*लक्ष्मण जी* तो जान ही गये थे कि राजा भरत अपनी संपूर्ण सेना के साथ चित्रकूट आ गए हैं | *लक्ष्मण जी* का दृष्टिकोण परिवर्तित हो गया , अपने प्रभु श्रीराम की असुरक्षा की भावना उनके हृदय में घर बना गई | वे श्री राम के पास पहुंचे तो परंतु पूर्व संस्कार के कारण कुछ (भरत के प्रति ) कह नहीं पाए | *माया* जब आक्रमण करती है तो *जीव* को यदि कोई बचा सकता है तो वह उसके संस्कार ही हैं | *लक्ष्मण जी* का संस्कार उनको *माया* के आक्रमण से बचा रहा है | भगवान श्री राम बैठे हैं तभी कुछ बनवासियों ने आकर सेना सहित भरत के आगमन की सूचना बताई | श्रीराम सोच में पड़ गये कि सेना लेकर भरत के आने का प्रयोजन क्या है ? श्री राम भरत के विषय में चिंतन कर रहे हैं | जब हम किसी विषय पर चिंतन में मग्न हो जाते है तो चिंतन के भाव भी चेहरे पर परिलक्षित होने लगते हैं | आज श्रीरामजी भरत के आगमन के विषय पर चिंतन कर रहे हैं तो उनके चेहरे पर चिंता स्पष्ट दिखने लगी | *लक्ष्मण जी* ने भगवान को चिंतित देखकर के हाथ जोड़कर कहा कि हे भगवन ! :----
*बिनु पूछे कछु कहऊँ गोसाईं !*
*सेवक समय न ढीठ ढिठाई !!*
*तुम्ह सर्वग्य सिरोमनि स्वामी !*
*आपनि समुझि कहउँ अनुगामी !!*
*लक्ष्मण जी* भगवान श्रीराम से कहते हैं कि :- हे प्रभो ! यद्यपि आपने हमसे कुछ पूछा नहीं है फिर भी मैं कुछ कहना चाहता हूं | यह मेरी ढिठाई भी हो सकती है परंतु यदि समय पर सेवक उचित कहे तो उसे ढीठ नहीं कहा जाता | हे प्रभो ! आपको सर्वग्य हैं सब कुछ जानते हैं परंतु मैं तो सेवक ठहरा ! मेरे हृदय में जो बात है वह मैं कहूंगा अवश्य | हे करुणावरुणालय ! आप तो समदर्शी हैं शत्रु एवं मित्र में भी भेद नहीं कर पाते हैं तथा अपने ही समान सबको मानना आपका स्वभाव है परंतु हे भगवन ! प्रत्येक मनुष्य आप की भांति नहीं हो सकता , क्योंकि यह संसार विषय वासनाओं से युक्त है | *लक्ष्मण जी* कहते हैं :---
*जगत में जीव भयउ संसारी !!*
*विषय वासनाओं में फंसकर मगन भये नर नारी !!*
*नीति बतैया नीति को भूले , भूले बल बलधारी !*
*काम क्रोध मद लोभ से जकड़े , अपनी नियत विसारी !!१!!*
*प्रभुता पाकर मद में झूमे , नघुष भये ब्यभिचारी !*
*भयो चंद्रमा गुरुतियगामी , बेन अधम भे भारी !!२!!*
*देवराज अरु सहसबाहु भी , बच न सके बलधारी !*
*नृपति सत्यव्रत भये त्रिशंकु , अपने मद अनुसारी !!३!!*
*आज भरत प्रभुता के मद में , सेना साजि संवारी !*
*"अर्जुन" जग में प्रभुता का मद सब मद ते अधि भारी !!४!!*
