अपना वक्तव्य देते थे तो एक नवीन ज्ञान इस सृष्टि में प्रकाशित होता था | इसीलिए हमारे देश भारत में विशेषकर सनातन धर्म में सत्संग को अधिक महत्व दिया गया है क्योंकि सत्संग ही वह माध्यम है जहां से नित्य नए-नए ज्ञान का उदय होता था | भगवान की नौ प्रकार की भक्ति में प्रथम स्थान सत्संग को ही दिया गया है क्योंकि सत्संग किए बिना कोई भी कुछ नहीं प्राप्त कर सकता | सत्संग का अर्थ यह कदापि नहीं लगाना चाहिए की धार्मिक विषयों पर ही चर्चा की जाय किसी भी विषय पर जिज्ञासु बनकर सत्संग किया जा सकता है | यदि मनुष्य के अंदर जिज्ञासा ना होती तो शायद आज इतना विकास ना हुआ होता , विकास का आधार सत्संग एवं उनमें प्रकट की गई जिज्ञासायें ही है | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सत्संग के महत्व को समझते हुए इस में भाग लेना चाहिए और अपने हृदय में उत्पन्न हो रही सकारात्मक जिज्ञासाओं को विद्वानों के समक्ष रखना चाहिए जिससे कि उनको उसका उचित समाधान मिल सके और अज्ञान का अंधकार दूर हो | हमारा देश भारत यदि विश्वगुरु बना था तो उसका आधार यही सत्संग तथा सत्संग में रखी गई जिज्ञासा और उनके समाधान में प्रसारित नवीन ज्ञान ही था परंतु आज हम अपने मार्ग से भटक रहे है |*
*आज सत्संगशालायें विलुप्त होती जा रही है , सत्संग का स्थान आज इंटरनेट के सशक्त माध्यम व्हाट्सएप आदि ने ले लिया है , जहां पर अनेक विद्वान एकत्र होकर के सत्संग करते हैं | कहीं जिज्ञासाओं का समाधान किया जाता है तो कहीं रामचरित मानस की चौपाइयों के भाव लिखकर सत्संग किया जा रहा है | परंतु मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि आज सत्संग में अधिकतर विद्वान अपने शास्त्रों का अध्ययन नहीं करना चाहते बल्कि इंटरनेट के सशक्त माध्यम गूगल से उठाकर समाधान कर देना चाहते हैं और जो समाधान वो कर रहे हैं शायद उसको वह भी पूरा नहीं पढ़ते | घर-घर में मानस का पाठ होता है परंतु जब मानस के किसी चौपाई पर अपना भाव लिखना होता है तो भी हमारे विद्वान एक शब्द नहीं लिखना चाहते और गूगल से ही कॉपी करके समाधान एवं भाव के रूप में उसको समूहों में प्रस्तुत करके वाहवाही लूट रहे हैं | बड़ा हास्यास्पद लगता है कि जिस सत्संग को आधार बनाकर हमारे पूर्वजों ने गूढ़ से गूढ़तम ज्ञान प्राप्त किया था आज वही सत्संग वाहवाही लूटने के साथ-साथ मनोरंजन का साधन बनता जा रहा है | लोग विचार करते हैं कि आखिर कौन से जिज्ञासा रखूँ ? जिज्ञासा का अर्थ ही नहीं समझ पाते | यदि आधुनिक युग की बात की जाय तो एक बैज्ञानिक के मस्तिष्क में यदि जिज्ञासायें न उत्पन्न होती तो शायद इतना विकास ना हो पाता | वैज्ञानिकता का आधार भी जिज्ञासा ही है इसलिए प्रत्येक मनुष्य को जिज्ञासा के समाधान में अपने शास्त्रों का अध्ययन करके सटीक समाधान करने का प्रयास करना चाहिए | मानस की चौपाइयों पर अपने भाव लिखकर के प्रस्तुत करना चाहिए परंतु आज विद्वान बनने की होड़ में लोग एक शब्द भी नहीं लिखना चाहते और जल्दी से जल्दी अपना भाव प्रस्तुत कर देना चाहते हैं | ऐसे में हमको क्या प्राप्त हो रहा है यह हम स्वयं नहीं जान पाते |*
*हमने अपने पूर्वजों के द्वारा स्थापित किए गए मानदंडों को भूलने का कार्य किया है ! हम वह थे जिसके समक्ष समस्त विश्व नतमस्तक होता था परंतु हम क्या हो गए हैं यह चिंतनीय विषय है ! प्रायः मन में यह विचार आता है कि आखिर "ये कहां आ गए हम" !*