*सृष्टि के आदिकाल में विराट भगवान के शरीर से मनुष्य की उत्पत्ति हुई ! हमारे वेदों के अनुसार भगवान के मुख से ब्राह्मण , भुजाओं से क्षत्रिय , उदर से वैश्य एवं पैरों से शूद्र का प्राकट्य हुआ ! इस प्रकार मानव समाज चार वर्णों में विभाजित हुआ ! यदि वैदिक काल की वर्ण व्यवस्था देखी जाय तो वहां पर कर्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण किया गया है ! चारों ही वर्ण मानव समाज के आधार स्तंभ है , एक दूसरे के बिना समाज में इनका रह पाना असंभव है ! ब्राह्मण मुख माना गया है , मनुष्य अपना जीवन यापन करने के लिए मुख के द्वारा ही भोजन ग्रहण करता है जिससे उसका जीवन यापन होता है , तो वही भुजा को क्षत्रिय कहा गया है जब तक हाथ का प्रयोग नहीं किया जाएगा तब तक मुख में भोजन नहीं जा सकता ! भोजन जाएगा तो कहाँ ? उदर में ! उदर क्या है ? वैश्य ! उदरपूर्ति के लिए मनुष्य को अपने पैरों पर चलकर ही परिश्रम करना होगा ! पैर की संज्ञा शूद्र को दी गई है ! इस प्रकार यदि देखा जाय तो जब तक चारों वर्णों का सामंजस्य नहीं होगा तब तक ना तो मानव शरीर व्यवस्थित रह सकता है और ना ही यह समाज ! चारों ही वर्ण मिलकर के समाज का निर्माण करते हैं ! एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं है ! ब्राम्हण को मस्तक माना गया है ! जिस प्रकार मानव शरीर मस्तिष्क से संचालित होता है उसी प्रकार यह समाज भी ब्राह्मण के बताए हुए कर्मों - धर्मों का पालन करके उन्नति को प्राप्त करता है ! यदि मस्तिष्क यह चाहे फिर मैं अकेले ही रहूं बाकी शरीर के सारे अंग व्यर्थ है तो विचार कीजिए शरीर में भुजा , उदर एवं पैर ना रह जायं तो अकेला मस्तिष्क क्या कर सकता है ! मानव शरीर के मुख की शोभा उसके सभी अंगों से हैं यदि एक भी अंग विकृत हो जाता है तो मुख की शोभा कांतिहीन हो जाती है और उसे अंगहीन कहकर पुकारा जाने लगता है ! सनातन धर्म का सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ वेदों को कहा गया है ! वेदों में चारों वर्णों को सामान बताते हुए उनके कर्मों के अनुसार वर्गीकरण किया गया है ! मानव शरीर का आधार उसके पैर ही है शायद इसीलिए वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है "तपसे शूद्रम्" और इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को सम्पूर्ण मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है ! समाज में वर्ण व्यवस्था का बहुत महत्व है , एक भी वर्ण यदि असुरक्षित हो जाता है तो संपूर्ण समाज असुरक्षित होने लगता है !*
*आज वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई है ! ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र यह वर्ण न रहकर के जातियों में बदल गयी हैं , और प्रत्येक जाति में कुछ मदांध लोग जो स्वयं को इन जातियों का ठेकेदार मानते हैं एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं ! उनको शायद यह नहीं पता है कि जिस ब्राह्मण को विराट भगवान का मुख कहा गया है जिस के मुखमंडल में मस्तिष्क होता है वह किसी को प्रणाम करते समय शूद्र कहे जाने वाले पैरों पर ही गिरता है ! ब्राह्मणवर्णी मस्तिष्क (सिर) शुद्रवर्णी पैरों पर गिर करके प्रणाम करता है ! इसका कारण मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" जहां तक समझ पा रहा हूं उसके अनुसार यही है कि जिस प्रकार मानव शरीर में पैर एक महत्वपूर्ण अंग है उसी प्रकार समाज में प्रत्येक वर्णों के साथ-साथ शूद्र वर्ण का विशेष स्थान है इनके परिश्रम के कारण ही आज पूरा समाज आनंद मना रहा है ! क्षत्रिय वर्ण ना होता तो देश की रक्षा ना हो पाती ! यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि वीरोचित कर्म करने वाले को ही क्षत्रिय कहा गया है , जिनके बल कौशल के द्वारा देश एवं समाज की रक्षा की जाती है ! यदि वैश्यवर्ण ना होता तो शायद मानव समाज की उदरपूर्ति ना हो पाती ! कहने का तात्पर्य है कि कोई भी वर्ण हो वह ना तो किसी से कम है ना ही उनकी उपयोगिता कम है परंतु कुछ लोग अपने पद के अहंकार में इतना ज्यादा अंधे हो चुके हैं उनको स्वयं के अतिरिक्त और कोई दिखता ही नहीं है ! यही विचार समाज के लिए घातक ही सिद्ध हो रहा है ! समाज में विघटन होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि आज लोग एक दूसरे को नीचा दिखा कर दोषारोपण करने का प्रयास कर रहे हैं ! हमारे वेदों के वक्तव्य को समझ कर के उनकी सूक्तियों का पाठ करके मानव समाज को यह समझने का प्रयास करना होगा कि चारों ही वर्ण विराट भगवान के ही अंग है और सब की उपादेयता अपने अपने स्थान पर सही है ! आज समाज के प्रबुद्ध लोगों को इस पर विचार करने की आवश्यकता है !*
*वर्ण व्यवस्था से जाति व्यवस्था पर आ गए समाज को व्यवस्थित एवं संगठित करने का कार्य प्रत्येक वर्ण के प्रबुद्ध लोगों को करने का प्रयास करना चाहिए अन्यथा वह दिन दूर नहीं है जब कुछ मदान्ध लोग अपने षड़यंत्र में सफल हो जाएंगे और मानव जाति विनाश के मुख मैं चली जाएगी !*