*लक्ष्मण जी* चित्रकूट में भरत जी के प्रति जो प्रतिज्ञा करते हैं उसको सुनकर कि तीनों लोक कम्पित हो गए ! भगवान शिव भी सकुचा गये और लोकपाल लड़खड़ा कर भाग जाना चाहते हैं | एक बार पहले भी जनकराज की सभा में *लक्ष्मण जी* का क्रोध देखकर पृथ्वी कंपायमान हो गई थी , दिग्गज भी लड़खड़ा गए थे | *लक्ष्मण जी* के क्रोध पर लोकपाल , दिक्पाल एवं पृथ्वी क्यों कांपने लगते हैं ? भगवत्प्रेमी सज्जनों ! *लक्ष्मण जी* शेषावतार हैं , वे *संपूर्ण जगत की आधार* है और जब आधार ही क्रोध में आकर लड़खड़ाने लगेगा तो लोकपाल , दिगपाल एवं पृथ्वी का कंपित हो जाना स्वाभाविक ही है | जिस समय *लक्ष्मण जी* ऐसी सौगंध लेते हैं (जो कि उन्हें नहीं लेनी चाहिए थी ) पृथ्वी कम्पायमान हो गई और साथ ही पारब्रह्म परमेश्वर को भी हस्तक्षेप करना पड़ा | जिस प्रकार परिवार का मुखिया परिवारी जनों की गलतियों पर हस्तक्षेप करता है उसी प्रकार इस सृष्टि के मुखिया भी समय-समय पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते रहते हैं | जब *लक्ष्मण जी* ने सौगंध ली तो परमपिता ने उसे अनुचित मानते हुए आकाशवाणी के माध्यम से हस्तक्षेप कर दिया | आकाशवाणी होती है |
*ताल प्रताप प्रभाउ तुम्हारा !*
*को कहि सकइ को जाननिहारा !!*
*हे लक्ष्मण जी* ! आपके बल प्रताप एवं प्रभाव को ना तो कोई वर्णन कर सकता है और ना कोई जान सकता है , परंतु अभी तक कोई भी कार्य करने या प्रतिज्ञा करने से पहले विधिवत् चिंतन - मनन कर लेना चाहिए कि जो कार्य ममैं करने जा रहा हूं वह उचित है या अनुचित ? क्योंकि बिना विचारे कोई कार्य करने पर बाद में पश्चाताप ही करना पड़ता है | *हे लक्ष्मण !* वेद एवं विद्वान कहते हैं कि बिना विचारे जल्दबाजी में कार्य करने वाला बुद्धिमान नहीं कहा जाता | आज अनेक लोग ऐसे मिलते हैं जो स्वयं को बुद्धिमान एवं विद्वान मानते हुए कोई भी कार्य बिना विचारे कर रहे हैं जिसका परिणाम भी नकारात्मक ही देखने को मिल रहा है | *लक्ष्मण जी* देववाणी को सुनकर स्तब्ध हो गये उनके हृदय में संकोच हो गया कि शायद उन्होंने क्रोध में आकर कुछ अनुचित करने का प्रयास किया है | *लक्ष्मण जी* परम विवेकी हैं परंतु क्रोधी भी है और क्रोध विवेक का परम शत्रु है | *लक्ष्मण जी* जैसे नींद से जागे हो , जैसे किसी अदृश्य शक्ति के पाश से छूटे हो | चिंतन करने लगे *लक्ष्मण जी* कि उन्होंने अनुचित क्या किया है | सज्जनों ! विवेकवान प्राणी वही है जो किसी के द्वारा अनुंचित कहे जाने पर उसका विरोध ना करके स्वयं अपने द्वारा अनुचित कृत्यों पर आत्म चिंतन करने का प्रयास करते हुए अपनी कमियों को ढूंढ कर उसे सुधारने का प्रयास करें | *लक्ष्मण* किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़े हैं श्रीराम ने कहा कि भैया ! तुमने राजमद के कई उदाहरण प्रस्तुत किए हैं और मैं उनसे सहमत हूं परंतु भाई ! एक बात मैं भी जानता हूँ कि :--
*भरतहिं होइं न राजमद , विधि हरि हर पद पाय !*
*कबहुँ कि कांजी सींकरनि , क्षीरसिंधु बिनसाय !!*
श्री राम जी कहते हैं ! हे *लक्ष्मण* तुम कहते हो कि भरत अयोध्या का राज्य पाकर राज्यमद से मदोन्मत्त हो गया है | अरे ! तुम अभी भरत को जानते ही नहीं हो | एक अयोध्या का तुच्छ राज्य नहीं *लक्ष्मण* यदि भरत को ब्रह्मा , विष्णु एवं शिव के पद पर भी पदासीन कर दिया जाय तो भी उसको मद हो ही नहीं सकता है क्योंकि भरत प्रेम का अथाह समुद्र है | जिस प्रकार थोड़े से दूध को नष्ट कर देने वाली कांजी ( नींबू ) की एक बूंद अथाह क्षीर समुद्र को नष्ट नहीं कर सकती उसी प्रकार तुच्छ व्यक्तियों को तो राजमद हो सकता है परंतु भरत को नहीं | हे *लक्ष्मण* ! एक राज्य लेकर उसे क्या मद हो सकता है जो सकल विश्व का एकमात्र पोषक एवं पालक है |
*विश्व भरण पोषण कर जोई !*
*ताकर नाम भरत अस होई !!*
