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पानी की चाल

17 फरवरी 2022

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सदी नाम के अंग्रेजी-कवि ने यह यश पाया है, 

पानी का बहना कविता में जिन्दा दिखलाया है । 

उस रचना को देख एक दिन अकबर का मन डोला, 

फिर बहाव पर उर्दू की ताकत को उनने तोला । 

  

बहुत क्रियापद जुटा दिखाया यह कौशल बानी का, 

कैसा चित्र शब्द ले सकता है बहते पानी का । 

बहुत खूब है हुआ महाकवि अकबर का भी कहना, 

पंक्ति-पंक्ति में जिन्दा उतरा है पानी का बहना । 

  

और आज है मुझे फिक्र यह, मैं भी कलम उठाऊँ, 

हिन्दी की चौडी घाटी में दरिया एक बहाऊँ । 

लेकिन, कहाँ सदी औ' अकबर ? और कहाँ मैं पोला ? 

उसपर गजब, कला का अबतक चुस्त नहीं है चोला । 

  

रक्त-हीन जो कला पूजती केवल शब्द-चयन को, 

कैसे बाँध सकेगी वह तूफाँ, आँधी, प्लावन को ? 

उसपर मैं बहका-बहका-सा हूँ तन-मन से भारी, 

कला-पारखी सच ही कहते कुछ-कुछ मुझे अनाड़ी । 

  

टेढ़ी-मेढ़ी चाल नदी की, और राह में रोड़े, 

बिगड़ गयी तस्वीर कहीं, तो पीठ गिनेगी कोड़े । 

नयी लिखूं तो सदी और अकबर से भी डरता हूँ, 

मगर खैर, कुछ हँसी-हँसी में ही कोशिश करता हूँ । 

  

माना मैं कुछ नहीं, कला भी नाजों की पाली है, 

सब कुछ सही, मगर, हिन्दी-भाषा तो बलवाली है । 

अच्छा, मेरी कठिनाई की पूरी हुई कहानी, 

अब देखिये, चला चोटी से उछल-कूदकर पानी । 

  

उठता-गिरता शोर मचाता, पत्थर पर सिर बुनता, 

अपने ही गर्जन की चारों ओर प्रतिध्वनि सुनता । 

घबराता-सा, शिला-गोद से नीचे उछल उतरता, 

फूल-फैलकर पल में घाटी की खाई को भरता । 

हा-हा करता, धूम मचाता, बल से अकड़ उबलता, 

गर्ज-मान, पागल-सा मुंह से रह-रह झाग उगलता । 

चट्टानों के बीच साँप-सा टेढ़ी राह बनाता, 

सरक-सरक चलता, पत्थर से जहाँ-तहाँ टकराता । 

  

अभी ठहर कर यहाँ फूलता, उठता, ऊपर चढ़ता, 

अभी वहाँ ढालू पर से हो नीचे दौड़ उतरता । 

ताली दे आनन्द मचाता, गाता और बजाता, 

गली हुई चाँदी को दिन की आभा में चमकता । 

  

इस पौधे का फूल चुराकर लहरों पर तैराता, 

इसको एक थपेड़ा देता, उसको छेड़ चिढ़ाता । 

इस घाटी से अंग बचाता, उस घाटी से सटता, 

फटता यहाँ, वहाँ सकुचाता, डरता, सिकुड़-सिमटता । 

  

यहाँ घनी झुरमुट में अपने को हर तरह छिपाता, 

वहाँ निकल घासों पर उजली चादर-सी फैलाता । 

कहीं बर्फ की चट्टानों में निज को चित्रित करता, 

कहीं किनारों के फूलों का बिम्ब हृदय में भरता । 

  

कंकड़ियों पर यहाँ दौड़ता, आगे पैर बढ़ाता, 

वहाँ शाल-वन की छाया में ठहर जरा सुस्ताता । 

झुकी डालियों के पत्रों को छूता हुआ लहर से, 

सुनता कूजित गीत विहग का झुरमुट के भीतर से । 

  

