*सनातन धर्म में जहां एक और सबको समान अधिकार मिले हैं वहीं दूसरी ओर कुछ कृत्य कुछ लोगों के लिए वर्जित भी बताये गये हैं | सनातन धर्म का प्राण हैं भगवान की कथाएं , जिसे कहकर और सुनकर मनुष्य आनंद तो प्राप्त ही करता है साथ ही मोक्ष का अधिकारी भी होता है | कुछ दिनों से समाज में एक बहस दिखाई पड़ती है कि कथा कहने का अधिकार किसे है किसे नहीं ? विशेषकर नारी जाति को व्यास पीठ पर बैठना उचित है या अनुचित ? इस विषय पर यदि शास्त्रों के प्रमाण मांगा जाय तो हमारे शास्त्रों का स्पष्ट निर्देश है कि नारी जाति को व्यासगादी पर बैठने का अधिकार नहीं है | परंतु यह विषय विवादित होता चला जा रहा है | आए दिन इस विषय पर अनेकों चर्चाएं होती देखी जा रही जो कि उचित नहीं है | शास्त्रों की आज्ञा मानना प्रत्येक सनातनधर्मी का कर्तव्य एवं धर्म दोनों है , परंतु हम सनातन के झंडाबरदार तो बनना चाहते हैं परंतु सनातन शास्त्रों में दिए गए निर्देशों का पालन नहीं करना चाहते , और सबसे बड़ी बात तो यह है कि यदि सनातन का निर्देश हमारे अनुकूल है तो हम उसकी बड़ी सराहना करते हैं परंतु जो निर्देश हमारे कृत्यों के विपरीत दिखाई पड़ता है उसे हम ढकोसला एवं अनर्गल कह करके उसका विरोध करने लगते | यह विचारणीय विषय है कि आज समाज में अनेकों ऐसे कृत्य हैं जिनको न करना चाहिए और ना ही किसी को इन कृत्यों का निर्देश देना चाहिए परंतु आज वही किया जा रहा है जो कि वर्जित है | कुछ लोग अपाला , गार्गी आदि का उदाहरण देने से भी नहीं चूकते हैं परंतु उनको ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए कि क्या इन विदुषी महिलाओं ने कभी व्यास गद्दी पर बैठकर प्रवचन दिया है ? परंतु विषय वही है कि जो हमारे अनुकूल नहीं है उसे हम अंधविश्वास एवं नारी प्रताड़ना से जोड़ करके उसका जोर शोर से विरोध करने लगते हैं | उसके बाद भी सनातन के सजग प्रहरी बनने का दिखावा करते हैं |*
*आज समाज में पुरुषों से अधिक महिलाएं कथावाचन के क्षेत्र में सक्रिय दिखाई पड़ती हैं | गीत संगीत एवं कुछ प्रवचन के बल पर यह महिलाएं समाज में कथावाचन का कार्य कर रही है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह जानता हूं कि मेरे इस लेख को पढ़कर कुछ लोग हमको नारी विरोधी भी कह सकते हैं जबकि सत्य है कि मैं नारी विरोधी कदापि नहीं है | परंतु मैं ऐसी कथावाचिकओं एवं उनका समर्थन करने वाले तथाकथित विद्वानों से इतना अवश्य पूंछना चाहता हूं कि जिस ग्रंथ का आधार लेकर यह नारी शक्तियां आज प्रवचन कर रही हैं क्या उस ग्रंथ का अध्ययन किया है ? क्योंकि जो बातें मैं या कोई अन्य विद्वान कहता है वे सारी बातें उन्हीं ग्रंथों में विशेषकर श्रीमद्भागवत में ही लिखी हुई है कि नारी जाति को व्यास गद्दी पर बैठकर कथावाचन का अधिकार नहीं है | बड़ा हास्यास्पद विषय है कि हम जिस ग्रंथ को आधार मानकर के अपनी जीविका चला रहे हैं उन्हीं ग्रंथों में लिखी हुई बातों को समाज से मनवाना चाहते हैं परंतु स्वयं नहीं मानना चाहते | यदि श्रीमद्भागवत में लिखे गए वक्ता के लक्षणों पर विचार किया जाय तो सत्य तो यह है कि आज विरक्त कोई भी नहीं है , परंतु जैसे ही इस प्रकार का कोई लेख कहीं प्रस्तुत होता है तो स्वयं को नारी जाति का समर्थन करने का दिखावा करने वाले तथाकथित विद्वान इस चर्चा में कूद पड़ते हैं , जबकि ऐसे लेखों में सर्वप्रथम पुरुष कथावाचक के ही लक्षणों पर विचार दिया जाता है परंतु ऐसे लोगों को सिर्फ नारी जाति की बुराई दिखाई पड़ती है और वे इसे नारी जाति का अपमान कह कर अपनी बात ऊँची करना चाहते हैं | कलियुग चल रहा है , कोई कुछ भी करे किसी को कोई रोकने वाला नहीं है , परंतु शास्त्रों में लिखी हुई बात न तो कभी काटी जा सकती है और न ही उसे असत्य ठहराया जा सकता है | अतः ऐसे सभी तथाकथित विद्वानों से निवेदन है क्यों वे किसी का खूब समर्थन करें परंतु शास्त्रों की बात को झुठलाने का प्रयास न करें |*
*नारी जाति नर की जन्मदाता है , समाज की धुरी है और उसके सृष्टि का मूल है | मूल को जड़ कहा जाता है और जड़ सदैव पृथ्वी के नीचे छुपी रहती है | जिस वृक्ष की जड़ पृथ्वी के ऊपर आ जाती है वह वृक्ष सूख जाता है इसलिए जड़ को सुरक्षित रखना हमारा कर्तव्य बनता है |*