*लक्ष्मण* की बात सुनकर श्रीराम ने कहा | *हे लक्ष्मण* ! तुम क्या कह रहे ? हो विचार कर लो कि तुम यह वक्तव्य भरत के लिए दे रहे हो | *लक्ष्मण जी* ने कहा भैया क्षमा कीजिएगा ! मैं अवश्य ही यह भरत के लिए ही कह रहा हूं क्योंकि वह अब आपका प्यारा भरत नहीं रहा बल्कि अब अयोध्या का राजा भरत है | भैया ! उससे राजमद संभाला नहीं गया और वह बन में आप को असहाय समझ कर मारने आ रहा है , जिससे कि उसका राज्य निष्कंटक हो जाय | वह यह समझ रहा होगा कि श्री राम आज बन में अकेले हैं उन्हें मार देना ही ठीक है नहीं तो चौदह वर्षों के बाद पुनः अयोध्या का राज्य उन्हें वापस करना पड़ेगा | श्री राम भगवान ने कहा कि *लक्ष्मण* भरत को मैं जानता हूं वह ऐसा सोच भी नहीं सकता | *लक्ष्मण जी* ने कहा :- भैया ! यदि ऐसा न होता तो सेना साथ में क्यों लेकर आता ?? विचार कीजिएगा की *माया* कैसे आक्रमण करती है | पहले श्री राम के प्रति *मोह* हुआ *लक्ष्मण जी* को श्री राम की सुरक्षा का *भय* हो गया | *माया* जब आक्रमण करती है तो मनुष्य कितना भी विवेकी क्यों न हो वह मूढ़ हो जाता है | आज *लक्ष्मण* को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भरत श्रीराम का अनिष्ट करने के उद्देश्य चित्रकूट आ रहा है | अपने प्रिय के अनिष्ट की आशंका में *लक्ष्मण जी* स्वयं को संभाल नहीं सके और उन पर *क्रोध* ने धावा बोल दिया | *लक्ष्मण जी* क्रोध में भरकर कहते हैं | भरत नें सब कुछ तो ठीक किया परंतु श्री राम को वन में अकेला समझना उसकी बहुत बड़ी भूल है | गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :---
*एतना कहत नीति रस भूला !*
*रन रस विटपु पुलक मिस फूला !!*
*प्रभु पद बंदि सीस रज राखी !*
*बोले सत्य सहज बल भाषी !!*
*लक्ष्मण जी* को जब *क्रोध* आया तो वे समस्त नीतियां भूल गए | जब मनुष्य *क्रोध* में होता है तो उसे संसार के सारे नाते - रिश्ते , संस्कृति - संस्कार आदि कुछ भी याद नहीं रह जाता | *क्रोध* की आँधी सब कुछ उड़ा देती है | हमने क्या बिगाड़ा ? इसका आंकलन क्रोध शांत होने के बाद ही हो पाता है परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | आज *लक्ष्मण जी* क्रोधातिरेक में भरत का प्रेम एवं नाता सब भूल गए उनका शरीर वीररस से भर गया और उन्होंने भगवान श्री राम के चरणों की वंदना करके अपने बल का बखान करना प्रारंभ कर दिया | *माया* के क्रम को समझने की आवश्यकता है | भगवत्प्रेमी बंधुओं | जब *मोह* हुआ तो *भय* उत्पन्न हुआ , फिर *क्रोध* ने अपना प्रभाव दिखाया *क्रोध* जब मनुष्य पर प्रभावू हो जाता है तो *माया* का अगला अनुचर *अहंकार* मनुष्य को अपने प्रभाव में ले लेता है | *क्रोध* में मनुष्य को अपने अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता | *अहंकार* उत्पन्न होने पर *एको$हं द्वितीयो नास्ति* की भावना मनुष्य को पतन की ओर ले कर चल पड़ती है | यहां पतन का अर्थ यह नहीं हुआ कि मनुष्य की मृत्यु हो जाती है या मनुष्य समाप्त हो जाता है बल्कि पतन का अर्थ यह है कि मनुष्य *अहंकार* में अपने वक्तव्य को नहीं संभाल पाता है जिससे कि वह समाज में दूसरों की नजरों से गिर जाता है जिसे उसका पतन ही समझा जाना चाहिए | आज *लक्ष्मण जी* क्रोध के वशीभूत होकर अहंकार में अपने ही बल का बखान करने लगे |
*शेष अगले भाग में:----*