*श्री लक्ष्मण जी* भगवान श्री राम को पूर्णता प्रदान करते हैं , यदि *लक्ष्मण* ना होते तो शायद भगवान श्री राम एवं भगवती सीता का मिलन कदाचित कठिन था | पुष्प वाटिका जब *लक्ष्मण जी* ने देखा कि:---
*"भये विलोचन चारु अचंचल"*
तभी ये भैया राम एवं सीताजी की मनोदशा को भांप गए थे | राजा जनक के क्षत्रिय वीरों से भरे दरबार में जब कोई भी विशाल शिव धनुष को नहीं हिला पाया तो जनक जी दुख एवं पश्चाताप से कहने लगे :---
*दीप दीप के भूपति नाना !*
*आये सुनि हम जो पन ठाना !!*
*देव दनुज धरि मनुज सरीरा !*
*विपुल वीर आये रनधीरा !!*
*अर्थात :-* जनक जी कहने लगे कि मेरे प्रण को सुनकर भिन्न भिन्न दीपों के , देशों के राजा एवं राजकुमार ही नहीं बल्कि देवता , राक्षस , यक्ष , गंधर्व भी सुंदर मनुष्यों का वेश बनाकर मेरी पुत्री सीता को व्याहने यहां आये परंतु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि :--
*"वीर विहीन मही मैं जानी"*
*लक्ष्मण जी* ने जनक जी के दुख भरे वचन सुने तो सोचा कि शायद भैया राम अब कुछ बोलेंगे ! *लक्ष्मण जी* ने राम जी की ओर देखा तो रामजी मुस्कुराने लगे ! वह मुस्कुरा कर मानो कह रहे हो ! *भैया लक्ष्मण !* तुम तो जानते हो मेरा संकोची स्वभाव है , शील एवं मर्यादा के नाते मैं कुछ कह ही नहीं सकता | *लक्ष्मण जी* भगवान की मुस्कुराहट का अर्थ मानो समझ गए और मन ही मन कहने लगे | भैया ! पुष्प वाटिका से ही मैं देख रहा हूं कि आपने सीता जी को अपने हृदय में स्थान दे दिया है और वाटिका में गौरी जी ने भी सीता जी वरदान दे दिया है कि :---
*मनु जाहि रांचेउ मिलिहि सो वरु सहज सुंदर सांवरो !*
*करुनानिधान सुजान सील सनेह जानत रावरो !!*
*लक्ष्मण जी* मन ही मन कहते हैं भैया ! अब हमें ही आपकी कामना और गौरी जी के आशीर्वाद को पूर्ण करने के लिए कुछ करना पड़ेगा | यह मन में विचार करके *भगवान श्री राम एवं भगवती सीता के मिलन का आधार बनकर लक्ष्मण भरी सभा में खड़े हो गए |* बिना आधार (नींव) के निर्माण हो ही नहीं सकता और *लक्ष्मण जी* को गुरुदेव ने पहले ही आधार बता दिया है , तो आज *लक्ष्मण जी* पुन: अपने दायित्वों का निर्वहन करने के लिए , राम सीता के वैवाहिक जीवन के आधार बन कर कहने लगे :--
हे महाराज जनक ! जिस सभा में एक भी रघुवंशी हो वहां कोई ऐसी अपमानजनक वचन अर्थात *"वीर विहीन मही"* नहीं कह सकता और यहां तो रघुकुलभूषण, रघुवंशमणि भैया श्रीराम स्वयं बैठे हुए हैं ! उनके होते हुए ऐसा संभाषण कदाचित उचित नहीं है |
*विचार कीजिए:--* यहां *लक्ष्मण जी* स्वयं को भी प्रस्तुत कर सकते थे कि मैं धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाऊँगा परंतु वह आधार है अतः भगवान श्रीराम को आगे कर दिया , वैसे भी वे *लक्षणों के धाम भी है* तो कुछ मर्यादा का भी ध्यान रखा कि पहले बड़े भैया के ही अवसर दिया जाय | जनक जी के संभाषण पर *लक्ष्मण जी* ने क्रोधित होकर मानो समस्त सृष्टि को अपना परिचय दे दिया कि पहचान लो मैं कौन हूँ ? *लक्ष्मण जी* गुरु विश्वामित्र एवं भैया श्रीराम को प्रणाम करके कहते हैं हे भैया ! आप तो मुझे और मेरे प्रभाव को जानते हैं ! यदि आपका आदेश मिल जाय तो इस ब्रह्माण्ड को गेंद की भाँति उठाकर कच्चे घड़े की भाँति फोड़ सकता हूँ फिर इस पुराने धनुष की क्या बिसात है ? *ब्रह्माण्ड को तो वही उलट - पलट सकता है जो स्वयं इसका आधार हो !*
*लक्ष्मण जी* का क्रोध देखकर श्री राम ने इशारे में उनको कहा कि :- *लक्ष्मण भैया !* यद्यपि तुम सब कर सकते हो परंतु अब शांत हो जाओ , क्योंकि तुम्हारा दायित्व पूर्ण हो चुका है तुमने स्वयं को "आधार" सिद्ध करते हुए "धनुष भंग" की आधारशिला रख दी है ! इसके लिए तुम्हारा धन्यवाद ! अब आगे का कर्तव्य मैं स्वयं पूर्ण करूँगा ! *इस प्रकार श्री राम विवाह का आधार तैयार किया लक्ष्मण जी ने |*
*शेष अगले भाग में*