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श्री लक्ष्मण चरित्र - भाग - २४ (चौबीस)

27 मई 2022

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पंचवटी में भगवान श्रीराम ने *लक्ष्मण जी* को जो दिव्य उपदेश दिया उसे *अध्यात्म रामायण* में *रामगीता* कहा गया है | *लक्ष्मण जी* के प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्री राम कहते हैं *लक्ष्मण* तुमने जो प्रश्न पूछे हैं वह है तो बहुत विस्तृत परंतु मैं संक्षेप में तुम्हें बताने का प्रयास कर रहा हूं | यह सारा संसार माया में ही लिप्त है सबसे पहले मैं तुम्हें माया के विषय में बता रहा हूं | *लक्ष्मण जी* ने कहा :- भगवन ! यह माया क्या है ? श्री राम कहते हैं कि *हे लक्ष्मण !*



*मैं अरु मोर तोर तैं माया !*

*जेहि बस कीन्हें जीव निकाया !!*



यह मैं हूं और यह मेरा है , यह तुम हो और यह तेरा है , है *लक्ष्मण* मैं और मेरा , तुम और तेरा का ही भाव ही *माया* है | इस मैं एवं मेरा के भाव से जल्दी जीव निकल नहीं पाता है , जो भी मनुष्य मैं एवं मेरा के भाव को त्याग कर इस चक्रव्यूह से बाहर निकल आता है *माया* उसका कुछ भी नहीं कर पाती | *लक्ष्मण जी* कहते हैं :- हे भगवन ! का विस्तार क्या है ? भगवान हंसते हुए कहते हैं कि *लक्ष्मण*:----



*गो गोचर जहं लगि मन जाई !*

*सो सब माया जानेहुँ भाई !!*



भगवान कहते हैं जहां तक मन भ्रमण करता है , जहां तक इंद्रियों के विषयों की पहुंचे है वह सब *माया* ही है | *लक्ष्मण जी* कहते हैं कि :-- हे भैया ! तब तो कुछ बचा ही नहीं ? आप इस माया का रहस्य हमें बताइए | भगवान ने कहा :- भाई ! माया केि दो भेद हैं विद्या एवं अविद्या !ं इन्हीं दोनों में संपूर्ण सृष्टि समाहित है | इन दोनों में अविद्या में दोष ही दोष हैं इसलिए इससे ग्रसित मनुष्य दुखों के सागर में डूब के रहते हैं | मनुष्य अविद्या के वशीभूत होकर संसार रूपी अंधे कुएं में से निकल नहीं पाता है | दूसरी जो विद्या है वह स्वयं नहीं संचालित होती बल्कि वह प्रभु से प्रेरित होकर जगत की रचना करती है , विद्या जगत की रचनाकार इसलिए है क्योंकि उसमें गुण होते हैं | यही *माया* है | भगवत्प्रेमी सज्जनों ! आज लगभग सभी लोग अविद्या के ही वशीभूत होकर इस संसार को ही अपना मान लेते हैं क्योंकि मनुष्य की *माया* कभी छूट नहीं पाती है | हे *लक्ष्मण* इस संसार में अपने ही परिवारी जनों के द्वारा बार-बार दुत्कारे जाने के बाद भी मनुष्य उसी के प्रेम में फंसा रहता है | यह माया की प्रबलता ही है | हे *लक्ष्मण* इस संसार में मनुष्य का यह हाल है कि:---



