*इस समाज में अनेको प्रकार के लोग होते हैं जो एक दूसरे के कार्यों की समीक्षा करते हैं ! किसी कार्य के लिए मनुष्य की प्रशंसा होती है तो किसी कार्य के लिए उसकी निंदा भी की जाती है ! प्रशंसा और निंदा दो परस्पर विरोधी तत्व है , मन के अनुकूल होने के कारण जहां प्रशंसा मनुष्य को मिश्री की भांति मीठी लगती वही मन के प्रतिकूल होने के कारण निंदा नीम की निंबोली की तरह कड़वी लगने लगती है ! अतः स्वाभाविक रूप से प्रशंसा करने वालों के प्रति मनुष्य का अनुराग हो जाता है और निंदा करने वाले के प्रति मनुष्य अपने मन में देश भावना पाल लेता है , जबकि हमारे महापुरुषों का कहना है कि मनुष्य के लिए ना तो राग अच्छा है ना ही द्वेष ! इसलिए एक बुद्धिमान दोनों ही स्थितियों में यथासंभव समान व्यवहार करता है | मनुष्य के जीवन में कई बार ऐसी परिस्थितियां उपस्थित हो जाती है जो की असहनीय होती है और मन को खिन्न तथा विषादग्रस्त कर देती है ! इस प्रकार की परिस्थितियों में एक है किसी के द्वारा आलोचना अथवा निंदा किया जाना , क्योंकि मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह अपनी प्रशंसा की सुनना चाहता है ! जबकि सत्य यह है कि सदैव अपनी प्रशंसा ही सुनना एक मानवीय कमजोरी है ! किसी व्यक्ति में लाख दोष दुर्गुण भरे हो उसे अपनी कमियां दिखाई नहीं देती यदि किसी व्यक्ति को अपने दोष दिखाई भी दे जायं तब भी वह अपने स्वभाव को नहीं बल्कि परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करता है , क्योंकि मनुष्य स्वभावत: अपने को अच्छा और गुणी ही मानता है | प्रत्येक मनुष्य को अपने दुर्गुण दिखाई ही नहीं देते प्राय: ऐसा होता है कि जब कोई दूसरा व्यक्ति हमारी कमियों को इंगित करता है तो हमें बहुत बुरा लगता है हम इतने असहिष्णु और अनुदार होते हैं किसी और के द्वारा इंगित की गई त्रुटि को सहन नहीं कर पाते | दूसरे शब्दों में इसे हम अहंकार भी कह सकते हैं जो दूसरे के दोष दर्शन का अधिकार देना नहीं चाहता ! मनुष्य प्रशंसा तो सुनना पसंद करता है परंतु अपनी आलोचना से बचना चाहता है जबकि किसी की भी निंदा आलोचना या उसकी कमियों की ओर वही आकर्षित कर सकता है जो आपसे प्रेम करता हो | हमारे महापुरुषों का कथन है कि जब मनुष्य अपनी निंदा आलोचना अथवा स्वदोष दर्शन में रुचि लेने लगता है तो यह मान लेना चाहिए कि उसने अपने घर की देखभाल करना प्रारंभ कर दिया | जब कोई व्यक्ति अपनी निंदा को सकारात्मक भाव से स्वीकार करने लगे तो समझ लो वह अपने हित और उत्कर्ष का साधन करने लगा है | परंतु आज यदि किसी को कुछ कह दो तो वह कहने वाले को अपना दुश्मन मानने लगता है |*
*आज के परिवेश में प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी रूप में स्वयं में अहम भाव को पाले हुए हैं , यही कारण है कि यदि किसी परम प्रिय के द्वारा भी कोई कमी बताई जाती है तो वह उससे द्वेष करने लगता है | प्रायः लोग उसको कहने भी लगते हैं कि दूसरों के दोषों को नहीं देखना चाहिए | विचार कीजिए यदि समाज में एक दूसरों के दोष एवं कमियों का आंकलन करके उसमें सुधार न किया जाए तो यह समाज कहां जाएगा | आज लोग एक दूसरे की प्रशंसा करके चापलूसी करने में लगे हुए हैं ऐसा करके वह अपने प्रियजन का अहित ही कर रहे है परंतु आज यदि किसी को उसकी कोई कमी बता दो तो वह कमी बताने वाले को अपना दुश्मन मान करके उससे सारे संबंध तोड़ लेता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि आज विश्व में लोकतांत्रिक प्रणाली देखी जा रही है जिसमें सत्तारूढ़ पक्ष के अतिरिक्त एक सबल विपक्ष भी होता है जो सरकार की त्रुटियों और गलतियों पर अपनी पैनी नजर बनाए रखता है | यही कारण है कि सत्तारूढ़ शासक अपनी मनमानी नहीं कर पाता और संविधान के अनुसार कार्य करने को बाध्य होता है | हमारे ज्ञानीजनों का मानना है कि निंदा एवं आलोचना से रुष्ट होने , दुखी होने अथवा तिरस्कार की भावना रखने की अपेक्षा उसका रचनात्मक उपयोग करने की बात पर विचार करना चाहिए | यदि निंदा अथवा आलोचना को सहज भाव से स्वीकार कर लिया जाए तो उससे दोषोॉ एवं दुर्गुणों का विनाश होता है | परंतु आज लोग अपनी प्रशंसा करने वालों से प्रसन्न रहते हैं और दूसरी ओर जो हमको हमारी कोई कमी बता दे तो उससे रुष्ट हो जाते हैं | कभी-कभी तो उन्हें अपना शत्रु मानकर अनुचित व्यवहार भी करने लगते हैं | इसका कारण यही है कि मनुष्य को स्वभाव से चापलूसी पसंद होती है , झूठी प्रशंसा से प्रसन्न रहने का उसका स्वभाव बन जाता है और यही स्वभाव मनुष्य को धीरे-धीरे दुर्गुणों का भंडार बना देता है |*
*जिस प्रकार समय-समय पर अपने घर की और खेत की सफाई करनी ही पड़ती है उसी प्रकार आत्मपरिष्कार करने के लिए अपने दोषों को देखना पड़ता है और उन को जड़ से उखाड़ना पड़ता है , और यह दोष हमें स्वयं नहीं बल्कि किसी और के दिखाने पर ही दिखाई पड़ सकते हैं इसलिए किसी के द्वारा अपना दोष बताए जाने पर उस पर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता होती है |*