झिलमिलाती रात मेरी!
साँझ के अंतिम सुनहले
हास-सी चुपचाप आकर,
मूक चितवन की विभा—
तेरी अचानक छू गई भर;
बन गई दीपावली तब आँसुओं की पाँत मेरी!
अश्रु घन के बन रहे स्मित—
सुप्त वसुधा के अधर पर
कंज में साकार होते
वीचियों के स्वप्न सुंदर,
मुस्कुरा दी दामिनी में साँवली बरसात मेरी!
क्यों इसे अंबर न निज
सूने हृदय में आज भर ले?
क्यों न यह जड़ में पुलक का,
प्राण का संचार कर ले?
है तुम्हारी श्वास के मधु-भार-मंथर वात मेरी!