महाराज जनक की सभा में *लक्ष्मण जी* एवं परशुराम जी का घनघोर वाकयुद्ध हुआ | परशुराम जी इतने ज्यादा क्रोध में थे कि *लक्ष्मण जी* के इशारे को समझना तो दूर सुनना भी नहीं चाहते थे | *जैसा कि यह सत्य है कि क्रोध मनुष्य को अंधा कर देता है , मनुष्य की सोचने समझने की शक्ति विलुप्त हो जाती है |* यहां विचार करने योग्य बात यह है कि *लक्ष्मण जी* रघुकुल की संतान हो करके परशुराम जी का सम्मान क्यों नहीं कर पाये ? आखिर उनके संस्कार कहां चले गए थे ?
*लक्ष्मण जी* संस्कारवान थे इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए परंतु साथ ही यह भी सत्य है कि *आप से श्रेष्ठ लोगों का अपमान करने वाले लोग आ जाए उनको उनकी ही भाषा में जवाब देना चाहिए क्योंकि कोई अन्य भाषा उनकी समझ में आएगी ही नहीं !* परशुराम जी के क्रोध का जवाब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने शालीनता से देने का प्रयास किया परंतु असफल रहे , इसीलिए जब *लक्ष्मण जी* परशुराम जी से वाक युद्ध कर रहे थे तो श्री राम जी शांत होकर खड़े रहे क्योंकि वह जानते हैं कि लोहा ही लोहे को काटता है | बार-बार परशुराम जी *लक्ष्मण जी* को मारने के लिए अपना फरसा उठाते तो हैं परंतु सफल नहीं होते | तब *लक्ष्मण जी* हंसकर कहने लगते हैं कि हे परशुराम जी ! मैं आपको जानता हूं कि आप अपने माता-पिता के ऋण से उऋण हो गये हैं *परंतु अभी आपके सर पर गुरु का ऋण चढ़ा हुआ है और हमें ऐसा प्रतीत होता है कि आप वह ऋण हम से उतारना चाहते हैं |*
यह जानना आवश्यक है कि *आखिर परशुराम जी के ऊपर गुरु का कौन सा ऋण था जिसे उतारने के लिए वह बार-बार लक्ष्मण जी का शीश काटने के लिए उद्यत हो जाते थे ! विद्वतजनों से श्रवण की गई कथा के अनुसार :----*
परशुराम जी को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा स्वयं भूतभावन भोलेनाथ ने दी थी | जब परशुराम जी की शिक्षा पूरी हो गई तो परशुराम जी ने भगवान शिव से गुरु दक्षिणा मांगने के लिए कहा | भगवान शिव यद्यपि कुछ मांगना नहीं चाहते थे परंतु परशुराम जी के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने किंचित क्रोध में कह दिया कि हे परशुराम ! यदि तुम गुरु दक्षिणा देने का हठ कर रहे हो तो मुझे गुरु दक्षिणा में शेषनाग का सिर काट कर ला कर दो | भगवान शिव की बात को सुनकर के परशुराम जी असमंजस में पड़ गए परंतु फिर भी अपने गुरुदेव भगवान शिव का आशीर्वाद लेकर के परशुराम जी शेषनाग का शीश काटने के लिए प्रस्थान कर गए परंतु किसी कारणवश वह क्षीरसागर तक नहीं पहुंच पाए !
*आज लक्ष्मण शेषवतार हैं | इसीलिए लक्ष्मण जी कहते हैं कि हे परशुराम जी तुम्हारे सर पर जो गुरु के ऋण का भार है हमें ऐसा प्रतीत होता है वह ऋण उतारने के लिए आप उतावले हो रहे हैं , परंतु यह सम्भव नहीं है |*
शायद इसीलिए परशुराम जी बार-बार *लक्ष्मण जी* का शीश काटने का प्रयास करते हैं परंतु सफल नहीं हो पाते है |
*क्रोधी मनुष्य का क्रोध क्रोध से ही शांत होता है* जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को भी किंचित क्रोध आया तो परशुराम जी का क्रोध शांत हो गया और वे भगवान राम की जय जयकार करते हुए महेंद्र पर्वत को लौट गए | इस प्रकार *लक्ष्मण जी* भगवान श्री राम के विवाह की आधारशिला बनकर जनकपुर में पूरी सभा के सामने स्वयं को प्रस्तुत करके यह दिखा दिया कि सेवक का धर्म ये केन प्रकारेण अपने स्वामी की सेवा ही है |
*शेष अगले भाग में*