*लक्ष्मण जी* श्री राम जी की आज्ञा मिलते ही दौड़ते हुए अपनी माता सुमित्रा के पास पहुंचते हैं | उन्होंने अपनी मैया को प्रणाम तो किया परंतु उनका मन राघवेंद्र सरकार में ही लगा था | अपने पुत्र *लक्ष्मण* के मुखमंडल पर उदासी देख कर मैया सुमित्रा ने पूछा :- हे पुत्र ! क्या बात है ? अरे तुम्हारा मुखमंडल बहुत ही उदास एवं तेजहीन क्यों लग रहा है ?? *लक्ष्मण जी* ने कैकेई मैया के वरदान एवम राम वन गमन की सारी कथा अपनी मैया को सुना दी | *लक्ष्मण जी* की बात सुनकर सुमित्रा जी :--
*गई सहमि सुनि वचन कठोरा !*
*मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा !!*
उस समय मजाक सुमित्रा की वही स्थिति हो गई जैसे बन में चारों ओर लगी आग को देखकर हिरणी भयभीत जाती है | मैया के मुखमंडल पर कुछ क्षण के लिए भय परिलक्षित होने लगा | *लक्ष्मण जी* अपनी मैया की दशा को देखकर एक बार फिर भयभीत हो गये कि कहीं पुत्र प्रेम के वशीभूत होकर मैया हमें बन जाने से रोक ना ले | जिस प्रयोजन के लिए इतने उत्साहित होकर आये थे वह अधर में फंसता हुआ दिखने लगा | *लक्ष्मण जी* कुछ भी कभी नहीं पा रहे है | तुलसीदासजी लिखते हैं :---
*मांगत विदा सभय सकुचाहीं !*
*जाई संग विधि कहहिं की नाहीं !!*
*लक्ष्मण* जिस कार्य के लिए ( आज्ञा लेने ) आए थे उसे संकोच एवं भय के कारण कह नहीं पा रहे है | एकटक अपनी माता के मुखमंडल के बदलते भावों को देख रहे हैं कि कहीं यह ना कह दे कि बनवास तो राम को मिला है तुम्हारा बन में क्या काम ?? अत: तुम्हें नहीं जाना है |
परंतु धन्य है माता सुमित्रा | विचार करने वाली बात है कि जब पुत्र इतना त्यागी है तो माता कितनी महान होगी ? सुमित्रा जी को कष्ट तो असहनीय हुआ परंतु उन्होंने धैर्य धारण करते हुए गंभीर वाणी में कहा :- हे पुत्र *लक्ष्मण* ! तू धन्य है ! तूने अपने साथ आज सबको धन्य कर दिया ! क्योंकि :---
*कुलम् पवित्रम् जननी कृतार्था , वसुंधरा भाग्यवती च धन्या !*
*स्वर्ग स्थितो$पि पितरो हि धन्या , यस्मिन गृहे वैष्णव नामधेयम् !!*
प्रेमयुक्त मधुर वाणी में मैया कहती है :- हे पुत्र ! जिस घर में भगवान का नाम लेने वाला जन्म ले लेता है वह कुल पवित्र हो जाता है , माता कृतार्थ जाती है और यह पृथ्वी तथा स्वर्ग (पितृलोक) में स्थित पितर भी धन्य हो जाते हैं और आज तू तो साक्षात भगवान की सेवा में जा रहा है | माता सुमित्रा कहती हैं :- हे *लक्ष्मण* ! तू यहां क्यों आया है ? किस की आज्ञा लेने आया है ? हे तात तेरी माता तो स्वयं जानकी है और तुमको स्नेह करने वाले रघुराई ही तुम्हारे पिता हैं | सुमित्रा जी अपने पुत्र *लक्ष्मण* को भक्ति एवं सेवा करने को उत्साहित कर रही हैं | आज की मातायें अपने पुत्र को ऐसी शिक्षा क्यों नहीं दे पाती हैं ? यह चिंतन का विषय होना चाहिए | सुमित्रा जी ने कहा हे पुत्र ! ;---
*अवध तहां जहं राम निवासू !*
*तहइं दिवस जहं भानु प्रकासू !!*
*जौ पैं सीय राम बन जाहीं !*
*अवध तुम्हार काज कछु नाहीं !!*
माता कहती हैं कि हे पुत्र *लक्ष्मण* ! यदि तुम्हारे भैया वन को जा रहे हैं तो तुम्हारा यहां अयोध्या में कोई काम ही नहीं है , क्योंकि जिस प्रकार सूर्य जहां प्रकाश देता है वही दिन होता है उसी प्रकार अयोध्या का अस्तित्व एवं ऐश्वर्य तो श्रीराम से ही है वे जहां रहेंगे वहीं अयोध्या हो जाएगी | माता के वचन एवं विचार को सुनकर *लक्ष्मण जी* प्रेम भाव से विह्वल हो गए उनकी आंखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी | एकटक अपनी मां का के मुखमंडल को निहारते हुए *लक्ष्मण जी* उनके द्वारा दी जा रही शिक्षा को अपने हृदय में समाहित करते जा रहे हैं | धन्य हैं *लक्ष्मण जी* एवं मैया सुमित्रा जी |
शेष अगले भाग में :---