श्रीराम मैया कौशल्या के भवन से जैसे ही चलने को तैयार हुए तो सीता जी ने पूछा :- हे नाथ ! अब कहां चल रहे है ? श्रीराम ने कहा ;- अब हम पिताश्री की चरण वंदना करके वन को प्रस्थान करेंगे ! सीता जी ने कहा :- हे नाथ ! थोड़ी देर रुक जायें , और लक्ष्मण को संबोधित करते हुए कहा :- देवर जी ! आप हमारे साथ चौदह वर्षों के लिए वन को चल रहे हैं तो क्या तुम *उर्मिला* से विदाई नहीं लोगे ?? प्रस्थान के समय उससे मिलोगे भी नहीं ?? जाओ उस दुखिया से भी मिलकर के आओ ! तब तक हम माता जी के महलों में आपकी प्रतीक्षा करेंगे | *लक्ष्मण जी* सीता जी की आज्ञा पाकर *उर्मिला* के महलों की ओर चले | *उर्मिला* रामायण की सबसे उपेक्षित पात्र मानी जाती है | लोगों को शिकायत भी है कि इतनी त्यागमयी एवं दिव्य चरित्र का कहीं कोई वर्णन तुलसीदास जी ने अपनी मानस में नहीं किया | तो भैया ! तुलसीदास जी ने तो पहले ही कह दिया है कि *लक्ष्मण* उनका धन है और *उर्मिला जी* क्या हैं ?? *उर्मिला जी* तो *लक्ष्मण* का अमूल्य धन है तो जब तुलसीदास जी ने अपनी मानस में अपने मूलधन *(लक्ष्मण)* को छुपा लिया है *उर्मिला* तो उनकी धन का भी धन है उनका वर्णन भला वे कैसे कर सकते हैं ? तुलसीदास जी ने पहले ही बता दिया है कि रामराज्य जी के आधार *श्री लक्ष्मण जी* एवं *उर्मिला जी* हैं | और किसी भी विशाल महल का आधार (नींव) किसी को भी नहीं दिखती | *लक्ष्मण जी* भारी कदमों से अपनी प्रियतमा के महल की ओर चले जा रहे हैं | और महलों में *उर्मिला जी*:----
*काल के कुचक्र से अनभिज्ञ करत नव सिंगार ,*
*बैठी उर्मिला आपन चोटी संवारत है !*
*नैनन में कजरा देत केशन में गजरा देत ,*
*दर्पन में बार-बार मुखड़ा निहारत है !!*
*राजा जनक की दुलारी लक्ष्मण की प्राण प्यारी ,*
*पावन इक्ष्वाकु कुल पर तन मन सब वारत है !*
*आवन कहि गये पर आये न अबहिं नाथ ,*
*उर्मिला लखनलाल जी की रहिया निहारत है !!*
अयोध्या के नए घटनाक्रम से अनभिज्ञ होकर *उर्मिला* अपने महल में सिंगार करके स्वामी की प्रतीक्षा कर रही है | इधर *लक्ष्मण जी* ने अपने मुख मंडल से बिछोह के भावों को छुपाते हुए एवं प्रसन्नता दिखाते हुए महल में प्रवेश किया | *उर्मिला* ने देखा कि स्वामी आ गये , प्रसन्नता से उनका मुख मंडल चमक उठा | *लक्ष्मण* ने कहा *उर्मिला !* आज तो मेरा जीवन धन्य हो गया | *उर्मिला* ने कहा हां स्वामी ! जब बड़े भैया राजा बनेंगे तो जीवन को धन्य स्वत: ही हो जाएगा | *लक्ष्मण* जी उर्मिला कू सरलता को देखकर यह नहीं समझ पा रहे हैं कि मैं *उर्मिला* से विदाई कैसे मांगू ?; ह़ृदय को दृढ़ करते हुए *लक्ष्मण जी* ने कहा :- *उर्मिले* ! पति के प्रत्येक निर्णय पर पत्नी की सहमति होनी चाहिए , पत्नी यदि चाह ले तो पति को इंद्र पद भी दिला सकती है | *लक्ष्मण जी* की गंभीरता को देखते हुए *उर्मिला* समझ गई कि शायद विषय कुछ दूसरा है , और वह भी गंभीर होते हुए बोली :- हाँ स्वामी ! आपकी बात से मैं सहमत हूं , परंतु क्या हमसे कोई अपराध हो गया है ? *लक्ष्मण* ने कहा अपराध तो तुमसे हो ही नहीं सकता परंतु आज अयोध्या में जो समय उपस्थित हुआ है उसका यदि हम धैर्य धारण करते हुए सदुपयोग कर ले तो युग युगांतर तक हमें याद किया जाएगा | *उर्मिला* ने कहा स्वामी ! अयोध्या में ऐसा क्या हो गया है ?? श्री राम राजा बनने वाले हैं ऐसे में हमारा क्या कर्तव्य है ?? हम क्या करें कि हमारी कीर्ति बढ़े ? *लक्ष्मण* ने कहा कि पहले तुम हमको वचनदो कि जो मैं कहूंगा वह तुम मानोगी | *उर्मिला* आश्चर्यचकित होकर अपने स्वामी *लक्ष्मण* को निहारते हुए कहती है कि :---