*रात दिन मारा गरियावा दुरियावा जात ,*

*फिर फिर मान मानि ताहि में धंसाई है !*

*कोई कहे साधु की शरण भक्ति ज्ञान सीखो ,*

*ताहि कटु बैन कहि जोर से रिसाई है !!*

*नीम कीट मल कीट ताहि सुख मानि रहेव ,*

*ताको छोड़ि अमृत न काहू को सुहाई है !*

*"अर्जुन" यह मूढ़ मन जग में सुख मानि रहेव ,*

*मिथ्या सुख मानि जनम विरथा गंवाई है !!*



*लक्ष्मण !* प्रिय जनों के द्वारा बार-बार दुत्कारे जाने पर भी उन्हीं के पास रहने वाले को यदि कोई समझाने का प्रयास भी करता है कि परिवार छोड़ दो तो वह क्रोधित हो जाता है | यही माया है | हे *लक्ष्मण* यह माया इस प्रकार नचाती है कि मनुष्य की ना तो कभी इच्छा भरती है ना ही उसे संतोष प्राप्त हो पाता है | इस संसार में मनुष्य सदैव और अधिक की ही कामना करता है | भगवान कहते हैं कि :- हे *लक्ष्मण* मनुष्य का यह हाल है कि :----



*और धन और जन और नारी और पूत ,*

*और विद्या और रूप रुचिर जवानी है !*

*और बड़ों पंच -परधान पद विश्व चाहि ,*

*और जब मिले तब और ही दीवानी है !!*

*और और चाह मांहिं ज्ञान भक्ति सबै भूलि ,*

*श्वान सम दौरत नहिं पावत ठिकानी है !*

*"अर्जुन" और और करत मृत्यु के ग्रास बनेव ,*

*शान अभिमान सब धूल में मिलानी है !!*



*लक्ष्मण* इस प्रकार मनुष्य और अधिक पाने की लालसा में दिव्य एवं दुर्लभ मानव जीवन की दिव्यता को भी भूल जाता है | यही माया है | हे *लक्ष्मण* मनुष्य को माया इस प्रकार अपने बस में रखती है कि वह काम , क्रोध , मोह , लोभ , अहंकार एवं मात्सर्य आदि अवगुणों के चक्रव्यूह में फंसकर दिन-रात नैतिक - अनैतिक कृत्य करता रहता है | *लक्ष्मण जी* ने कहा भैया ! इस माया से कोई बचा है या नहीं ? भगवान ने कहा *हे लक्ष्मण* इस माया से बिरले ही मनुष्य बच पाते हैं ! जिसने इस संसार को मिथ्या मान लिया वहीं माया से बच पाता है , और *लक्ष्मण* यह भी सत्य है कि कितना भी बड़ा योगी , ज्ञानी , वैरागी एवं तपस्वी हो यह माया उसे (भले ही कुछ पलों के लिए ही सही) अपने जाल में फंसाती अवश्य है | *लक्ष्मण* यह संसार ही मायामयं है , यहां चारों और माया का ही प्रसार है , इसलिए इस माया से स्वयं को बचाने के लिए हर क्षण सजग एवं सचेत रहते हुए मुझमे (भगवान) एवं गुरु की शरण ही एकमात्र साधन है | *लक्ष्मण* ने कहा भैया ! आज मैं कृतकृत्य हो गया , अब आप हमें यह बताने की कृपा करें कि *ज्ञान क्या है ?* लक्ष्मण की बात पर मुस्कुराते हुए श्री राम कहते हैं :-प्रिय अनुज ! अब मैं तुम्हें ज्ञान के विषय में बताने जा रहा हूं ध्यान से सुनो :----

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रचनाएँ
श्री लक्ष्मण चरित्र
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त्रेतायुग में पृथ्वी का भार उतारने के लिए अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट महाराज दशरथ जी के यहाँ श्रीहरि नारायण ने चार रूपों में अवतार लिया ! शेषावतार श्री लक्ष्मण जी जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त श्री राम जी की छाया बनकर रहे ! लक्ष्मण जी का जीवन चरित्र बहुत ही मर्यादित एवं सेवाभाव से परिपूर्ण रहा ! श्री लक्ष्मण जी की जीवनगाथा लिखने का साहस तो हम में नहीं है क्योंकि लक्ष्मण जी "सकल जगत आधार" हैं फिर भी हमारी ओर से एक पिपीलिका प्रयास के रूप में श्री लक्ष्मण जी का चरित्र प्रस्तुत है
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श्री लक्ष्मण चरित्र - भाग - २४ (चौबीस)

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