वनवास काल में श्री राम अपने अनुज *लक्ष्मण* एवं भार्या सीता के साथ चित्रकूट पहुंचे , चित्रकूट में मंदाकिनी नदी के किनारे सुंदर कुटिया बनाकर वही निवास करने लगे | *लक्ष्मण जी* मन , वचन एल कर्म से प्रभु श्रीराम एवं सीता माता की सेवा करते हुए अपने सेवक धर्म का पालन कर रहे हैं | एक सेवक का अपने स्वामी के प्रति क्या धर्म होता है ? यह पुराणों में वर्णित है | भगवान का भक्त जो भगवान की सेवा को ही जीवन का स्वरूप बना लेता है , निरंतर भगवत्सुखार्थ भगवान की सेवा में संलग्न रहता है , ऐसे सेवा परायण सेवक का कैसा भाव होना चाहिए यह हमें *श्रीमद्भागवत* में देखने को मिलता है | जब भगवान श्रीनरसिंह जी भक्त प्रहलाद को वर देने के लिए कहते हैं तो प्रहलाद जी कहते हैं कि :- हे भगवन ! आप हमारे स्वामी हैं और मैं आपका सेवक हूं | इसलिए हे स्वामी :--
*यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्य: स वै वणिक !*
*आशासानो न वै भृत्य: स्वामिन्यशिष आत्मन: !!*
*न स्वामी भृत्यत: स्वाम्यमिच्छन् यो राति चाशिष: !!*
*अहं त्वकामस्त्वभ्दक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रय: !*
*नान्यथेहावयोरर्थो राजसेवकयोरिव !!*
*[ श्रीमद्भागवत ७/१०/४-५ ]*
अर्थात जो सेवक स्वामी से अपनी कामनाएं पूर्ण कराना चाहता है वह चाकर ( सेवक ) हो ही नहीं सकता वह तो लेनदेन करने वाला बनिया है | जो सेवक स्वामी से कामना पूर्ति चाहता है वह सेवक नहीं है और जो सेवक से सेवा कराने के लिए , उसका स्वामी बनने के लिए उसकी कामना पूर्ण करता है वह स्वामी नहीं है | इसी प्रकार का भाव लेकर *लक्ष्मण जी* भगवान श्री राम जी की सेवा निस्वार्थ भाव से कर रहे हैं | सेवा करने वाले के मन में अपनी सेवा का अहंकार भी नहीं होना चाहिए | सेवक का धर्म को बताते हुए हमारे मनीषियों ने कहा है कि :- जिस सेवा में सेवक के अहम् के सुख - कल्याण की , स्वर्ग - मोक्ष की और दुख - नरक की स्मृति का ही सर्वथा अभाव रहता है और प्रत्येक विचार , कर्म , पदार्थ आदि के द्वारा प्रियतमा रूपा भगवान को सुख पहुंचाना ही जिसका अनन्यस्वभाव होता है , उसके द्वारा जो स्वाभाविक चेष्टा होती है वह भुक्ति मुक्ति को नगण्य मानकर उनके महान त्याग के परम पवित्र और धरातल पर होने के कारण परम प्रेम रूप सर्वोत्कृष्ट परम सेवा है | इस सेवा की तुलना नहीं की जा सकती है , और इसी प्रकार की सेवा *लक्ष्मण जी* चित्रकूट में कर रहे हैं |
ब्रह्म जीव एवं माया चित्रकूट में निवास कर रहे हैं | *जीव* कितना भी प्रयास करें परंतु वह *माया* के भुलावे में आकर भटक ही जाता है | वैराग्य का ज्वलंत उदाहरण , निषादराज को *कर्ममीमांसा* के गूढ़ रहस्य बताने वाले *लक्ष्मण जी* भी *माया* के वशीभूत हो गये | भगवान की *माया* कितनी विशाल है यह बताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :---
*गो गोचर जहँ लगि मन जाई !*
*सो सब माया जानेहुं भाई !!*