*स्वामी मर्म क्या है ना आज हम पर संदेह हुआ ,*
*आपके वचन को मैं कैसे काट पाऊंगी !*
*पुत्री हूं सुनैना जी की लघु भगिनी सीता जी की ,*
*उनकी कीर्ति में कलंक क्यों लगाऊंगी !!*
*"पति ही परमेश्वर" की शिक्षा मिली माता जी से ,*
*पति के हित अपना सर्वस्व मैं लूटाऊंगी !*
*आपके बचन पालन में यदि प्रान गए ,*
*उनको भी तजने में देर न लगाऊँगी !!*
*उर्मिला* की बात सुनकर *लक्ष्मण जी* की आंखों में आंसू भर आए उन्होंने *उर्मिला* को हृदय से लगा लिया | (शायद यह उनका ऐसा मिलन था जो कि स्मृति में ही रहने वाला था ) गंभीर वाणी में *लक्ष्मण जी* ने राम वन गमन की सारी घटना अपनी प्रिय पत्नी को सुनाया | इस कठोर निर्णय को सुनकर उर्मिला जैसे पत्थर की हो गई | *लक्ष्मण* ने कहा :- *उर्मिला* ! यह समय धैर्य धारण करने का है और इसीलिॉ् मैं तुमसे विदा लेने आया हूँ |
*उर्मिला* जैसे निद्रा से जागी !
विदा ?
हमसे कैसी विदा ??
*लक्ष्मण* ने कहा :- प्रिये ! अपने भैया की सेवा करने के लिए मैं भी चौदह वर्षों के लिए वन को जा रहा हूं | एक क्षण के लिए तो *उर्मिला* विचलित हुई फिर उसने कहा :- स्वामी ! आप जब वन को जा रहे हैं तो अयोध्या में मेरा क्या काम ??:मुझे भी साथ में ले करो | आप अपने भैया के चरणों की सेवा करना और मैं अपने दीदी की सेवा करूंगी | *लक्ष्मण* ने कहा नहीं प्रिये ! मैं सेवक बनकर जा रहा हूं और यदि तुम भी मेरे साथ रहोगी तो शायद मैं सेवक धर्म का पालन न कर सकूं ! इसलिए धैर्य धारण करके मुझे बन जाने के लिए विदा दो | रही बात इस सेवा करने की तो हमारा तो जन्म ही सेवा करने के लिए हुआ है | मैं वन में भैया भाभी की सेवा करूंगा और तुम अयोध्या में रहकर माता-पिता एवं गुरू की सेवा करना | *लक्ष्मण जी* भाव में बोलते चले जा रहे हैं और उर्मिला तो मालूम मूर्ति बन गई है | नि:शब्द खड़ी होकर अपने स्वामी की बातों को सुनते हुएलआंखों से अविरल अश्रुधारा बहा रही है | *लक्ष्मण* ने *उर्मिला* की दशा को देखकर कहा:---
*हे प्राणप्रिया अब ना अश्रु बहाओ !*
*समय मिला है बन जाने का , उठकर गले लगाओ !!*
*क्षत्राणी हो धीरज धारो , पतिव्रत धर्म निभाओ !*
*वचन दिया है हमको सुंदरि , उसको ना बिसराओ !!*
*आज कर्म पथ पर मैं जाता , आरति थाल सजाओ !*
*प्यारी ! तुम ही मेरा बल हो , निर्मल नहीं बनाओ !!*
*सास ससुर की सेवा करके , जग में सुयश कमाओ !*
*"अर्जुन" अपने पति प्यारे को , हंसि के विपिन पठाओ !!*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं कि :- हे प्रिये ! तुमने मुझे वचन दिया है कि मेरी बात को मानोगी ! तो उस वचन की लाज रखते हुए मेरी बात को ध्यान से सुनो | आज के बाद तुम्हारी आंखों से आंसू नहीं गिरने चाहिए | तुम क्षत्राणी हो , संकट के समय निर्बल होना छतरानियों को शोभा नहीं देता | प्रिय *उर्मिला* उठो और उर मिला कर हमें विदा करो |
इस प्रकार *लक्ष्मण जी* उर्मिला को अपने वचन बंधनों में बांधकर उनसे बिदाई लेकर श्री राम के पास आ गये और *उर्मिला* अपने प्राणाधार को जाते हुए खड़ी देखती रह गई |
*शेष अगले भाग में*