*लक्ष्मण जी* को गोस्वामी तुलसीदास जी ने *चातक* कहा है और गोस्वामी जी का यह चतुर *चातक* देखना हो को *दोहावली* में देखा जा सकता है , क्योंकि यह *चातक* तो स्वयं गोस्वामी जी का अंतः करण हा जो *चातक* के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है | गोस्वामी जी ने *चातक* की स्वाति नक्षत्र के जल के प्रति प्रेम की बड़ी सुंदर चर्चा *दोहावली* में की है ! जो इस प्रकार है :----
*चातक* गर्मी में जा रहा था उसे गर्मी के कारण जोरों से प्यास लगी थी पर वह जल पी नहीं सकता था , उसने सोचा कि वृक्षों की घनी छाया में थोड़ी देर विश्राम कर लिया जाय | उसने एक आम का बाग देखा जिसकी बहुत घनी छाया थी *चातक* ने सोचा कि इस आम्र वृक्षों की सघन छाया में थोड़ी देर विश्राम करके शरीर की थकान मिटा ली जाए | वृक्षों की शीतलता से थोड़ा प्यास भी कम हो जाएगी , परंतु बाग के समीप पहुंचते ही उसके मन में विचार आया और अपने प्रश्न का उत्तर पाने के लिए बाग की रखवाली करने वाले रखवाले को *चातक* ने आवाज दी | रखवाले ने *चातक* से कहा इसी बाग में आ जाओ ! तो *चातक* ने कहा भैया ! जब तक आप मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं देंगे तब तक मैं बाग में नहीं आ सकता |
*आश्चर्य से भरा हुआ रखवाला *चातक* की बात सुनकर बाहर आया तो *चातक* ने उससे पूछा | भैया ! यह बताओ यह जो आम के वृक्ष हैं ये किस जल से सींचे गए हैं | रखवाले को क्रोध आ गया उसने कहा :- अरे मूर्ख ! बाग को भी सींचने का कोई नियम होता है क्या ? चाहे वर्षा का जल हो या कुंएं का हमको तो पानी देने से मतलब है , जो हमें मिल जाता है उसी से हम वृक्षों को सींच देते हैं | गोस्वामी तुलसीदासजी ने दोहावली में लिखा :----
*उष्न काल अरु देह खिन ,मगपंथी तन ऊख !*
*चातक बतियां न रूचीं , अन जल सींचे रूख !!*
*अन जल सींचे रूख की , छाया ते बरु घाम !*
*तुलसी चातक बहुत हैं यह प्रवीण को काम !!*
*चातक* को लगा कि ये वृक्ष स्वाति नक्षत्र के जल से नहीं सींचे गए हैं इसलिए *चातक* ने निर्णय लिया कि यदि वृक्ष स्वाति नक्षत्र के जल से सींचे गए होते तो मैं उनकी छाया में विश्राम कर लेता परंतु स्वाती जल से च्युत वृक्षों की छाया में विश्राम करने की अपेक्षा गर्मी में मर जाना ही श्रेयस्कर है |
तुलसीदास जी कहते हैं कि स्वयं को *चातक* कहने वाले तो बहुत हैं परंतु ऐसी निष्ठा वाला *चातक* जो अपनी निष्ठा के लिए जीवन के बड़े-बड़े सुख का त्याग करके जीवन के अपेक्षा मृत्युतुल्य कष्ट स्वीकार करने वाला कोई विरला ही होगा ! ऐसा जो भी होगा वही है चतुर *चातक* !
रामायण गोस्वामी जी के चतुर *चातक* हैं *लक्ष्मण जी* , जिन्होंने भगवान श्रीराम को स्वाती नक्षत्र मान करके उनके प्रति समर्पित होकर राज्य , वैभव का त्याग करके वन की राह ली | क्योंकि *लक्ष्मण* जैसा *चातक* रामजी रूपी स्वाती के बिना जीवित कैसे रह सकता था ? जिस प्रकार स्वाति नक्षत्र के जल के अतिरिक्त अन्य जलराशियाँ भी *चातक* के लिए व्यर्थ होती है उसी प्रकार अयोध्या की अनेक सुख - सुविधाएं भी श्री राम के बिना *लक्ष्मण* के लिए व्यर्थ थी | इसीलिए गोस्वामी जी ने *भरत जी* को हंस एवं *श्री लक्ष्मण जी* को *चातक* की उपमा दी है |
*शेष अगले भाग में*