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श्री लक्ष्मण चरित्र - भाग - २१ (इक्कीस)

27 मई 2022

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*लक्ष्मण जी* ज्ञानवान होकर भी आज एक साधारण मनुष्य की भाँति अपने बल का बखान करने लगे | अपने बल का बखान करने पर जो परशुराम जी की हंसी उड़ाते थे आज वही *लक्ष्मण* क्षणिक अहंकार के वशीभूत होकर श्रीराम के समक्ष का बखान करने लगे | *माया* के अनुचर काम , क्रोध , मोह आदि जब मनुष्य को घेरने लगते हैं तब समय-समय पर सद्गुरु ही उसे सावधान करने का प्रयास करते हैं | जो मनुष्य सद्गुरु के वचन मान लेता है वह तो संभल जाता है और जो उचित समय तक सद्गुरु के वचनों को अनसुना कर देते हैं उनके पास बाद में पश्चाताप करने के अतिरिक्त कोई मार्ग ही नहीं बचता है | जब *लक्ष्मण जी* को श्रीराम की सुरक्षा का भय हुआ , मोह हुआ , एवं क्रोध हुआ तब सद्गुरु रूप में श्री राम ने उनको समझाने का प्रयास किया परंतु *लक्ष्मण जी* नहीं समझे और क्रोध के वशीभूत *लक्ष्मण* को अहंकार ने भी जकड़ लिया | यद्यपि यह सत्य है कि *लक्ष्मण जी* प्रकाण्ड विद्वान हैं जिसका दर्शन निषादराज से संवाद में स्पष्ट झलकता है परंतु आज *लक्ष्मण जी* क्रोध में इतने भर गये हैं कि उन्हें कुछ भी न तो याद रह गया और न कुछ याद ही करना चाहते हैं | क्रोध को ह.दय जलाने वाले पित्त की संज्ञा देते हुए गोस्वामी जी लिखते हैं :-- *"क्रोध पित्त नित छाती जारा"* क्रोध के विस्तृत प्रभाव तो दर्शाते हुए योगेश्वर श्री कृष्ण गीता में कहते हैं :---

*क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः !*
*स्मितिभ्रंशात् बुध्दिनाशः बुध्दिनाशात् प्रणश्यति !!*

अर्थात :- *क्रोध* से पूर्ण *मोह* उत्पन्न होता है और *मोह* से *स्मरणशक्ति* का विभ्रम हो जाता है | जब *स्मरणशक्ति* भ्रमित हो जाती है, तो *बुद्धि* नष्ट हो जाती है और *बुद्धि* नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है | क्रोध में मनुष्य को सारी नकारात्मक बातें याद आती चली जाती है | *लक्ष्मण जी* कहते हैं :--

*अनुचित नाथ न मानब मोरा !*
*भरत हमहिं उपचार न थोरा !!*
*कहं लगि सहिअ रहिअ मनु मारे !*
*नाथ साथ धनु हाथ हमारे !!*

*लक्ष्मण जी* कहते हैं ! हे भैया !आप मेरी बात को अनुचित ना मानियेगा क्योंकि यह सत्य है कि आज यदि हम यहां हैं तो यह सब भरत का ही षडयन्त्र है | अपने मामा जी के साथ स्वयं ननिहाल चला गया (जिससे कि कोई उसे दोषी न माने) और अपनी माता के द्वारा आप को बनवास एवं स्वयं का राज्य ले लिया | यहां तक तो ठीक था परंतु आज तो भरत ने मर्यादा की सारी सीमाओं का उल्लंघन कर दिया जो आप को मारने के लिए यहां तक आ पहुंचा तो हमारे हाथ में धनुष बाण है आखिर उसकी कुटिलताओं को कहां तक सहन करेंगे | भगवत्प्रेमी सज्जनों ! यह मानव स्वभाव होता है कि जब मनुष्य किसी भ्रमवश किसी का विरोधी हो जाता है ते उसे उस मनुष्य के भीतर दुर्गुण ही दुर्गुण दिखाई पड़ने लगते हैं | आज *लक्ष्मण* को भी भरत के भीतर दुर्गुणों के ही दर्शन हो रहे हैं | भगवान श्री राम *लक्ष्मण* को सावधान करना चाहते हैं परंतु क्रोध की आंधी बहुत प्रबल होती है *लक्ष्मण जी* पूर्ण आवेग से कहते हैं :--

