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ईश्वर

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देता  मुझको  तंगी  में  आशिषें घटी   के  समय  देता   बरकतेंखाली जीवन को देता भरपूरीक्रूस इसलिए घमंड का कारण है।जो समाज संगति से दूर करतावो 

सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा,विकट रूप धरि लंक जरावा।।भीम रूप  धरि  असुर  संहारे,रामचन्द्र   के   काज   संवारे।।लाय संजीवन लखन जियाए,श्री   रघुवीर

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर,जय कपीश तीहुं लोक उजागर।राम दूत अतुलित बल धामा,अंजनी पुत्र पवन सुत नामा।।महावीर।  विक्रम    बजरंगी,कुमति निवार सुमति के संगी।कंचन  बरन  बिराज  सु

विलासिता क्या है? अतिशय गुढ प्रश्न है। क्योंकि यह अखिल संसार ही इसके पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। भला सुख-सुविधा और उपभोग की वस्तुएँ किस को पसंद नहीं। कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा पहने, अच्छा खाए और अच्छी

राणा जी...हे राणा जी राणा जी अब न रहूंगी तोर हठ की साधु संग मोहे प्यारा लागे लाज गई घूंघट की हार सिंगार सभी ल्यो अपना चूड़ी कर की पटकी महल किला राणा मोहे न भाए सारी रेसम पट की राणा जी... ह

तेरो कोई न रोकण हार मगन होय मीरा चली लाज सरम कुल की मर्यादा सिर सों दूर करी मान अपमान दोउ धर पटके निकसी हूं ग्यान गली मगन होय मीरा चली तेरो... ऊंची अटरिया लाज किवड़िया निरगुन सेज बिछी पचरं

कोई कहियौ रे प्रभु आवनकी आवनकी मनभावन की। आप न आवै लिख नहिं भेजै बाण पड़ी ललचावनकी। ए दो नैण कह्यो नहिं मानै नदियां बहै जैसे सावन की। कहा करूं कछु नहिं बस मेरो पांख नहीं उड़ जावनकी। मी

सखी मेरी नींद नसानी हो। पिवको पंथ निहारत सिगरी रैण बिहानी हो। सखियन मिलकर सीख द मन एक न मानी हो। बिन देख्यां कल नाहिं पड़त जिय ऐसी ठानी हो। अंग-अंग ब्याकुल भ मुख पिय पिय बानी हो। अंतर बेदन बि

राम मिलण के काज सखी मेरे आरति उर में जागी री। तड़पत-तड़पत कल न परत है बिरहबाण उर लागी री। निसदिन पंथ निहारूं पिवको पलक न पल भर लागी री। पीव-पीव मैं रटूं रात-दिन दूजी सुध-बुध भागी री। बिरह भुजं

मैं तो सांवरे के रंग राची। साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू लोक-लाज तजि नाची॥ ग कुमति ल साधुकी संगति भगत रूप भै सांची। गाय गाय हरिके गुण निस दिन कालब्यालसूं बांची॥ उण बिन सब जग खारो लागत और बात सब

बाला मैं बैरागण हूंगी। जिन भेषां म्हारो साहिब रीझे सोही भेष धरूंगी। सील संतोष धरूं घट भीतर समता पकड़ रहूंगी। जाको नाम निरंजन कहिये ताको ध्यान धरूंगी। गुरुके ग्यान रंगू तन कपड़ा मन मुद्रा पैरूं

जागो बंसीवारे जागो मोरे ललन। रजनी बीती भोर भयो है घर घर खुले किवारे। जागो बंसीवारे जागो मोरे ललन॥ गोपी दही मथत सुनियत है कंगना के झनकारे। जागो बंसीवारे जागो मोरे ललन॥ उठो लालजी भोर भयो है स

तनक हरि चितवौ जी मोरी ओर। हम चितवत तुम चितवत नाहीं            मन के बड़े कठोर। मेरे आसा चितनि तुम्हरी            और न दूजी ठौर। तुमसे हमकूं एक हो जी          हम-सी लाख करोर॥ कब की ठाड़ी

हरि मेरे जीवन प्राण अधार। और आसरो नांही तुम बिन तीनूं लोक मंझार॥ हरि मेरे जीवन प्राण अधार आपबिना मोहि कछु न सुहावै निरख्यौ सब संसार। हरि मेरे जीवन प्राण अधार मीरा कहैं मैं दासि रावरी दीज्यो

म्हारे घर होता जाज्यो राज। अबके जिन टाला दे जा सिर पर राखूं बिराज॥ म्हे तो जनम जनमकी दासी थे म्हांका सिरताज। पावणड़ा म्हांके भलां ही पधार, ह्या सब ही सुघारण काज॥ म्हे तो बुरी छां थांके भली छै

प्रभुजी मैं अरज करुं छूं म्हारो बेड़ो लगाज्यो पार॥ इण भव में मैं दुख बहु पायो संसा-सोग निवार। अष्ट करम की तलब लगी है दूर करो दुख-भार॥ यों संसार सब बह्यो जात है लख चौरासी री धार। मीरा के प्रभु

प्यारे दरसन दीज्यो आय तुम बिन रह्यो न जाय॥ जल बिन कमल चंद बिन रजनी ऐसे तुम देख्यां बिन सजनी। आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन बिरह कालजो खाय॥ दिवस न भूख नींद नहिं रैना मुख सूं कथत न आवे बैना। कहा कह

आली रे मेरे नैणा बाण पड़ी। चित्त चढ़ो मेरे माधुरी मूरत उर बिच आन अड़ी। कब की ठाढ़ी पंथ निहारूं अपने भवन खड़ी॥ कैसे प्राण पिया बिन राखूं जीवन मूल जड़ी। मीरा गिरधर हाथ बिकानी लोग कहै बिगड़ी॥

आली रे मेरे नैणा बाण पड़ी। चित्त चढ़ो मेरे माधुरी मूरत उर बिच आन अड़ी। कब की ठाढ़ी पंथ निहारूं अपने भवन खड़ी॥ कैसे प्राण पिया बिन राखूं जीवन मूल जड़ी। मीरा गिरधर हाथ बिकानी लोग कहै बिगड़ी॥

बरसै बदरिया सावन की       सावन की मनभावन की। सावन में उमग्यो मेरो मनवा       भनक सुनी हरि आवन की। उमड़ घुमड़ चहुं दिसि से आयो       दामण दमके झर लावन की। नान्हीं नान्हीं बूंदन मेहा बरसै  

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