वन के लाखों जीव-जन्तुओं से परिचय दृढ़ करता, 

सब की आँखें बचा भागता आगे उठता-गिरता । 

लहरों की फौजें असंख्य ले घहराता-हहराता, 

देख दूर से ही रुकावटों पर बकता-चिल्लाता । 

  

लो, देखो, वह आ पहुँचा है गाता मस्त सुरों में, 

कोलाहल करता खेतों, खलिहानों, गाँव-पुरों में । 

चौड़ी छाती फुला अकड़ता, अल्हड़ धूम मचाता, 

छाता चारों ओर एक जल-थल का समां रचाता । 

  

जिधर उठाओ नजर, उधर है केवल पानी-पानी, 

बाढ़ कहो तुम, मगर, यही है चढ़ती हुई जवानी । 

कोलाहल है, आर्त्तनाद है, है यह त्रास समाया, 

हटो, बचो, अबकी यह पानी काल-सरीखा आया । 

  

और, काल-सा ही यह पानी चला जा रहा बढ़ता । 

देहली, दीवारों, ऊँचे टीले, छप्पर पर चढ़ता । 

हाँ, देखो, वह चला जा रहा लाखों को कलपाता, 

खेत किसी का डुबो, किसी का छप्पर तोड़ बहाता । 

  

बड़े-बड़े बाँधों को टक्कर मार, तोड़ कर बहता, 

अपने ही बल के वेगों से व्याकुल उमग उमहता । 

टोकों को अनसुनी किये-सा, रोकों से टकराता, 

ताल ठोंक सब ओर जवानी के जौहर दिखलाता । 

  

मीलों तक मिट्टी कगार की काट उदर निज भरता, 

बड़े-बड़े पेडों की जड़ पल में उत्पाटित करता । 

महाकाय जल-यानों को भंवरों में घेर नचाता, 

बड़े-बड़े गजराजों को पत्तों की तरह बहाता । 

  

गीली मिट्टी लेप बदन में, बना हुआ दीवाना, 

छाता बन कर नाच और गाता अलमस्त नराना । 

औढर दानी-सा नालों का घर बिन माँगे भरता, 

और लुटेरे-सा किसान के हरे खजाने हरता । 

  

टीलों पर चढ़ने को हठयोगी-सा धुनी रमाता, 

और नीच-सा खाई में गिर जाने को अकुलाता । 

गाँव, शहर, खलिहान, खेत को छूता, अलख जगाता, 

चला जा रहा महापथिक-सा हंसता, रोता, गाता । 

  

देखो, गिरि से दूर सिन्धु-तक, जल की एक लड़ी है, 

कहूँ कहाँ तक ! इस प्रवाह की महिमा बहुत बड़ी है । 

बहुत हुआ, अब आज खत्म करता हूँ यहीं कहानी, 

गरचे अब भी उसी वेग से बहा जा रहा पानी ।  

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रचनाएँ
धूपछाँह
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आशा है कि कवि वर दिनकर की जागृति युवा पीढ़ी को एक नया संदेश देगी धूप छांव राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की सोलह ओजस्वी कविताओं का संकलन है जिसमें प्रांजल प्रवाह भाषा उच्च कोटि का चंद्र विधान और भाव संप्रेक्षण का समावेश किया गया है यह रचना उन लोगों को समर्पित है जो अपेक्षाकृत अल्प वयस्क है और सीधी सीधी रचनाओं से सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं
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शक्ति या सौंदर्य

17 फरवरी 2022
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17 फरवरी 2022
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 कहते हैं, दो नौजवान  क्षत्रिय घोड़े दौड़ाते,  ठहरे आकर बादशाह के  पास सलाम बजाते।     कहा कि ‘‘दें सरकार, हमें भी  घी-आटा खाने को,  और एक मौका अपना कुछ  जौहर दिखलाने को।’’     बादशाह ने कहा

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पानी की चाल

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कवि का मित्र

17 फरवरी 2022
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 (१)  आहट हुई; हुई फिर "कोई है ?" की वही पुकार,  कुशल करें भगवान कि आया फिर वह मित्र उदार ।  चरणों की आहट तक मैं हूँ खूब गया पहचान,  सुनकर जिसे कांपने लगते थर-थर मेरे प्रान ।  मैं न डरूँगा पडे अग

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