अर्थात जहां तक इंद्रियों एवं मन की पहुंच हो वह सब *माया* ही है भगवान की इस व्यापक *माया* से कोई भी नहीं बच पाया है | *माया* के अस्त्र काम क्रोध मोह लोभ आदि जीव को पराभूत करते हैं | *माया* के इन सभी अवयवों को पराजित कर *लक्ष्मण जी* श्री राम के साथ तो आ गये परंतु चित्रकूट में *माया* के प्रबल जाल में उस समय फस गये जबकि उन्होंने यह सुना एवं देखा कि भरत जी अयोध्या की चतुरंगिणी सेना के साथ बढ़ते चले आ रहे | यहां पर उनका भगवान के प्रति *मोह* उजागर हो गया और जहां मनुष्य को *मोह* हुआ समझ लो कि उसका सारा ज्ञान खो जाता है | क्योंकि *माया* का ब्रह्मास्त्र है *मोह* | गोस्वामी जी ने कहा है :-- *मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला*
*मोह* क्या है ?? *मोह* सभी प्रकार की व्याधियों की जड़ है | जब मनुष्य को किसी के प्रति *मोह* हो जाता है तो सबसे पहले उसकी सुरक्षा का *भय* सताने लगता है , फिर उसे क्षति पहुंचाने की चेष्टा करने वाले के प्रति *क्रोध* उत्पन्न होता है और यदि हृदय में *क्रोध* ने स्थान बना लिया तो *जीव* का सर्वनाश हो जाता है क्योंकि *"क्रोध पाप कर मूल"*
अरे भाई विचार कीजिए कि आप रास्ते से चले जा रहे हैं और किसी अनजान व्यक्ति ने आपसे कोई अभद्रता कर दी परंतु आप वहाँ से आगे बढ़ गये | वह अभद्रता आपको तभी तक याद रहेगी जब तक आपको मार्ग में कोई दूसरा ना मिल जाए या आप अपने घर में पहुंच जाएं | घर पहुंच कर आप अनजान व्यक्ति की अभद्रता को भूल जाते हैं , परंतु यदि घर में पत्नी , पुत्र या पुत्रवधू ने पलट कर जवाब भी दे दिया आपका भोजन पानी तक छूट जाता है | हृदय पर गहरी चोट लगती है | ऐसा क्यों होता है ?;ऐसा होने का कारण है सिर्फ *मोह* | क्या कभी आपने विचार किया है कि उस अनजान व्यक्ति ने मार्ग में आपको अश्लील शब्दों से अभद्रता की परंतु आपको उसका कष्ट नहीं हुआ और यदि हुआ भी तो क्षणिक | ऐसा इसलिए है क्योंकि आप उस अनजान व्यक्ति को नहीं जानते हैं उससे आपका कोई लेना-देना नहीं है उससे आपका *मोह* नहीं है परंतु पत्नी , पुत्र एवं पुत्रवधू को आप अपना मानते हैं इनसे *मोह* है इसलिए आपको इनके द्वारा पलट कर दिए गए जवाब से भी अधिक कष्ट हो गया | इस कष्ट का कारण परिवार वाले नहीं हैं बल्कि आपका *मोह* है | यदि *मोह* न होता तो अनजान व्यक्ति की गाली को बर्दाश्त कर लेने की क्षमता रखने वाला एक छोटे से जवाब को नहीं बर्दाश्त कर पा रहा है ? यह कहां तक उचित है |
यह *मोह* की प्रबलता के कारण ही होता है | इसीलिए *मोह* को सभी प्रकार की व्याधियों की जड़ कहा गया है | *मोह* के ही कारण आपको परिवारी जनों की बात असह्य हो जाती है और हृदय में सन्तप तो होता ही है साथ ही *क्रोध* भी उत्पन्न हो जाता है और कभी-कभी तो यही *क्रोध* परिवार के विघटन का कारण भी बन जाता है आ इसीलिए *मोह* को *माया* का प्रबल अस्त्र कहा गया है |
चित्रकूट में जब *लक्ष्मण जी* ने वनवासियों से सूचना पाई और स्वयं भी वृक्ष पर चढ़कर अयोध्या की सूर्य पताका फहराते हुए चतुरंगिणी सेना को कुटिया की ओर बढ़ते देखा तो उन्हें श्रीराम की सुरक्षा का *भय* हो गया और एक क्षण के लिए उन्हें श्रीराम के *मोह* ने अपने बस में कर लिया | यही एक क्षण ऐसा था जब माया को अवसर मिल गया लक्ष्मण को अपने बस में करने का और यहीं पर *लक्ष्मन जी* का सारा ज्ञान अध्यात्म एवं कर्म योग सब भूल गया |
*शेष अगले भाग में:----*