तेरा मिलना बहुत अच्च्छा लगे है, कि तू मुझको मेरे दुख जैसा लगे है...
ये चर्चा, किसी के हुस्न की नही है। ना ये बयान है किसी के संग आसनाई के लुत्फ की। सीधे-सहज-सरल लफ्जों में यह तरजुमा है एक सत्य का। सच्चाई यह कि अपनापन और सोहबत की हदे-तकमील क्या है।
अपना क्या है? कौन है?... वही जो अपने दुख जैसा है! मतलब?
सुख फैलाव है। आप जब खुश होते हैं, हर जर्रा, फलक और आफताब, यहां तक कि आपके वजूद का रग-रग नृत्य करता हुआ सा महसूस होता है। नाचना, बिखेरने का प्रोसेस है। खुशियां बिखेरी ही जाती हैं। खुशियां बंटती हैं तो उन्हें एक तरह से बिखेरा ही जाता है। यही होना भी चाहिए। खुशी से बेखुदी, उससे तगाफुल न सही मगर ज्यादा आसनाई भी नहीं। यही राह है।
दुख सिमटाव है। आप दुखी होते हैं तो कम्पैशनेट होते हैं। गाते हैं, ये सब कुछ समेट कर अंदर लाने का प्रोसेस है। इसलिए दुख को सुख से ऊपर और बेहतर मान कर शायर ने अपनी सोहबत के बारे में ऐसा कहा। इसे समझना है।
ठहर जाइए, खुद को अपने दुख की तरह अंदर समेट लीजिए। दुख के साथ अपनी इंटिमेसी, अपनी आसनाई को सेलेब्रेट करने के लिए बेजार रोइए। तब जब खुद से मुलाकात होगी, सब कुछ अपना सा लगेगा। अपनापन, आसनाई और उसके रस-रंग समझ मैं क्या आएंगे जिसने दुख को नहीं समझा और उसका इस्तकबाल नही किया...
दुख मिला, उसको गले लगा लीजिए। कहते हैं, ईश्वर जिसको पात्र, यानि योग्य और एलिजिबल समझता है, उसको दुख के गहनों से संवार देता है।
हालांकि, ये मेटाफर के तौर पर समझा जाना चाहिए। वरना, इंसानी इंजेन्यूटी इसको भी सिनिसिजम, हिपाक्रिसी और सैडिज्म ही कहने मैं नही हिचकेगी...