*लक्ष्मण जी* अपनी मैया सुमित्रा के सामने खड़े होकर उनके अमृतमयी वचनों को सुन रहे हैं | त्याग की प्रत्यक्ष मूर्ति मैया सुमित्रा ने कहा कि *लक्ष्मण* मैंने सुना है कि तेरा भैया राम नारायण का अवतार है और तुझे शेषावतार कहा जाता है | राम क्या है ? बेटा ! राम इस रघुकुल की *मणि* हैं तुलसीदास जी नें राघवेंद्र सरकार को रघुवंश मणि कहा है | और तू तो *फणि* अर्थात शेष है | तो पुत्र बिना *मणि* के *फणि* भला कहीं रह सकता है ? *फणि* तो *मणि* के प्रकाश में ही प्रसन्न एवं आनंदित रह सकता है | बिना *मणि* के *फणि* का जीवन व्यर्थ है तो जब आज रघुवंश की *मणि* (राम) बन को जा रहे हैं तो तुम *(फणि)* होकर अयोध्या में भला कैसे रह सकते हो ? क्योंकि *फणि* (सर्प) अपने प्राण दे सकता है परंतु *मणि* का त्याग नहीं कर सकता , इसलिए हे *लक्ष्मण* तू अपनी *मणि* (श्रीराम) के साथ बन को जा , और एक बात बेटा याद रखना कि इस संसार में जितने भी पूजनीय एवं प्रिय लोग हैं तब श्री राम जी के ही नाते प्रिय हैं | सुमित्राजी कहती हैं :--
*भूरि भाग भाजन भयहु , मोहि समेत बलि जाउँ !*
*जौ तुम्हरे मन छांड़ि छल , कीन्ह राम पद ठाउँ !!*
हे पुत्र ! आज मैं धन्य हो गई क्योंकि आज तुम सौभाग्यशाली तो हो ही गये हो साथ ही मुझे भी सौभाग्य का पात्र बना दिया है हम सौभाग्यशाली इसलिए हो पाए हैं क्योंकि आज तुमने छल छोड़ कर श्री राम के चरणों में प्रीति करके विशेष स्थान प्राप्त किया है | आज मैं धन्य हो गई क्योंकि मैं *लक्ष्मण* जैसे पुत्र की माता हूं | *लक्ष्मण* इस संसार में सभी माताएं पुत्र को जन्म देती है परंतु पुत्रवती वही कही जा सकती है जिसका पुत्र श्री राम का भक्त हो अन्यथा पुत्र होते हुए भी वह बांझ के ही समान है | हे पुत्र ! आज तुमने बन जाने की सोच कर के हमें पुत्रवती की श्रेणी में खड़ा कर दिया है | सुमित्रा जी कहती हैं :--
*तुम्हरेहिं भाग राम बन जाहीं !*
*दूसर हेतु तात कछु नाहीं !!*
हे *लक्ष्मण* ! आज मैं तुमको एक रहस्य बताती हूं ध्यान से सुनो ! तुम्हारी श्रीराम से इतनी प्रीति होने का रहस्य तुम को बता रही हूँ , यह रहस्य तुम्हारे जन्म से जुड़ा है | तुम सब के जन्म के लिए तुम्हारे परम प्रतापी पिता महाराज में *पुत्रेष्टि यज्ञ* किया था उस यज्ञ में दिव्य खीर लेकर के अग्निदेव प्रकट हुए थे जब सबको प्रसाद बराबर बांटा गया तो मेरा भाग नष्ट हो जाने पर दीदी कौशिल्या ने अपने भाग से आधा करके मुझे दिया था उसी आगे भाग से तुम्हारा जन्म हुआ है | आधा भाग राम एवं आधा *लक्ष्मण* दोनों मिलकर ही एक हो सकते हैं ! तो हे पुत्र ! जब *तुम्हरेहिं भाग राम बन जाहीं* जब तुम्हारा ही भाग आज वन को जा रहा है तो इसका कोई कारण नहीं है कि आधा भाग अयोध्या में रहे , क्योंकि तुम एवं राम दोनों दो शरीर एक प्राण हो इसलिए पुत्र *लक्ष्मण* तुम प्रेम से अपने भाग , अपनी *मणि* के साथ वन को जाओ ! लेकिन एक बात का ध्यान रखना पुत्र कि *फणि* (सर्प) अपनी *मणि* की रक्षा सुरक्षा के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर देता है उसी प्रकार तुम्हें भी अपने *रघुवंश की मणि* श्रीराम के लिए यदि प्राण भी देने पड़े तो पीछे न हटना और मेरी बात पर ध्यान देना | *लक्ष्मण* तुम वन बिहार करने नहीं जा रहे हो तुम सेवा करने जा रहे हो तो सेवा का धर्म पालन करते हुए सेवा करना | सेवक का धर्म बताते हुए मैया कहती है :---
