श्री राम जी की चरण पादुका लेकर भरत जी अयोध्या लौटे और कुछ दिन चित्रकूट में रहकर श्री राम ने वह निवास स्थान त्याग दिया क्योंकि वह स्थान सभी लोग जान गये थे | वहाँ से चलकर अत्रि आदि मुनियों का आशीर्वाद लेते हुए वन पथ पर चलकर अनेक मुनियों के आश्रम में वास करते हुए श्री राम *लक्ष्मण* एवं सीता जी अगस्त्य जी के आश्रम में पहुंचे | स्वागत सत्कार करके अगस्त जी ने वहाँ श्रीराम को उपदेश तो दिया ही साथ राम एवं *लक्ष्मण* को दिव्यास्त्र भी प्रदान किये | श्रीरामजी के द्वारा रहने का स्थान पूछने पर अगस्त्य जी ने कहा कि हे भगवन ! आप रहने का स्थान पूछ रहे हैं तो सुनिये :---
*है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ !*
*पावन पंचवटी तेहि नाऊँ !!*
*दंडक वन पुनीत प्रभु करहूँ !*
*उग्र साम मुनिवर कर हरहूँ !!*
*वास करहुँ तहँ रघुकुल राया !*
*कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया !!*
अगस्त जी कहते हैं कि हे भगवन ! यहां एक पवित्र स्थान पंचवटी है आप वही निवास करते हुए मुनियों पर दया करें | अगस्त जी के कहने पर भगवान पंचवटी पहुंचे | कर्मयोगी *लक्ष्मण जी* ने पर्णकुटी का निर्माण किया और वहीं निवास करने लगे | एक दिन श्रीरामजी बैठे हुए थे उनके चरणों में बैठकर *लक्ष्मण* कहते हैं | हे भैया !
*सुर नर मुनि सचराचर साईं !*
*मैं पूछऊँ निज प्रभु की नाईं !!*
*मोहि समझाइ कहउं सोई देवा !*
*सब तजि करहुँ चरन रज सेवा !!*
*कहहुँ ज्ञान विराग अरु माया !*
*कहहुं सो भगति करहुं जो दाया !!*
आज *लक्ष्मण जी* भगवान श्रीराम से सृष्टि के गूढ़ विषय (ज्ञान वैराग्य एवं माया ) का प्रश्न कर रहे है | भगवत्प्रेमी सज्जनों ! यह प्रत्येक मनुष्य का परम कर्तव्य होता है कि जब भी समय मिले वह स्वयं या स्वयं के जीवन के विषय में चिंतन करते हुए अपने श्रेष्ठ जनों से उन गूढ़ रहस्यों के विषय में सत्संग अवश्य करें | परंतु आज कलयुग के प्रभाव से प्रभावित मनुष्य को यदि थोड़ा समय मिल भी जाता है तो वह भौतिक साधनों के माध्यम से मनोरंजन मे लिप्त होकर के वह समय व्यर्थ कर देता है | सत्संग में जिज्ञासु बनकर जाने पर मनुष्य के समस्त जिज्ञासाओं का समाधान श्रेष्ठ जनों के द्वारा किया भी जाता है | जिज्ञासु कैसा होना चाहिए यह हमें यहां देखना चाहिए | *लक्ष्मण जी* यद्यपि ज्ञान , वैराग्य एवं कर्म की साक्षात मूर्ति हैं परंतु जब उन्होंने प्रभु राम के समक्ष अपनी जिज्ञासा रखी तो उनका भाव देखिए:- *मैं पूछउँ निज प्रभु कि नाई* अर्थात *लक्ष्मण जी* कहते हैं कि हे भगवन ! मैं यह जिज्ञासा आपको अपना स्वामी एवं स्वयं को आपका सेवक समझ कर प्रस्तुत रहा हूं | कहने का तात्पर्य है कि कुछ भी पाने के लिए स्वयं को छोटा बनाना ही पड़ता है , क्योंकि लेने वाले से देने वाला सदैव श्रेष्ठ होता है | *लक्ष्मण जी* ने मानव मात्र के कल्याण के लिए आज प्रभु श्री राम से कहा हे भगवन ! आप हमें ज्ञान , वैराग्य व माया के विषय में बताइए | मैं आपकी उस भक्ति के विषय में जानना चाहता हूं जिस पर रीझकर आप भक्तों पर दया करते हैं | हे प्रभु ! जीव एवं ईश्वर में क्या भेद है ?:यह भी आप बताने की कृपा करें | *लक्ष्मण जी* की विनती सुनकर सौम्य स्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहते हैं कि :- हे लक्ष्मण ! आज जो तुमने हमसे प्रश्न किया है उसका लाभ सारे संसार को मिलेगा | भगवान श्री राम के बचनों को श्रवऩ करने से पहले यह जान लिया जाय *लक्ष्मण जी* ने आज यह प्रश्न क्यों किया ? भगवत्प्रेमी सज्जनों ! चित्रकूट की घटना एवं अपने कृत्यों से *लक्ष्मण जी* बहुत दुखी थे | *लक्ष्मण जी* के दुख का कारण मात्र उनका मोह था | यदि मनुष्य को दुखों से बचना है तो मोह का त्याग करना बहुत आवश्यक है , जब तक मनुष्य मोह के वशीभूत रहता है तब तक उसे दुखों से छुटकारा नहीं मिल सकता है | मोह का त्याग करने के लिए एकमात्र उपाय है ज्ञान की प्राप्ति | जब मनुष्य को स्वयं का का ज्ञान हो जाता है तो उसका मोह समाप्त हो जाता है | *लक्ष्मण जी* ने अपने दुखों का कारण मोंह से छुटकारा पाने के उद्देश्य से भगवान श्री राम से यह प्रश्न किया | मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम करते हैं हे *लक्ष्मण* मैं तुम्हारी मन:स्थिति समझ रहा हूं आज मैं संक्षेप में तुम्हें यह सारा भेद समझाने का प्रयास करूंगा |