श्री रामजी *लक्ष्मण* को भरत की महानता बताते हुए कहते हैं :---*
*संभव है मध्यकाल के प्रचंड सूरज को ,*
*घोर अंधकार अपना ग्रास बना सकता है !*
*संभव है आच्छादित विस्तृत यह आसमान ,*
*मेघ के समूह मध्य मिलकर समा सकता है !!*
*गैया के खुर से बने गड्ढे में एकत्र जल ,*
*संभव है कि अगस्त जी को डुबा सकता है !*
*पृथ्वी निज सहज भाव क्षमा का भी त्याग करें ,*
*मच्छर निज फूंक से सुमेर उड़ा सकता है !!*
*"अर्जुन" शपथ खाकर कहता हूं हे लक्ष्मण ,*
*प्यारे भरत को राजमद न लुभा सकता है !!!*
भगवान श्री राम के वचन सुनकर देवता भी बड़ाई करने लगे धन्य है ! भरत जी | यदि भरत का जन्म न हुआ होता तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता ? *लक्ष्मण जी* की स्थिति का वर्णन कर पाना संभव नहीं है | जिस भाई भरत को वह मार डालने के लिए तत्पर हो रहे थे उन्हीं भरत जी की प्रशंसा देवता एवं श्री राम के मुखारविंद से सुनकर उन्हें अपराध बोध हो गया | *लक्ष्मण जी* अपने अग्रज भरत जी के प्रति बोले गए वचनों से स्वयं में लज्जित होकर पश्चाताप के सागर में डूबने लगे |
भगवत्प्रेमी सज्जनों ! मनुष्य जब जाने अनजाने कहीं अपराधी बन जाता है और उसे अपराध बोध हो जाता है तो हृदय में पश्चाताप का ज्वर उठने लगता है | जो भी मनुष्य अपने जीवन में स्वयं के द्वारा किए गए अनुचित कार्य के लिए पश्चाताप कर लेता है वह तो दिव्य होकर उस अपराध से मुक्त हो जाता है परंतु जो अपराध करने के बाद भी स्वयं की भूल मानता ही नहीं वह जीवनभर उपेक्षा का दंश झेला करता है | *लक्ष्मण जी* मन ही मन श्री राम एवं देव बाण़ी के द्वारा भरत जी के प्रति कहे गए वचनों एवं स्वयं के अपराध का आंकलन कर ही रहे थे कि भरत जी वहां पर आ गए और भगवान राम के आगे " हे नाथ रक्षा करो" कहकर दंड की भांति लोट गए | भरत जी की दशा देखकर *लक्ष्मण जी* उनकी मनोदशा को समझ गए कि भरत जी भगवान श्रीराम को मारने नहीं आये हैं | भरत एवं रामजी मूर्तिवत् हो गए हैं | भरत जी पृथ्वी पर लोट कर दंडवत प्रणाम कर रहे हैं और श्री राम जी प्रेम से विह्वल होकर उनको देख रहे हैं | ऐसा लगता है मानो समय ठहर गया हो | ऐसी दशा देखकर *लक्ष्मण जी* बोले :--
*कह करि जोरि नाइ महि माथा !*
*भरत प्रनाम करत रघुनाथा !!*
*लक्ष्मण जी* के आंखों में प्रेम एवं पश्चाताप के आंसुओं का समुद्र उमड़ आया | उन्होंने भगवान श्री राम के चरणों के पास पृथ्वी पर मस्तक झुकाकर कहा हे भैया ! भरत भैया आपको प्रणाम कर रहे हैं | *लक्ष्मण* के वचन सुनकर श्री रामजी मानो निद्रा से जागे हों और दौड़कर भरत जी जब जबरन उठाकर हृदय से लगा लिया | श्री राम एवं भरत जी के महामिलन को देखकर तीनों लोक अपनी सुधि बुधि खो बैठे | उस महा मिलन एवं प्रेम का वर्णन करने में लेखनी सक्षम नहीं है |
जब भरत श्री राम एवं श्री सीता जी से प्रणाम कर चुके तो सामने *लक्ष्मण* खड़े हैं | भरत जी ने अपनी बांह पसार दी , परंतु *लक्ष्मण जी* संकोच के मारे खड़े के खड़े ही रह गए आ़| *लक्ष्मण जी* कहते हैं | भैया ! मैं आपका अपराधी हूं | *भरत जी* ने कहा | पगले ! अपराधी तो मैं हूं मेरे ही कारण आज तुम्हें इतना दुख उठाना पड़ रहा है | रोकरके *लक्ष्मण जी* ने कहा भैया ! मुझसे तो अक्षम्य अपराध हो गया है , मैंने आज आपके लिए धनुष उठा लिया था | *भरत जी* ने कहा :- पगले ! वह वाण तुमने चलाया क्यों नहीं कम से कम यह पापी *भरत* इस कलंकी जीवन से मुक्त तो हो जाता | *लक्ष्मण जी* ने पृथ्वी पर बैठकर भरत जी के चरण पकड़ लिए | भरत जी ने *लक्ष्मण* को उठाकर हृदय से लगाते हुए कहा :- भाई ! तुम अपराधी नहीं हो तुम ने अनजाने में जो अपराध किया वह पश्चाताप के आंसू में बह गया | जो भी मनुष्य समय रहते अपनी भूल को स्वीकार करके पश्चाताप कर प्रायश्चित कर लेता है उसके समस्त अपराध समाप्त हो जाते हैं | भरत जी की बात सुनकर देवता भी पुष्प वर्षा करने लगे |