यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
रजत शंख-घड़ियाल स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर,
गए आरती वेला को शत-शत लय से भर,
जब था कल कंठों का मेला,
विहँसे उपल तिमिर था खेला,
अब मंदिर में इष्ट अकेला,
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!
चरणों से चिह्नित अलिंद की भूमि सुनहली,
प्रणत शिरों के अंक लिए चंदन की दहली,
झरे सुमन बिखरे अक्षत सित,
धूप-अर्घ्य-नैवेद्य अपरिमित,
तम में सब होंगे अंतर्हित,
सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!
पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,
प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया,
साँसों की समाधि-सा जीवन,
मसि-सागर का पंथ गया बन,
रुका मुखर कण-कण का स्पंदन,
इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!
झंझा है दिग्भ्रांत रात की मूर्च्छा गहरी,
आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी,
जब तक लौटे दिन की हलचल,
तब तक यह जागेगा प्रतिपल,
रेखाओं में भर आभा-जल,
दूत साँझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!