*राग रोष इरिषा मद मोहू !*
*जनि सपनेहुँ इनके बस होहूँ !!*
*सकल प्रकार विकार बिहाई !*
*मन क्रम बचन करेहुं सेवकाई !!*
अर्थात के पुत्र *लक्ष्मण* ! सेवक में राग नहीं होना चाहिए | आज तुम अयोध्या का समस्त सुख - ऐश्वर्य , माता , पिता एवं पत्नी का त्याग करके श्री राम की सेवा करने जा रहे हो तो तुम्हें सभी प्रकार के रागों का त्याग करके बैरागी बनना पड़ेगा , क्योंकि अगर तुम्हारे मन में राग आ गया तो तुम्हारा सेवक धर्म भ्रष्ट हो जाएगा | रोष , ईर्ष्या , मद एवं मोह के वशीभूत कभी भी मत होना | हे पुत्र *लक्ष्मण* ! संसार में मनुष्य के लिए जितने भी विकार बताए गए हैं उन सब का त्याग करते हुए मन , वचन एवं कर्म से तुम्हें श्री सीताराम जी की सेवा करना है | आज तुम्हारे लिए अयोध्या के राजसिक जीवन की अपेक्षा बनवासी जीवन ही सुगम है क्योंकि वहां तुम जगत के माता पिता श्री राम एवं जानकी के संरक्षण में रहोगे | *लक्ष्मण* तुम्हारा सबसे बड़ा धर्म यही होगा कि तुम वही कार्य करना जिससे कि तुम्हारे भैया को सुख की अनुभूति हो , यदि तुम्हारे रहते राम को क्लेश हो गया तो समझ लेना कि तू मेरा पुत्र नहीं है | *लक्ष्मण* आज तू ऐसे पथ का पथिक बनने जा रहा है जिसका गुणगान यह संसार युगों युगों तक करेगा अतः तुम वही करना जिससे राम सीता को संतोष प्राप्त होता रहे |
हे पुत्र ! आज बिदाई देते हुए तेरी मैया तुझको कुछ दे नहीं रही है बल्कि तुझ से मांग रही है ! *लक्ष्मण* तुम वन में ऐसे कृत्य कदापि ना करना जिससे कि तुम्हारी माता एवं उसके दूध को लज्जित होना पड़े | हे पुत्र ! तू बड़ा बड़भागी है यह वरदान आज कैकेयी ने राम के लिए नहीं बल्कि तुम्हारा सुयश बढ़ाने के लिए मांगा है | जा मेरे लाल ! वन में अपने भैया की इतनी सेवा करना की राम एवं सीता अयोध्या के सारे सुख को भूल जायं |
*लक्ष्मण जी* ने अपनी मैया के चरणों में बारम्बार बंदना की और उनकी दी हुई शिक्षा एवं आज्ञा को शिरोधार्य करके श्रीराम की ओर चल पड़े | मैया के पास से जब *लक्ष्मण* निकले तो उनको फिर भय हो गया | तुलसीदास जी लिखते हैं :--
*मातु चरन सिर नाइ चले तुरत संकित हृदय !*
*बागुर विषम तोराइ मनहुँ भाग मृग भाग बस !!*
*लक्ष्मण जी* माता सुमित्रा को प्रणाम करके वहां से डरते हुए चले ! डर किस बात का था कि कहीं फिर कोई विघ्न ना आ जाय ! *लक्ष्मण जी* उसी गति से वहां से भागे जैसे कठिन एवं जटिल फंदे को तोड़कर कोई हिरन भागता है | यह लक्ष्मण जी की श्री राम के प्रति प्रीति ही थी |
*शेष अगले भाग में*