*श्री लक्ष्मण जी* ने जो आधारशिला रखी उसी पर चलकर श्री राम ने विशाल शिव धनुष का खंडन करके सीता जी द्वारा जयमाला ग्रहण की | जनकपुर वासियों में अपार प्रसन्नता फैल गई , महाराज जनक एवं महारानी सुनैना का जीवन धन्य हो गया | दुष्ट राजाओं को छोड़कर शेष सभी प्रसन्न होकर पुष्प वर्षा कर रहे थे | परंतु अभी प्रसन्नता भी ढंग से प्रसन्न नहीं हो पाई थी कि धनुषभंग की कर्कश आवाज सुनकर महेन्द्र पर्वत से नारायण के आवेशावतार भगवान श्री परशुराम जी जनक सभा में आकर खण्डित शिव धनुष को देखा और क्रोधित होकर अपराधी को खोजने लगे |
भगवान श्रीराम ने मीठे वचनों में उनसे कहा कि :-- हे भगवन ! शिव धनुष को भंग करने का दुष्कर कार्य करने वाला कोई आपका दास ही होगा , क्योंकि किसी दूसरे में इतना सामर्थ्य हो ही नहीं सकता | क्रोध में भरे हुये भगवान परशुराम ने श्रीराम को डांटते हुए कहा कि :- हे राम ! इस भरी सभा में मेरे प्रश्न का उत्तर तुम ही दे रहे हो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम्हीं अपराधी हो और तुमने ही शिव धनुष को भंग करने का अपराध किया है | अतः तुम सावधान हो जाओ |
अभी तक तो *लक्ष्मण जी* चुप रहे परंतु जैसे ही परशुराम जी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के ऊपर आक्रामक हुए उसी समय *लक्ष्मण जी* का भगवान श्री राम के प्रति सेवा भाव जागृत हो गया | सेवक का अपने स्वामी (आराध्य) के प्रति कैसा भाव होना चाहिए यह गोस्वामी बाबा बताते हुए मानस में लिखते हैं कि अपने आराध्य की निंदा कभी नहीं सुनी चाहिए |
*हरि हर निंदा सुनइ जो काना !*
*होइ पाप गोघात समाना !!*
*काटिअ तासु जीभ जो वसाई !*
*कान मूंदि न त चलइ पराई !!*
*अर्थात :-* अपने आराध्य , श्री हरि नारायण विष्णु एवं भगवान शंकर की निंदा सुन कर के भी जो विरोध नहीं करता है उसे गौ हत्या के समान पाप लगता है | गोस्वामी बाबा ने तो यहां तक लिख दिया है कि यदि अपना बस चले तो निंदा करने वाली की जिह्वा काट लेनी चाहिए और यदि निंदा करने वाला बलवान है और स्वयं मैं उसका विरोध करने की शक्ति ना हो तो अपने कानों को बंद करके वहां से हट जाना चाहिए |
जनक जी की सभा में *लक्ष्मण जी* अपने भैया राम को चोर कहे जाने पर क्रोधित हो गए क्योंकि अपने स्वामी की निंदा सुनना गौ हत्या के बराबर पाप है यही भाव मन में जागृत होते ही *लक्ष्मण जी* परशुराम जी से कहने लगे ! हे ब्राह्मण देवता ! आपका नियम तो बड़ा अच्छा है ! हमारे भैया ने मीठे मीठे वचनों में आपसे कुछ कह दिया तो आपने उनको चोर ठहरा दिया ? एक पुराने शिव धनुष को खंडित देख कर के आपको इतना क्रोध क्यों हो रहा है ? जबकि आप तो जानते हैं कि मैंने आपके ही समक्ष बचपन में बहुत ही धनुहियां तोड़ डाली थी तब तो आपने इतना क्रोध कभी नहीं किया ? इस धनुष में विशेष क्या है ?
*विचार करने लायक बात है कि* जब से *लक्ष्मण जी* का जन्म हुआ तब से लेकर जनकपुर तक कहीं कोई ऐसी घटना ऐसा विवरण नहीं मिलता जहां परशुराम जी से और *लक्ष्मण जी* से संपर्क हुआ हो | तो लक्ष्मण जी परशुराम जी से ऐसा क्यों कहते हैं कि बचपन में आपके समक्ष बहुत धनुहिया तोड़ी है | *इस विषय पर अनेकानेक ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद एक कथानक प्राप्त होता है कि :--*
जिस समय परशुराम जी क्षत्रियों का वध कर रहे थे तो उनके अस्त्र-शस्त्र खड्ग , गदा , तलवार , धनुष -;बाण इत्यादि अपने आश्रम में इकट्ठा करते जाते थे | अस्त्र शस्त्रों का भार पृथ्वी मैया को असह्य होने लगा ! तब उन्होंने एक ब्राह्मणी का वेश बनाया और शेषनाग जी को पांच वर्षीय पुत्र बनाकर के परशुराम जी के आश्रम में आश्रय लेने के लिए पहुंच गईं | ब्राह्मणी को निराश्रित देखकर के आश्रम की सेवा में परशुराम जी ने उसको आश्रम में आश्रय दे दिया | पाँच वर्षीय बालक बने शेषनाग जी ने उसी आश्रम में रहते हुए एक-एक करके सभी अस्त्र शस्त्रों को नष्ट किया | परशुराम जी को जब इसका पता लगा तो उन्होंने कहा कि तुम कौन हो ? क्योंकि पांच वर्षीय साधारण बालक इतने विशाल अस्त्र शस्त्रों का विनाश नहीं कर सकता | तब पृथ्वी मैया एवं शेषनाग जी अपनी स्वरूप में आकर उनको दर्शन देते हैं | परशुराम जी ने पृथ्वी मैया को प्रणाम करके उनके ऊपर भार बढ़ाने के लिए क्षमा मांगी और शेषनाथ जी को इन अस्त्र शस्त्रों को नष्ट करने के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया |
आज शेषनाग जी *लक्ष्मण जी* के अवतार में परशुराम जी के समक्ष खड़े होकर उसी घटना की याद दिलाते हुए इशारा करते हैं कि हे परशुराम जी पहचानो मैं कौन हूं ? परंतु परशुराम जी *लक्ष्मण जी* को पहचान नहीं पाते क्योंकि उस समय वह अपार क्रोध में थे | *क्रोध मनुष्य को अंधा कर देता है , जिस समय मनुष्य क्रोध के वशीभूत होता है उसकी सोचने समझने की शक्ति विलुप्त हो जाती है |*
आज जनक की सभा में उसी क्रोध के वशीभूत होकर के परशुराम जी नारायणावतार भगवान श्री राम एवं शेषावतार लक्ष्मण जी को नहीं पहचान पा रहे इसीलिए क्रोध को घातक कहां गया है |
*शेष अगले भाग में*