जमाने की चाल से बिल्कुल अलग चला
अकेलेपन का इक अहसास जो ख़ूब खला
तमाम जिल्लत भी सह कर जो मैं बढ़ा
वो छोटे से चट्टानों को देख पलट गए राह से
मैं उस पार भी गया जहाँ पर्वत रोके रस्ता खड़ा
समझते रहे वो मुझे बहुत नादान अक्सर कब से "रूप"
एक मैने सीख ली मौत ही सच्ची है जिंदगी कैसी बला
रूपेन्द्र साहू "रूप"