(१)
आहट हुई; हुई फिर "कोई है ?" की वही पुकार,
कुशल करें भगवान कि आया फिर वह मित्र उदार ।
चरणों की आहट तक मैं हूँ खूब गया पहचान,
सुनकर जिसे कांपने लगते थर-थर मेरे प्रान ।
मैं न डरूँगा पडे अगर यमदूतों से भी काम;
मगर, दूर से ही करता हूँ श्रद्धा-सहित प्रणाम
उन्हें, नहीं आकर जो फिर लेते जाने का नाम ।
(२)
मेरी कुर्सी खींच, बैठ कर बहुत पूछता हाल,
(कह दूं, आहट सुनी तुम्हारी, और हुआ बेहाल ? )
उलट-पुलट कविता की कापी देने लगता राय,
कहाँ पंक्तियाँ शिथिल हुई हैं ? कहाँ हुईं असहाय?
देता है उपदेश बहुत, देता है नूतन ज्ञान,
मेरी गन्दी रहन-सहन पर भी देता है ध्यान ।
सब कुछ देता, एक नहीं देता अपने से त्राण ।
(३)
झपट छीन लेता है मेरे हाथों से अखबार,
कहता, 'क्या पढ़-पढ़ कर डालोगे अपने को मार ?'
फिर कहता, "कुछ द्रव्य जुगा कर खड़ा करो कुछ काम,
पैसे भी कुछ मिलें और हो दुनिया में भी नाम ।'
सब सिगरेट खत्म कर कहता, एक और दो यार,
बक्से खोल, दराज खोलता रह-रह विविध प्रकार ।
एक नहीं खोलता कभी बाहर जाने का द्वार ।
(४)
कभी-कभी आकर देने लगता है शुभ संवाद,
'रगड़ रहे हैं तुम्हें आजकल फलाँ-फलाँ नक्काद;
मैं सह सकता नहीं तुम्हारा ऐमा तीव्र विरोध,
अभी एक को डांट दिया, आया ऐसा कुछ क्रोध ।'
डिब्बा खोल, पान खा-खा कर करता है आराम,
तरह-तरह की बातें कहता ही रहता अविराम ।
लेकिन, कभी नहीं कहता, अच्छा, अब चला, प्रणाम ।
(५)
यही नहीं, अनमोल समय की मुझे दिलाकर याद,
कहता, 'तुम गप्पों में करते बहुत वक्त बर्बाद ।
जब देखो तब मित्र पड़े हैं डटकर आठों याम ।
इस प्रकार कब तक चल सकता है लेखक का काम ?
आशा कितनी बड़ी लगा तुम से बैठा है देश !
और इधर तुम वकवासों में समय रहे कर शेष ।
सिर्फ सुनाता ही है, सुनता स्वयं नहीं उपदेश ।
(६)
चाहे जितना सिर खुजलाऊँ, मुद्रा करूं मलीन,
कलम पकड़, सिर थाम, कल्पना में हो जाऊँ लीन ।
चाहे जितने करूँ नाट्य, पर कभी न डिगता वीर,
किसी तरह की मुद्रा से होता है नहीं अधीर ।
कहता, 'हाँ, तुम लिखो; इधर में बैठा हूँ चूपचाप,'
मैं कहता, मन-ही-मन, बाकी अभी बहुत है पाप,
लिखूं खाक, जब तक दिमाग पर चढ़े हुए हैं आप !