*छत्रि जाति रघुकुल जनम , राम अनुग जग जान !*
*लातहुँ मारे चढ़त सिर , नीच को धूरि समान !!*

*लक्ष्मण जी* ने कहा !:- हम क्षत्रिय हैं और उज्ज्वल रघुकुल में जन्म हुआ है , और सबसे बड़ी बात यह है कि यह संपूर्ण संसार जानता है कि मैं आपका (भगवान का ) अनुगामी एवं सेवक हूँ | विचार करने वाली बात है बंधुओं ! जब मनुष्य यह दिखाने का प्रयास करने लगता है कि वह भगवान का बहुत बड़ा भक्त है , उसका बहुत बड़ा परम प्रिय है तो समझ लीजिए कि उसके पास न तो भक्ति है और ना ही सेवा का भाव , क्योंकि यह बताने / प्रदर्शन करने का विषय नहीं है और *लक्ष्मण जी* दुर्भाग्यवश आद प्रदर्शन करना चाहते हैं | *लक्ष्मण जी* ने कहा कि हे भैया ! यदि आप आयोध्या में वरदान के समय भरत का उपचार कर देते तो उसका इतना साहस न होता जिस प्रकार धूल लात मारने पर सिर पर चढ़ने का प्रयास करती है उसी प्रकार आज भरत भी सर पर चढ़ आया है | बोलते - बोलत *लक्ष्मण* खड़े हो गये मानो उनका वीरसस जागृत हो गया :--

*उठि कर जोरि रजायसु मांगा !*
*मनहुँ वीररस सोवत जागा !!*
*बांधि जटा सिर कसि कटि भाथा !*
*साजि सरासनु सायक हाथा !!*

*लक्ष्मण जी* ने सिर पर अपनी जटा कसकर बांधी तकस को कमर में कसकर हाथों में धनुष उठा लिया और कहने लगे :--

*जगत में प्रसिद्ध वीर रघुकुल में जनम भयो ,*
*इन्द्रसखा दशरथ जी का पूत जो कहाऊँ मैं !*
*गुरुवर वशिष्ठ जी ने विद्या जो सिखाई हमें ,*
*आज समरांगण में क्यों न दिखाऊँ मैं !!*
*राजमद में भूले हुए भरत और शत्रुहन को ,*
*सेना सहित जो न समर में सुलाऊँ मैं !*
*"अर्जुन" मोंहें आन प्रभु राम जी के चरणों की ,*
*दूध को लजाऊँ राम सेवक न कहाऊँ मैं !!*

*लक्ष्मण जी* के इस वक्तव्य को सुनकर श्री राम एवं सीता जी अपने स्थान पर खड़े हो गये श्री राम जी *लक्ष्मण जी* को पुन: समझाने का प्रयास करते हैं परंतु भगवत्प्रेमी सज्जनों ! क्रोध में डूबे हुए मनुष्य को समझाना अग्नि में घी डालने के समान होता है ! अर्थात् उसका क्रोध दोगुना हो जाता है | *लक्ष्मण जी* कहते हैं :- भैया ! आज बहुत अच्छा अवसर आ गया है क्रोध तो मुझे अयोध्या से ही था परंतु आपके संकोचवस उसे प्रकट नहीं कर पाया था परंतु आज भरत ने अवसर दे दिया है | आज पिछले सभी क्रोध को प्रकट करके मैं *सुमित्रापुत्र लक्ष्मण* भरत एवं उनके छोटे भाई शत्रुघ्न को तथा अयोध्या की संपूर्ण सेना का विनाश कर दूंगा | आज यदि भगवान महाकाल भी उनकी सहायता करने आ जायं तो भी यह *लक्ष्मण* राम विरोधी भरत को अवश्य मार डालेगा |

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रचनाएँ
श्री लक्ष्मण चरित्र
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