केवट की नाव से गंगा पार करके श्री राम *लक्ष्मण* एवं सीता जी वन पथ पर आगे बढ़े | यहां पर तुलसीदास जी ने लक्ष्मण जी को बहुत सुंदर उपमा दी :---
*आगे राम लखन बने पाछे !*
*तापस वेष विराजत काछे !!*
*उभय बीच सिय सोहति कैसे !*
*ब्रह्म जीव बिच माया जैसे !!*
वन पथ पर चलते हुए सबसे आगे श्रीराम हैं जो कि ब्रह्म हैं , ब्रह्म के पीछे पीछे माया ही रहती है और सीता जी ही भगवान श्री राम की माया हैं तो तो श्री राम के पीछे सीता जी हैं , एवं माया के पीछे *लक्ष्मण जी* हैं , उन्हें तुलसीदास *जीव*;की संज्ञा देते हैं | यहां पर तुलसीदास जी ने बहुत ही गूढ़ शब्द लिखा है | *जीव एवं ब्रह्म* के बीच *माया* ही रहती है | *जीव* जब पृथ्वी पर आता है तो यही *माया* उसे अपने आवरण में ढंक लेती है | गर्भ में *ब्रह्म* का दर्शन एवं सामीप्य पाने वाला *जीव* इस धरती पर आकर *ब्रह्म* को भूल जाता है क्योंकि :---
*भूमि परत भा ढाबर पानी !*
*जिमि जीवहिं माया लपटानी !!*
इस प्रकार *जीव एवं ब्रह्म* के बीच *माया* का विशाल आवरण होता है | *ब्रह्म* को प्राप्त करने के लिए *जीव* को काम , क्रोध , मद , लोभ का त्याग करते हुए भगवत्पथ पर अग्रसर होना पड़ता है , क्योंकि *माया* के अमोघ अस्त्र काम , क्रोध , मोह , लोभ , अहंकार एवं मात्सर्य आदि जिसके हृदय में हो वह कभी भी भगवत्पथ का पथिक हो ही नहीं सकता | *लक्ष्मण जी* यदि आज भगवान श्री राम के साथ हैं तो उन्होंने इन षड्विकारों का त्याग किया है | श्री राम के साथ बन की यात्रा करने के लिए उन्होंने *उर्मिला* के रूप यौवन के आकर्षण को भुला कर *काम भाव* पर विजय प्राप्त करते हुए *क्रोध* का भी त्याग किया | यदि वे चाहते तो अपने *क्रोध* का प्रदर्शन कैकेई एवं महाराज दशरथ के समक्ष कर सकते थे परंतु उन्होंने उस समय *क्रोध* पर विजय प्राप्त की | वे चाहते तो अयोध्या में रहकर संपूर्ण राजसिक सुविधाओं का उपयोग कर सकते थे क्योंकि वनवास उनके लिए नहीं था परंतु उन्होंने राजसिक सुख-सुविधाओं का *लोभ* भी श्री राम जी के लिए त्याग दिया | *मोह* तो जैसे *लक्ष्मण जी* को छू भी नहीं गया था | माता-पिता , भाई- बंधु , राज्य - प्रजा का *मोह* उनको क्यों नहीं था ? क्योंकि *लक्ष्मण जी* ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि *"गुरु पितु मातु न जानऊँ काहू"* तथा उन्होंने संसार में अपना एक ही नाता माना ::- *"मोरे सबुइ एक तुम स्वामी"* जब *जीव* का एक ही लक्ष्य रह जाता है ईश्वर प्राप्ति तो उसे *मोह* का बंधन कदापि नहीं बाँध सकता |
पाँच वर्ष के बालक *ध्रुव* के मन में माता जी के मुखारविंद से "परम पिता" का वर्णन सुनकर उन्हें प्राप्त करने के लिए माता एवं संसार का मोह त्याग कर वनपथ पर चल देना ही भगवत्प्राप्ति का साधन बना | जब तक जीव *मोहरूपी* जाल से बाहर नहीं निकल पाता तब तक उसे भगवत्प्राप्ति नहीं हो सकती | संसार में जितनी भी व्याधियां मनुष्य को घेरती है उसका प्रमुख कारण *मोह* को बताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :---
*मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला !*
*तेहि ते पुनि उपजहिं बहु सूला !!*
*लक्षमण जी* ने *मोह* का त्याग किया तब वे भगवान के साथ वन पथ पर सहयात्री हो पाये | वन यात्रा प्रारंभ करने के पहले जब राजसिक वस्त्रों का त्याग करना पड़ा तो उन्होने अपने राजकुमार होने का *अहंकार* त्याग दिया | राजसिक *अहंकार* का त्याग करके *लक्ष्मण जी* ने जोगिया वेश धारण कर लिया | यहां यदि उनको स्वयं के राजकुमार होने का तनिक भी *अहंकार* होता तो शायद वे श्री राम की सेवा में नहीं जा सकते थे | जब इन सब दुर्गुणों का त्याग *जीव* करने में सक्षम हो पाता है तभी उसे भगवान का सानिध्य प्राप्त होने का अवसर मिलता है | जिसके मन में यह दुर्गुण नहीं होंगे उसीलका हृदय निर्मल हो सकता है और भगवान ने स्वयं घोषणा की है कि :-
*निर्मल मन जन सो मोहि पावा !*
*मोहि कपट छल छिद्र न भावा !!*
भगवान के समीप वही जा सकता है जिसका मन शिशु की भांति निर्मल हो और *लक्ष्मण जी* अपने स्वामी एवं बड़े भैया के लिए शिशुवत ही थे इसलिए उन्हें श्रीराम का सामीप्य प्राप्त हो पाया | *जीव* तभी *ब्रह्म* की ओर उन्मुख हो सकता है जब वह षडरिपुयों को शांत करने मैं सक्षम हो | कैकेई को कौशल्या से अधिक राम का प्रिय कहा गया है परंतु उनको *लोभ* ने जकड़ लिया | दशरथ जी के तो श्री राम जी प्राण ही थे परंतु उनको *मोह* ने अपने पाश में बांध लिया था , इसी प्रकार सबको कुछ न कुछ रोग लग गया परंतु *लक्ष्मण जी* इन सभी कामादिक शत्रुओं को परास्त करने में सफल हुए इसीलिए उन्हें प्रभु श्री राम का सानिध्य प्राप्त हुआ | *लक्ष्मण जी* को भगवान का परम भक्त भी कहा गया है क्योंकि उनमें भक्तों के सभी लक्षण विद्यमान थे | उत्तम भगवद्भक्त की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि :--
*न काम कर्मवीजानां यस्य चेतासि संभव: !*
*वासुदेवैकनिलय: स वै भागवतोत्तम: !!*
अर्थात जिसके मन में विषय भोग की इच्छा , विषयार्थ कर्म प्रवृत्ति और उनके बीज ---- वासनाओं का उदय नहीं होता है और जो एकमात्र वासुदेव (भगवान) में ही निवास करता है अर्थात जो वचन मन एवं कर्म से अपने आराध्य का ही चिंतन किया करता है वह उत्तम भगवद्भक्त है | और *लक्ष्मण जी* में वे सभी गुण परिलक्षित होते हैं , क्योंकि *लक्ष्मण जी* ने सब त्याग करके भगवान को पकड़ा है |
प्रायः लोग भगवान से कामनाओं की पूर्ति के लिए निवेदन करते हैं , भगवान से मांग कर स्वयं को भक्त एवं पुजारी दिखाने का प्रयास करते हैं परंतु उनकी कामनाएं पूर्ण ही हो जाएगी यह आवश्यक नहीं है | वास्तव में भक्त वही है जो *लक्ष्मण जी* की भांति सारे सुख ऐश्वर्य का त्याग करके अपने लिए सिर्फ और सिर्फ भगवान को ही मांग लेता है | इसीलिए *लक्ष्मण जी* भक्तों की श्रेणी में श्रेष्ठ है क्योंकि उन्होंने भगवान के लिए सब कुछ त्याग दिया |
*शेष अगले भाग में:----*